आपातकाल और मेरी यादें: के विक्रम राव
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आपातकाल और मेरी यादें: के विक्रम राव 1
K. Vikram Rao

तब तक देश पर आपातकाल थोपे एक साल गुजर चुका था। अर्थात् यह 48 वर्ष पूर्व की बात है। हम लोग तिहाड़ जेल में बहस करते थे कि यदि इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री पद छोड़ देतीं, इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय मानकर रायबरेली से अपने रद्द किये गये लोकसभा के चुनाव पर सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर कर, प्रतीक्षा करतीं, किसी माकूल कांग्रेसी को प्रधानमंत्री बना देतीं जो वक्त पर उनके खातिर हट जाता तो इससे उनकी जनपक्षधर छवि और गहरी होती। इससे उनके दोस्त दंग और दुश्मन तंग हो जाते। फलस्वरूप नेहरू गांधी परिवार का सत्तावाला सिलसिला अटूट बना रहता और फिर चौदह वर्षों तक परिवार सत्ता से कटा-कटा नहीं रहता। इस कीर्तिमान को विश्व का कोई भी राजवंश तोड़ न पाता। हालांकि अब यह प्रश्न महज अकादमिक रह गया है।

इंदिरा गांधी का असली चेहरा

इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री पद कभी भी नहीं छोड़तीं। उनके पैतृक संस्कार, उनकी निजी सोच, राजनीतिक प्रशिक्षण और कौटुंबिक कार्यशैली, इंदिरा गांधी को इस लोकतांत्रिक चिंतन तथा व्यवहार को अंगीकार करने के लिए कतई कायल न बनातीं। भारतीय संविधान बनाने वाले महारथियों ने ही वे प्रावधान रचे थे जिनके तहत राष्ट्रपति बस एक हस्ताक्षर से सारी राजसत्ता को समेटकर महत्वाकांक्षी और अधिनायकवादी प्रधानमंत्री को उपहार में दे सकता था। यही हुआ भी। कमजोर फखरुद्दीन अली अहमद ने आधी रात को तंद्रिल मुद्रा में इंदिरा गांधी के प्रस्ताव को पलक झपकते अनुमोदित कर दिया। बाद में काबीना के गुलदस्तों ने उसे क्लीन स्वीकृति दे दी।

मोरारजी देसाई की जनता पार्टी सरकार की तारीफ

इसलिए तारीफ करनी चाहिए मोरारजी देसाई वाली जनता पार्टी सरकार की। उसने प्राथमिकता के तौर पर इंदिरा गांधी शासन वाला बयालीसवां संविधान संशोधन (मूलाधिकार खत्म करने वाला) रद्द कर दिया। चौवालीसवें संशोधन (9 मई, 1978) द्वारा आपातकाल थोपने की शर्तों को इतना कठिन बना दिया कि इंदिरा गांधी फखरुद्दीन अली अहमद वाली हरकत दुबारा कोई तानाशाह कर न सके। संविधान को मरोड़ना एडोल्फ हिटलर ने भी किया था। वाइमर संविधान को जर्मन राइच (संसद) में ‘ऐनेबलिंग एक्ट’ (अधिकार प्रदान करनेवाले अधिनियम) को पारित कराकर नाजी पार्टी का शासन थोप दिया था। तब जर्मन और हिटलर पर्याय बन गये थे। वही बात जो सत्तासीन कांग्रेसी पार्टी के असमिया अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने कही थी, ‘इंदिरा इज़ इंडिया।’

