मेरे पड़ोसी ने एक बार मुझसे बताया ‘मेरा बच्चा स्कूल जाने में अपना वक्त और ऊर्जा बर्बाद नहीं करता। इसके बजाय, मैं उसे एक कोचिंग सेंटर में भेजता हूं, जो उसे वह तैयारी करवाते हैं जिसका महत्व है- मेरा मतलब है जेईई और नीट जैसी परीक्षाएं पास करने का ‘कौशल’ हासिल करना। और इस वास्ते उसके स्कूल के साथ एक व्यवस्था कर रखी है। भले ही वह पूरे साल अनुपस्थित रहे, फिर भी वह बोर्ड परीक्षाओं में बैठ सकता है। स्कूल इसका इंतजाम करता है।’ उनके साथ मेरे संवाद के दौरान, मुझे उनके तर्क की तीव्रता का अहसास हुआ- उनका मानना है कि जीवन में केवल ‘सफलता’ ही मायने रखती है, और शिक्षा का कोई उच्च या महान लक्ष्य नहीं है।
वह अकेले नहीं हैं, असल में, मेडिकल-इंजीनियरिंग कॉलेजों में प्रवेश पाने के लिए मानकीकृत बना दिए गए इम्तिहान उत्तीर्ण करने के तर्क को हमारी चेतना पर हावी होने और ‘व्यावहारिक’ शिक्षा को हमारी धारणा को आकार देने में व्यापक इजाजत मिली हुई है। इसलिए जिसको हम सामान्य समझने लगे हैं- ‘डमी स्कूलों’ का अस्तित्व और लगभग हर इलाके में कोचिंग सेंटरों का एक साथ महिमामंडन – उसका जन्म होता चला गया। केवल इतना ही नहीं। ऐसा करके हम अपने बच्चों को शुरू से ही भ्रष्टाचार को आत्मसात करने के लिए भी प्रोत्साहित कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें भी पता है कि अगर स्कूलों और कोचिंग सेंटरों के बीच उचित ‘सेटिंग’ या किसी तरह का ‘घालमेल’ है, तो वे एक भी कक्षा में उपस्थित हुए बगैर भी बोर्ड परीक्षा में बैठ सकते हैं।
बेशक, सीबीएसई और राज्य बोर्ड भी इस कुप्रथा से अवगत हैं, और कभी-कभार, इन डमी स्कूलों के खिलाफ नाममात्र के कुछ छापे या दंडात्मक उपायों के बारे में सुनते हैं। लेकिन फिर, इस भ्रष्टाचार का मुकाबला तब तक नहीं किया जा सकता जब तक कि हम निम्नलिखित के बारे में कुछ गहन और ठोस कदम न उठाएं : सबसे पहले, हमारे लिए –यानी वयस्क और माता-पिता- खुद को शिक्षित करना और शिक्षा को लेकर और अपने बच्चों के लिए ‘सफलता’ के अर्थ के बारे में अपनी समझ को विस्तृत बनाना महत्वपूर्ण है। बेशक, यह अच्छा है अगर हमारे बच्चे भौतिकी, रसायन विज्ञान, गणित और जीव विज्ञान सीखें, इसमें कोई बुराई नहीं है अगर वे इन विषयों की पहेलियों को हल करना सीखते हैं- जल्दी, फुर्ती और चतुराई से। लेकिन फिर, यह ‘कौशल’ केवल उस चीज़ का अंश मात्र है जिसे सभी महान शिक्षक वास्तव में सार्थक, समग्र और जिंदगी बनाने वाली शिक्षा मानते हैं।
गहन स्तर पर, शिक्षा का मतलब है सीखना, देखना और जिस दुनिया में हम विचरते हैं, उसे समझने की तमाम प्रमुख क्षमताओं का विकास करना– जैसे कि, आलोचनात्मक सोच को तेज करने के लिए बौद्धिक अनुभूति और तर्क करने की शक्ति, मानवीय भावनाओं और संवेदनाओं की गहरी समझ बनाने के लिए कलात्मक और सौंदर्य बोध संबंधी संवेदनशीलता का विकास, मिल-जुलकर काम करने की भावना और भाईचारा, सहयोग और एकजुटता का महत्व समझना, और सबसे बढ़कर, बृहद पारिस्थितिकीय तंत्र से जुड़ाव की कला।
लेकिन फिर, जब हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे बाकी सब भूल जाएं, पूरी तरह से एकल-आयामी बन जाएं, केवल मानकीकृत परीक्षणों को पास करने वाली रणनीतिक तकनीकों को अपनाएं, तो ऐसा करके हम उनके शारीरिक, मानसिक और नैतिक स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान पहुंचाते हैं। वे एक खुदगर्ज/अहंकारी प्रतिस्पर्धी बनकर रह जाते हैं, और वह खो देते हैं जो संवेदनशील और संवादकारी प्राणी के रूप में विकसित होने के लिए वास्तव में महत्वपूर्ण है- अच्छे शिक्षकों की संगति जो उत्प्रेरक के रूप में कार्य करते हैं, संगी-साथियों के साथ मिलकर काम करने का अनुभव और पुस्तकें और शिल्पकला, रंगमंच और फुटबॉल का आनंद, सिद्धांत और व्यवहार के माध्यम से दुनिया को जानना।
खैर, मेरा ‘व्यावहारिक’ पड़ोसी कह सकता है कि अगर उसका बेटा किसी आईआईटी में दाखिला ले लेता है और आखिरकार उसे एक आकर्षक ‘पैकेज’ मिल जाए तो अंत में सब कुछ ‘सही’। लेकिन फिर, यह ‘सफलता’ किस काम की, यदि वह अंदर से जख्मी, टूटा हुआ और अलग-थलग रहे?
