Indira Gandhi and Emergency
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आपातकाल: इंदिरा गांधी का तानाशाही शासन और लोकतंत्र का संघर्ष 1
नीरज कुमार दुबे

विपक्ष ने लोकसभा चुनावों के दौरान आरोप लगाया कि यदि मोदी सरकार दोबारा सत्ता में आई तो संविधान खत्म कर देगी। चुनावों के बाद जब फिर से मोदी सरकार आ गई तो लोकसभा के पहले सत्र के पहले दिन विपक्ष ने संविधान की प्रतियां हाथ में लेकर संसद परिसर में मार्च निकाला और सरकार को आगाह किया कि वह संविधान से कोई छेड़छाड़ नहीं करे। यहां सवाल उठता है कि क्या कोई सरकार संविधान से छेड़छाड़ कर सकती है? सवाल यह भी उठता है कि क्या आज तक संविधान से किसी ने छेड़छाड़ की है? सवाल यह भी उठता है कि क्या भारत में आज तक कोई ऐसा राजनीतिज्ञ हुआ है या कोई ऐसी राजनीतिक पार्टी रही है जिसने संविधान से ऊपर अपने हितों को रखा हो। इन सब प्रश्नों का उत्तर ढूँढ़ेंगे तो जवाब मिलेगा कांग्रेस और इंदिरा गांधी। कांग्रेस ही वह पार्टी है और इंदिरा गांधी ही वह राजनीतिज्ञ हैं जिन्होंने अपने हितों की पूर्ति के लिए संविधान को ताक पर रख दिया था।

आपातकाल की शुरुआत

इतिहास में 25 जून का दिन भारत के लिहाज से एक महत्वपूर्ण घटना का गवाह रहा है क्योंकि 1975 में इस दिन तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने मनमाने तरीके से देश में आपातकाल थोप दिया था। 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक की 21 महीने की अवधि में भारत में आपातकाल रहा था। तत्कालीन राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार की सिफारिश पर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 के अधीन देश में आपातकाल की घोषणा की थी। देखा जाये तो स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह सबसे विवादास्पद काल था। यह भी दुर्भाग्यपूर्ण था कि आजादी के महज 28 साल बाद ही देश को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कारण आपातकाल के दंश से गुजरना पड़ा था। इसकी वजह से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी भारत की छवि काफी प्रभावित हुई थी और आज भी विश्व इतिहास में यह दर्ज है कि भारत भले लोकतंत्र की जननी है लेकिन कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में इस लोकतंत्र को जेल की सींखचों के पीछे डाल दिया गया था।

इंदिरा गांधी की तानाशाही

तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तानाशाह इसलिए बन गयी थीं क्योंकि 1971 में हुए लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी ने अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी राज नारायण को रायबरेली संसदीय क्षेत्र में पराजित किया था। लेकिन चुनाव परिणाम आने के चार साल बाद राज नारायण ने हाईकोर्ट में चुनाव परिणाम को चुनौती दी। उन्होंने दलील दी थी कि इंदिरा गांधी ने चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया, चुनाव में तय सीमा से अधिक पैसे खर्च किए और मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए ग़लत तरीकों का इस्तेमाल किया। मामले पर सुनवाई करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 12 जून 1975 को इंदिरा गांधी को आरोपों में दोषी पाया और छह साल के लिए पद से बेदखल कर दिया तथा इंदिरा गांधी के चिर प्रतिद्वंद्वी राज नारायण को चुनाव में विजयी घोषित कर दिया।

राजनीतिक संकट और आपातकाल की घोषणा

अदालत के इस फैसले ने देश में बड़ा राजनीतिक तूफान खड़ा कर दिया। विपक्ष इंदिरा सरकार पर हमलावर हो गया क्योंकि इंदिरा गांधी पर चुनाव के दौरान भारत सरकार के अधिकारी और अपने निजी सचिव यशपाल कपूर को अपना इलेक्शन एजेंट बनाने, स्वामी अवैतानंद को 50,000 रुपये घूस देकर रायबरेली से ही उम्मीदवार बनाने, वायुसेना के विमानों का दुरुपयोग करने, डीएम-एसपी की अवैध मदद लेने, मतदाताओं को लुभाने हेतु शराब, कंबल आदि बांटने और निर्धारित सीमा से अधिक खर्च करने जैसे 14 आरोप सिद्ध हुए थे।

