बिरहोर जनजाति के 75 लोगों को भी विकसित नहीं कर पाई सरकार
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कठौतिया केवाल(गया): कठौतिया केवाल लुप्तप्राय आदिम जनजाति बिरहोर का पर्याय बन गया है। सरकारी उदासीनता से यह स्थिति बनी है जिससे यहां के बिरहोरों की एक छोटी से टोली आज भी आदिम युग में ही है। मूलभूत सुविधाएं बिल्कुल नदारद हैं। बिहार-झारखंड की सीमा पर फतेहपुर प्रखंड अंतर्गत गुरपा थाना के अधीन कठौतिया केवाल में सरकार ने योजनाएं भी चलाईं,लेकिन आधे-अधूरे मन से।

सरकारी योजनाओं पर नजर डालिए। टोले के 27 बिरहोर परिवार हैं मगर उनके लिए दो सार्वजानिक शौचालय बनाये गए। उद्घाटन हुआ। उद्घाटन के कुछ ही दिनों के बाद शौचालयों के शेड चोरी हो गए। टोले में लोगों के लिए 15 साल पहले इंदिरा आवास बने लेकिन खिड़की-दरवाज नहीं लगे। मकानों का प्लास्टर तो हुआ ही नहीं। ज्यादातर सरकारी बाबुओं की लालफीताशाही या फिर जनप्रतिनिधियों में इच्छाशक्ति की कमी की भेंट चढ़ गई। इस लुप्तप्राय जनजाति के लोगों के प्रति सरकारी नजरिया यह बताता है कि खुद सरकार की समझ में नहीं आ रहा कि इनका विकास कैसे संभव हो सकता है।

नतीजतन, अपने तरीके से जीवन जी रहे विरहोरों की इस छोटी से टोली कोई 5वीं से ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं है। टोले में एक आंगनबाड़ी केंद्र तथा एक प्राथमिक विद्यालय है। बिरहोर समुदाय के काफी कम बच्चे ही पढ़ने जाते हैं। विद्यालय के शिक्षक ने बताया कि काफी समझाने-बुझाने के बाद एक-दो दिनों के लिए लोग बच्चों को स्कूल भेजते हैं। लेकिन, फिर से जंगलों में लकड़ी व जड़ी-बुटी चुनने चले जाते हैं। इनके साथ संवाद में इनकी भाषा आड़े आ जाती है। टोले में एक-दो व्यक्तियों को छोड़ शेष को हिंदी समझ में नहीं आती है।

यहां निवास करने वाले बिरहोर जनजाति के लोगों में जागरुकता की भी काफी कमी है। यही कारण है कि करीब 18 वर्ष पहले भी इस टोले की आबादी करीब 70 थी। और आज भी यहां 27 परिवार के 75 लोग रहते हैं।

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