आपातकाल
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mahesh khare
महेश खरे की तस्वीर

अठारहवीं लोकसभा के पहले सत्र ने लोकतांत्रिक मूल्यों के चीरहरण करने वाले आपातकाल की याद दिला दी। हालांकि जनता ने आज दृश्य पलट दिया है। आपातकाल लगाने वाली कांग्रेस सत्ता से वंचित होकर मजबूत विपक्ष की भूमिका में है। अनेक ऐसे नेता जो आपातकाल में जेलों में ठूंस दिए गए थे सत्तारूढ़ दल के सांसद और मंत्री के रूप में शपथ ले रहे थे और इंडिया ब्लॉक के सांसद संसद परिसर के बाहर सरकार पर संविधान की परंपरा के उल्लंघन का आरोप लगाते हुए प्रदर्शन कर रहे थे। विपक्षी सांसदों के हाथों में संविधान की प्रतियां थीं। असली टसल प्रोटेम स्पीकर के मुद्दे पर हुई। सरकार के फैसले पर भर्तृहरि महताब प्रोटेम स्पीकर की भूमिका में सक्रिय हो गए और विपक्ष सरकार की दलित विरोधी मानसिकता उजागर करने में जुट गया।

प्रधानमंत्री मोदी और आपातकाल

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हाथ में आपातकाल के दौर का ऐसा हथियार है जो अब तक बहुत कारगर रहा है। 24 जून को संसद के बाहर उन्होंने आपातकाल को लोकतंत्र पर काला धब्बा बताते हुए कहा कि अब यह कोई नहीं कर सकेगा। यह संयोग ही है कि अठारहवीं लोकसभा की पहली बैठक आपातकाल की पूर्व संध्या से शुरू हुई। सांसदों के शपथ के लिए दो दिन रखे गए हैं। लोकसभा को नया स्पीकर 26 जून को मिल जाएगा। अभी तक नए स्पीकर के नाम पर असमंजस बरकरार है। मोदी इस मुद्दे पर भी देश और सांसदों को चौंका सकते हैं। एनडीए सरकार के पास इतना बहुमत है कि वह अपनी मर्जी के स्पीकर और डिप्टी स्पीकर को चुनाव जिता ले जाएगी। कोशिश दोनों पदों पर आम सहमति बनाने की है। विपक्ष के रवैए को देखते हुए इसकी दूर दूर तक संभावना नजर नहीं आती।

प्रोटेम स्पीकर का चयन और विवाद

प्रोटेम स्पीकर की चुनाव प्रक्रिया में विपक्ष की भूमिका ने यह साफ कर दिया है कि स्पीकर और डिप्टी स्पीकर का चुनाव सरकार बहुमत के आधार पर भले ही करा ले। लेकिन, विपक्ष इस बार मजबूत है और वह मोदी के ‘छुपे एजेंडे’ आसानी से संसद में पारित नहीं होने देगा। कांग्रेस ने महताब के चयन को संसदीय मानदंडों का उल्लंघन बताया। हालांकि, अगर इतिहास के पन्ने पलटे जाएं तो पता चलता है कि लोकसभा में इससे पहले दो बार वरिष्ठता की परंपरा का पालन नहीं हुआ। 1956 में सरदार हुकम सिंह को प्रोटेम स्पीकर नियुक्त किया गया। उसके बाद 1977 में डीएन तिवारी अस्थायी स्पीकर बने।

स्पीकर का महत्व

लोकसभा का पीठासीन अधिकारी होने के नाते स्पीकर की लोकसभा के संचालन में अहम भूमिका होती है। इस बार गठबंधन सरकार और मजबूत विपक्ष को देखते हुए भाजपा अपना ही स्पीकर बनाने की पुरजोर कोशिश करेगी। टीडीपी के चंद्रबाबू नायडू डिप्टी स्पीकर अपनी पार्टी के सांसद को बनवाना चाहते हैं। लेकिन भाजपा कोई रिस्क इसलिए नहीं लेना चाहेगी क्योंकि बहुमत बनाए रखने में स्पीकर की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। अटल बिहारी वाजपेयी के अविश्वास प्रस्ताव के समय स्पीकर की भूमिका सिद्ध हो चुकी है।

प्रोटेम स्पीकर की भूमिका

स्पीकर का चुनाव बहुमत के आधार पर होता है, लेकिन जब तक स्पीकर का चुनाव नहीं हो जाता तब तक लोकसभा में अहम दायित्वों को पूरा कराने के लिए प्रोटेम स्पीकर को चुना जाता है। यही वजह है कि प्रोटेम स्पीकर को अस्थायी स्पीकर भी कहते हैं। संविधान में प्रोटेम स्पीकर के पद का उल्लेख नहीं है, लेकिन संसदीय मामलों के मंत्रालय की नियमावली में प्रोटेम स्पीकर की नियुक्ति और शपथ का उल्लेख है। इसके अनुसार नई लोकसभा द्वारा जब तक स्पीकर की नियुक्ति नहीं की जाती है, तब तक स्पीकर की जिम्मेदारियों के निर्वहन के लिए राष्ट्रपति सदन के ही किसी सदस्य को प्रोटेम स्पीकर नियुक्त करते हैं।