अदालत का फैसला सामने आते ही पूरी कांग्रेस और सरकार इंदिरा गांधी के नेतृत्व में एकजुट हो गयी और पार्टी नेताओं ने इंदिरा गांधी को इस्तीफा देने से मना किया। कांग्रेस कार्यकर्ता इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा के खिलाफ नारे लगाते हुए प्रदर्शन करने लगे और इस पूरे प्रकरण को अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए की साजिश बताने लगे। इंदिरा गांधी के पक्ष में नारेबाजी होने लगी। नेताओं में एक से बढ़कर एक चापलूसी वाले बयान देने की होड़ लग गयी। इसी दौरान तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने ‘इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा’ का नारा दे दिया जिससे चापलूसी की सारी हदें पार हो गयीं। पूर्व प्रधानमंत्री और तत्कालीन कांग्रेस नेता चंद्रशेखर ने हालांकि इस दौरान इंदिरा गांधी को जयप्रकाश नारायण से नहीं उलझने की सीख देकर उन दोनों नेताओं के बीच वार्ता कराने का प्रस्ताव दिया था लेकिन कांग्रेस में उनकी किसी ने नहीं सुनी। इंदिरा गांधी ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को नहीं स्वीकार किया और न्यायपालिका का उपहास कर फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे डाली।

विपक्ष का विरोध और आपातकाल की घोषणा

इस बीच, इंदिरा गांधी का हठ देखकर समूचा विपक्ष एकजुट हो गया और न्यायालय द्वारा अयोग्य घोषित इंदिरा गांधी के इस्तीफे की मांग तेज हो गयी। पूरा विपक्ष राष्ट्रपति भवन के सामने धरना देकर विरोध दर्ज करा रहा था। इसके अलावा देश भर के शहर, जलसे, जुलूस और विरोध प्रदर्शन के गवाह बन रहे थे। 22 जून 1975 को दिल्ली में आयोजित रैली को जयप्रकाश नारायण समेत कई अन्य बड़े नेता संबोधित करने वाले थे। यह खबर सामने आते ही कांग्रेस इतनी डर गयी थी कि उसने कोलकाता-दिल्ली के बीच की वह उड़ान ही निरस्त करा दी जिससे जयप्रकाश नारायण दिल्ली आने वाले थे। इसी बीच, 24 जून को सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा गांधी की उस याचिका पर फैसला सुना दिया जिसके तहत उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश को बरकरार रखा, हालांकि इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बने रहने की इजाजत दे दी। इस फैसले से विपक्ष में जहां नया जोश आ गया वहीं इंदिरा गांधी बौखला गयीं।

विपक्ष की जो जनसभा दिल्ली के रामलीला मैदान में 22 जून को होने वाली थी वह आखिरकार 25 जून को हुई। खचाखच भरे रामलीला मैदान में ‘महंगाई और भ्रष्टाचार, सत्ता सब की जिम्मेदार’, ‘हिंदू-मुस्लिम सिख-ईसाई, सबके घर में है महंगाई’, ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’, जैसे तमाम नारे गूंजते रहे। जनसभा को तमाम विपक्षी नेताओं ने संबोधित किया और जब जयप्रकाश नारायण मंच पर आये तब उन्होंने स्पष्ट शब्दों में इंदिरा गांधी के इस्तीफे की मांग कर डाली और इंदिरा गांधी सरकार के अस्तित्व को मानने से इंकार कर दिया। जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी के इस्तीफा देने तक देश भर में रोज प्रदर्शन करने का आह्वान किया। इस आह्वान के तुरंत बाद जनता जब सड़कों पर उतरने लगी तो इंदिरा गांधी सरकार की हालत बिगड़ने लगी। इसलिए रामलीला मैदान में विपक्ष की जनसभा के कुछ घंटों बाद ही तत्कालीन सरकार ने भारत में लोकतंत्र का गला घोंट दिया।