इसका मतलब यह नहीं है कि हमारे स्कूल अनिवार्य रूप से वह समग्र शिक्षा और शुचितापूर्ण ज्ञान देने में सक्षम हैं, जिसकी मैं बात कर रहा हूं। वास्तव में, कुछ उल्लेखनीय अपवादों को छोड़कर, हमारे स्कूल हमारे बच्चों को पढ़ाई के साथ-साथ रचनात्मक रूप से सूक्ष्म और गहरी आलोचनात्मक शिक्षा का आनंद उठाने के लिए प्रेरित करने में विफल रहते हैं। इसके बजाय, आधिकारिक पाठ्यक्रम का बोझ, समयसारिणी का अत्याचार, भीड़भाड़ वाली कक्षा में शिक्षक का एकालाप, विज्ञान विषय के मुकाबले मानव विज्ञान को दोयम मानना, साप्ताहिक और वार्षिक परीक्षाओं का जंजाल, और सबसे बढ़कर, ‘टॉपर्स’ बनाना एकमात्र लक्ष्य- ब्रांडेड कोचिंग सेंटर वह प्रदान करने के लिए डिज़ाइन किए गए हैं जिसका सही मायने में ठोस विकल्प बनने में हमारे विद्यालय विफल रहे हैं।
संभवतः, कोचिंग सेंटर- जैसा कि मेरे पड़ोसी जैसे व्यावहारिक माता-पिता की सोच है- यह बेहतर ढंग से करते हैं क्योंकि ये दुकानें बच्चे के समग्र विकास को पल्लवित करने का भ्रम नहीं पालती, बल्कि, सिर्फ जेईई और नीट जैसी परीक्षाओं को क्रैक करने के लिए एमसीक्यू हल करने की तकनीकों पर ध्यान केंद्रित करती हैं। क्या यही कारण है कि हमारे स्कूल आत्मसमर्पण कर चुके हैं और पूरी तरह से असहाय होकर देख रहे हैं कि कैसे कोचिंग उद्योग युवाओं और उनके माता-पिता की चेतना पर कब्जा कर रहा है? ऐसा लगता है कि डमी स्कूलों की वृद्धि रोके नहीं रुकेगी।
बेशक ऐसे विद्यालय भी हैं जहां जीवन-निर्वाह संस्कृति सिखाई जाती है, लेकिन भेड़चाल बन चुकी इस प्रवृत्ति को बदलना तब तक संभव नहीं, जब तक कि हम पेशेवर और उच्च शैक्षणिक पाठ्यक्रमों के लिए युवाओं के चयन के तौर-तरीकों में बदलाव नहीं करते। जेईई, नीट और सीयूईटी जैसी बेहद समस्याग्रस्त मानकीकृत परीक्षाओं को दिए जा रहे महत्व ने स्कूल में छात्र के सीखने और प्रदर्शन का अवमूल्यन किया है। इसलिए विद्यालय में दिखाए जाने वाले प्रदर्शन को भी समान महत्व देना जरूरी है।
इसके अलावा, इन मानकीकृत परीक्षणों को एक काफी विकेंद्रीकृत और गुणात्मक रूप से भिन्न परीक्षा के तरीके से बदलना जरूरी है, जो एमसीक्यू केंद्रित ‘वस्तुनिष्ठ’ प्रश्नों से संतुष्ट रहने के बजाय, किसी विद्यार्थी का मूल्यांकन उसके व्याख्यात्मक कौशल, किसी जटिल समस्या से निपटने और अस्पष्टताओं को हल करने या अनेकानेक संभावित समाधान सोचना, इंजीनियरिंग, मेडिसिन, बुनियादी विज्ञान, उदार कला में करिअर बनाने के लिए उसकी मानसिक अभिरुचि, अच्छी पुस्तकों एवं नए विचारों में उसकी दिलचस्पी के आधार पर किया जाए। इन क्रांतिकारी उपायों के बिना, शिक्षा को विशालकाय कारखाने सरीखे कोचिंग के मुनाफादायक व्यवसाय से बचाना और डमी स्कूलों के सामान्यीकरण का विरोध करना वास्तव में मुश्किल होगा।