विपक्ष का विरोध

नई लोकसभा के सदस्यों को शपथ ग्रहण कराना प्रोटेम स्पीकर का प्राथमिक काम है। नियमों के अनुसार, राष्ट्रपति द्वारा तीन अन्य लोकसभा सांसदों को भी सांसदों को शपथ दिलाने के लिए नियुक्त किया जाता है। इस बार परंपरा के उल्लंघन पर विरोध जताते हुए विपक्ष के तीनों सांसदों ने शपथ ग्रहण नहीं की। जैसे ही संसदीय कार्यमंत्री किरेन रिजिजू ने भर्तृहरि महताब के नाम का एलान किया वैसे ही कांग्रेस ने विरोध करना शुरू कर दिया। कांग्रेस का कहना है कि उनकी पार्टी के आठ बार के सांसद कोडिकुनिल सुरेश सबसे वरिष्ठ सांसद हैं, ऐसे में उन्हें लोकसभा का अस्थायी अध्यक्ष नियुक्त किया जाना चाहिए, जबकि महताब सात बार के ही सांसद हैं। कांग्रेस ने आरोप लगाया कि वरिष्ठता की अनदेखी कर भाजपा संसदीय मानदंडों को खत्म करने की कोशिश कर रही है। इस पर रिजिजू ने विपक्ष पर पलटवार कर कहा कि महताब लगातार सात बार के लोकसभा सदस्य हैं, जिससे वह इस पद के लिए उपयुक्त हैं। उन्होंने कहा कि सुरेश 1998 और 2004 में चुनाव हार गए थे। जिस कारण उनका मौजूदा कार्यकाल निचले सदन में लगातार चौथा कार्यकाल है।

पत्रकारिता पर भारी वो दिन

आज से ठीक पचास साल पहले 25 जून की वह रात भुलाए नहीं भूलती। मध्य प्रदेश के ग्वालियर शहर में उस रात ‘स्वदेश’ का अंक लगभग पूर्णता की ओर था। सभी सहयोगी अपने अपने पेज फाइनल कर रहे थे कि तभी शांत वातावरण को चीरती तेज हूटर की आवाज के साथ सरकारी लालबत्ती गाड़ी ‘स्वदेश’ परिसर में प्रवेश करती है। एडीएम धर्मवीर बाहर निकले तो हमने दोस्ताना अंदाज में उनसे सवाल किया- ‘इतनी रात में?’ लेकिन धर्मवीर के चेहरे पर मित्रता के भाव की जगह अधिकारी का ताव तैरता दिखा। सूचना विभाग के डिप्टी डायरेक्टर नारद जो अक्सर दफ्तर में घंटों बिताते थे। आज उनका रूप भी बदला हुआ था। संपादक राजेन्द्र शर्मा के बारे में पूछताछ हुई। पर वो ना तो दफ्तर में मिले और ना ही बंगले पर।

आपातकाल की काली रात

खैर, थोड़े ही समय में पता चल गया कि काली रात अपने साथ आपातकाल का काला नाग लेकर पत्रकारिता और विपक्ष को डसने आई है। अखबार की छपाई रोक दी गई। रोटरी मशीन पर चढ़ी सभी प्लेटें उतार कर सूचना अधिकारी अपने साथ ले गए। पत्रकारिता का गला दबा दिया गया। जो-जो करेक्शन बताए गए वो रात में ही करने पड़े। कई खबरें हटानी पड़ीं। जब सूचना अधिकारी के हस्ताक्षर के साथ प्लेट वापस आई तब बड़ी मुश्किल से अखबार छप सका। एसपी आफिस से दूसरे दिन फोन पर आदेश मिला-खरे जी पुलिस को बताए बिना शहर नहीं छोड़ना। तब हम स्वदेश के रिपोर्टर हुआ करते थे। इसलिए हम जैसे सभी रिपोर्टरों पर की खबरों पर प्रशासन की पैनी नजर रहती थी। दूसरे दिन से अखबारों के सभी पेजों पर प्रशासन की लिखित स्वीकृति अनिवार्य कर दी गई। इस नियम का सख्ती से पालन भी करना होता था। हर पेज का लीड आइटम (मुख्य समाचार) प्रशासन ही तय करता था। तब पत्रकारों की कलम पर प्रशासन का सख्त पहरा था। वो दिन सच में बहुत भारी थे।

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