आपातकाल की घोषणा और जनता की प्रतिक्रिया

अपने खिलाफ विपक्ष की एकजुटता और विरोध प्रदर्शन बढ़ते देख इंदिरा गांधी ने 25-26 जून की रात को आपातकाल लगाने का फैसला किया और रात्रि को ही राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के दस्तखत के साथ भारत में आपातकाल लागू हो गया। अगली सुबह समूचे देश ने रेडियो पर इंदिरा गांधी की आवाज में संदेश सुना कि भाइयों और बहनों, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है। लेकिन इससे सामान्य लोगों को डरने की जरूरत नहीं है। लोगों को आपातकाल का मतलब तब समझ आया जब उन्हें पता चला कि उनके सभी मौलिक अधिकारों को स्थगित कर दिया गया है। इसके साथ ही सरकार विरोधी भाषणों और किसी भी प्रकार के प्रदर्शन पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया है। इससे जनता नाराज हुई और सड़कों पर उतरने लगी लेकिन सड़क पर उतरने वाले हर शख्स को जेलों में ठूंस दिया गया था।

आपातकाल का दुरुपयोग

हम आपको बता दें कि आपातकाल के दौरान कांग्रेस ने आम आदमी की आवाज को कुचलने के लिए जिस धारा-352 का दुरुपयोग किया था उसके तहत सरकार को उस समय असीमित अधिकार प्राप्त थे जिसके तहत इंदिरा गांधी जब तक चाहें सत्ता में रह सकती थीं और लोकसभा-विधानसभा के लिए चुनाव की जरूरत नहीं थी। यही नहीं मीडिया और अखबार आजाद नहीं थे और सरकार कैसा भी कानून पास करा सकती थी। उस समय मीसा और डीआईआर कानून के तहत देश में एक लाख से ज्यादा लोगों को जेलों में ठूंस दिया गया। उस काले दौर में जेल-यातनाओं की दहला देने वाली कहानियां भरी पड़ी हैं। देश के जितने भी बड़े विपक्षी नेता थे, सभी के सभी सलाखों के पीछे डाल दिए गए। राजनीतिक बंदियों की अपने परिवारों से मुलाकात तक पर पाबंदी लगा दी गई थी। नेता ही नहीं अदालतें भी एक तरह से कैद हो चुकी थीं। किसी को जमानत नहीं दी जा रही थी और मानव अधिकारों के उल्लंघन पर स्वतः संज्ञान नहीं लिया जा रहा था। राजनीतिक कार्यकर्ता जेल में मानसिक-शारीरिक यातनाएं सह रहे थे। पुलिस हिरासत और जेलों में मौत हो रही थीं लेकिन कहीं कोई सुनने वाला नहीं था।

परिवारवाद और सत्ता का असंवैधानिक केंद्र

आपातकाल के दौरान ही देश में परिवारवाद भी जोर पकड़ने लगा था। उस समय इंदिरा गांधी के उत्तराधिकारी के रूप में संजय गांधी सत्ता के असंवैधानिक केंद्र बन चुके थे और अपने दोस्त बंसी लाल, विद्याचरण शुक्ल और ओम मेहता की तिकड़ी के जरिए देश को चला रहे थे। संजय गांधी ने विद्याचरण शुक्ला को सूचना प्रसारण मंत्री बनवा दिया था जिन्होंने मीडिया पर सरकार की इजाजत के बिना कुछ भी लिखने-बोलने पर पाबंदी लगा दी थी। जिसने भी उनका आदेश मानने से इंकार किया उसे जेलों में डाल दिया गया था। यही नहीं, आपातकाल के दौर में भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद पर बनी फिल्मों, किशोर कुमार के गानों, महात्मा गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर के उद्धरणों तक पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।

लोकतंत्र का सबक

आपातकाल के ‘काले दिनों’ को कभी नहीं भूला जा सकता जब संस्थानों को सुनियोजित तरीके से ध्वस्त कर दिया गया था। आपातकाल की बरसी हमें निरंकुश ताकतों के खिलाफ विद्रोह तथा तानाशाही, भ्रष्टाचार और वंशवाद के विरुद्ध संग्राम का सबक और साहस भी देती है। लोकतंत्र की मूल अवधारणाओं को तभी मजबूत किया जा सकता है जब हम तानाशाहों के खिलाफ आवाज उठाते रहेंगे। हमें उस राजनीतिक दल और उस राजनीतिक परिवार से भी सावधान रहना होगा जो लोकतंत्र और संविधान के बारे में बातें तो बड़ी-बड़ी करते हैं लेकिन उनका इतिहास सत्ता के सुख के लिए और एक परिवार की खातिर देश को जेल में तब्दील कर देने का है।

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