नेहरू का संभावित रुख

एक और मुद्दा हम लोगों की चर्चा में उभरता था। यदि 1975 वाली स्थिति जवाहरलाल नेहरू के समक्ष आ जाती तो वे कैसे निबटते? आजादी के पूर्व ‘माडर्न रिव्यू’ में नेहरू ने छद्म नाम से लेख लिखा था, कि सत्ता पाकर क्या नेहरू तानाशाह बन जायेंगे? यह एक शगूफा तब नेहरू ने छोड़ा था कि कांग्रेसी उनके बारे में कैसी आशंकाएं रखते हैं। इतिहास गवाह है कि अधिकार और सत्ता पाने के लिए नेहरू ने क्या नहीं किया? कांग्रेस अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू के बाद गांधीजी की अस्वीकृति पर लाहौर अधिवेशन (1930) में जवाहरलाल खुद अध्यक्ष बन गये। त्रिपुरी अधिवेशन में निर्वाचित अध्यक्ष सुभाषचन्द्र बोस को दरकिनार कर अपना वर्चस्व लौटा लिया। अपार पार्टी समर्थन के बावजूद सरदार वल्लभ भाई पटेल को महात्मा गांधी के समर्थन से काटकर नेहरू खुद कांग्रेस अध्यक्ष और फिर प्रधानमंत्री बन बैठे। जब बेटी को चुनौती की आशंका बढ़ी तो कामराज योजना रचकर (1964) सारे प्रतिद्वंद्वियों को पदच्युत करा दिया। ठीक वही काम जो इंदिरा गांधी ने 1984 में अपनी हत्या के चंद महीनों पूर्व किया था।

राजनीतिक वंशवाद

नारायणदत्त तिवारी तथा विश्वनाथ प्रताप सिंह को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री तथा पार्टी प्रमुख नामित किया ताकि राजीव गांधी के प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी को कोई अन्य चुनौती देने वाला न रहे। प्रणब मुखर्जी राज्यसभा में ही आते रहे। कभी भी प्रत्यक्ष मतदान में नहीं जीते थे। वे कैसे प्रतिस्पर्धी बनते। ऐसी ही नेहरू-इंदिरा स्टाइल में पंडित अटल बिहारी वाजपेयी ने भी जनसंघ और फिर भारतीय जनता पार्टी में किया। जिस किसी से चुनौती की आशंका थी वाजपेयी जी ने उन्हें वनवास दिलवा दिया, जैसे पंडित मौलीचन्द शर्मा, प्रोफेसर बलराज मधोक, डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी और लालकृष्ण आडवाणी। भाजपा ने भी वहीं किया जो कांग्रेस ने किया था। जिस नेता को प्रधानमंत्री बनना चाहिए था उसे उप प्रधानमंत्री के पायदान पर धकेल दिया।

बड़ौदा डाइनामाइट षड़यंत्र केस

बड़ौदा डाइनामाइट षड़यंत्र केस के हम सत्ताइस अभियुक्त – प्रथम जार्ज फर्नांडिस, द्वितीय मैं (के. विक्रम राव), फिर सांसद वीरेन शाह जो बाद में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल बने, गांधीवादी प्रभुदास पटवारी जो तमिलनाडु के राज्यपाल बने, आदि पर सीबीआई यह आरोप लगा ही नहीं पाई कि हमारी क्रियाओं से कोई प्राणहानि हुई हो। हम अहिंसक थे। हालांकि हम लोग जेल कभी भी नहीं जाना चाहते थे। हम तब भूमिगत अखबार निकालना, पोस्टर-पर्चे आदि भेजना, अन्य प्रदेशों के भूमिगत नेताओं को गुजरात में शरण देना आदि करते थे। चूंकि गुजरात में तब कांग्रेस को पराजित कर विधान सभा में जनता मोर्चा की सरकार बनी थी और मोरारजी देसाई के अनुयायी बाबू भाई पटेल मुख्यमंत्री थे तो गुजरात में मीसा अथवा अन्य काले कानून लागू नहीं थे। हालांकि यह सीमित प्रजा शाही बस साल भर तक चली। फिर गुजरात भी देश की मुख्यधारा (तानाशाही वाली) में आ गया।

भूमिगत संघर्ष

बहुधा हम भूमिगत कार्यकर्ताओं को मलाल रहता था कि एक लाख के करीब लोग जेल चले गये। यदि वे भूमिगत रहते तो हमारा संघर्ष तीव्र होता। हमारे डाइनामाइट केस के साथियों द्वारा संघर्ष जब तेज हुआ तो कुछ कमजोर कड़ियां टूट गईं। बड़ौदा में तब मैं टाइम्स ऑफ इंडिया का संवाददाता था और भूमिगत संघर्ष का केन्द्र मेरा आवास था। मगर भांडा फूट गया और पुलिस ने छापा मारा तथा मैं गिरफ्तार कर लिया गया। हमारा खेल खत्म हो गया।

गिरफ्तार होने के पूर्व एक खास जिम्मेदारी मैंने निभाई थी। महाराष्ट्र-गुजरात सीमा पर भूमिगत नेताओं को पिकअप करना, अपनी कार में बैठाकर अहमदाबाद लाना। एक दिन एक व्यक्ति को लाने का जिम्मा था। तब हम सबका नियम था कि नाम नहीं पूछा जाएगा। क्योंकि पुलिस के दबाव में सूचनाएं गुप्त न रह पातीं। वह व्यक्ति मुझे परिचित लगा। बुश शर्ट, पैंट और काले बालों से पहचानने में देर हुई। फिर याद आया कि अपने विश्वविद्यालय के दिनों में पानदरीबा चौरस्ते पर बने भवन की पहली मंजिल पर भारतीय जनसंघ के प्रादेशिक कार्यालय में मिला करता था। याद आया वे नानाजी देशमुख थे। मगर कर्पूरी ठाकुर को पहचानने में देर नहीं लगी। वहीं गूंजती आवाज, वही आकर्षक आंखें। सिख वेश में जार्ज फर्नांडिस का तो मैं ड्राइवर ही बन गया था।

तिहाड़ जेल की यादें

आज 50 वर्ष पूर्व की कुछ घटनाएं दिमाग में धूमकर आ जाती हैं। खासकर बड़ौदा जेल वाली। एक रिपोर्टर ने अदालती पेशी पर पूछा कि कौन सी चीज याद आती है और किस की कमी अखरती है मैंने जवाब दिया कि जेल में टेलीफोन की घंटी नहीं सुनाई पड़ती, जो बड़ी कचोटती है। अखबार भी नहीं मिलते। मगर यह की कमी धीरे-धीरे दूर हो गई, जब एक युवक बड़ौदा जेल में रोज अखबारों का बंडल दे जाता था, और जेलर साहब मेहरबान हो जाते। बाद में पता चला कि यह फुर्तीला युवक एक स्वयं सेवक था जिसका नाम है नरेंद्र दामोदर दास मोदी, आज के गुजरात के भाजपाई मुख्यमंत्री।

लोकतंत्र की जीत

एक अन्य याद है मेरे तनहा सैल की, जहां केवल फांसी की सजा पाने वाले ही रखे जाते थे। यहां मेरे पहले रहे कैदी ने दीवार पर लिखा था कि ‘यह दिन भी बीत जाएगा।’ बड़ा ढाढस बंधता था कि आपातकाल की अंधेरी सुरंग के उस छोर में रोशनी दिखेगी, शीघ्र। लेकिन मधुरतम घटना थी जब तिहाड़ जेल के सत्रह नम्बर वार्ड में उस रात के अंतिम पहर में पाकेट ट्रांजिस्टर पर वॉयस ऑफ अमेरिका के समाचार वाचक ने उद्घोषणा की कि रायबरेली चुनाव क्षेत्र में कांग्रेसी उम्मीदवार के पोलिंग एजेंट ने निर्वाचन अधिकारी से मांग की कि मतगणना फिर से की जाय। मै तब उछल पड़ा। जार्ज फर्नांडिस को जगाया और बताया कि, ‘इंदिरा गांधी पराजित हो गई।’ पूरे जेल में बात फैल गई। तारीख मार्च 17, 1977 थी, लगा दीपावली आठ माह पूर्व आ गई। सारे जेल में लाइट जल उठीं। विजय रागिनी बज उठी। आखिर तानाशाह मतदाताओं द्वारा धराशायी हो गया।

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