पूर्व कार्यवाहक प्रधानमंत्री की जयंती पर विशेष
कृष्ण प्रताप सिंह
‘सादा जीवन उच्च विचार’ की राह अब नेताओं में शायद ही किसी को सुहाती हो। लेकिन पहले ऐसा नहीं था। नवस्वतंत्र देश में स्वतंत्रता संघर्ष की आंच से तपकर निकले अनेक ऐसे नेता थे, जो निजी सुखों और वैभवों से सायास परहेज बरतकर इस राह पर चलते थे। इनमें महात्मा गांधी के बाद की पीढ़ी के दो नामचीन नेताओं लालबहादुर शास्त्री (2 अक्तूबर, 1904 – 11 जनवरी, 1966) व गुलजारीलाल नन्दा (4 जुलाई, 1898 – 15 जनवरी, 1998) ने तो अपने जीवन को मिसाल बनाकर, इस राह के प्रायः सारे उदात्त मूल्यों को अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करने की भरपूर कोशिशें कीं।
शास्त्री को तो खैर नियति ने ज्यादा समय ही नहीं दिया, लेकिन नन्दा ने अपने निजी व सार्वजनिक जीवन में कोई आंच नहीं आने दी। जब उनकी ईमानदार देशसेवा ने उन्हें ऐसे मोड़ पर ला खड़ा कर दिया, जहां, और तो और, दो-दो बार कार्यवाहक प्रधानमंत्री रह चुकने पर भी उनके निकट एक ही हासिल था- मोहताजी यानी आर्थिक बदहाली, जिसके चलते राजनीति से अवकाश लेने के बाद वे एक अदद घर तक से महरूम रहे। आज इंदौर में उनके नाम पर नन्दानगर नाम से पूरी की पूरी कालोनी बसी है। उस वक्त राजधानी दिल्ली के जिस घर में रहते थे, उसका किराया तक नहीं दे पाते थे। स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उन्हें स्वीकृत 500 रुपये की सरकारी पेंशन लेने से भी उन्होंने यह कहकर मना कर दिया था कि उन्होंने आजादी की लड़ाई पेंशन के लिए थोड़े ही लड़ी थी।
खुद्दार तो वे इतने थे कि उन्हें अपनी संतानों, परिजनों व शुभचिंतकों से किसी भी रूप में आर्थिक सहायता लेना गवारा नहीं था। सरकार द्वारा घर देने के प्रस्ताव को भी उन्होंने ठुकरा दिया था। उनके पास अपना घर तक नहीं था तो कार या कोई और वाहन होने का सवाल ही नहीं था। इसलिए राजधानी दिल्ली में वे प्रायः बसों से आते-जाते दिखाई देते थे।
बाद में उनकी अहमदाबाद वासी बेटी से उनकी दुर्दशा नहीं देखी गई तो वह उन्हें किसी तरह समझा-बुझाकर अपने साथ ले गईं। वर्ष 1998 में 15 जनवरी को अपने सौवें जन्मदिन से कुछ महीनों पहले उन्होंने वहीं अंतिम सांस ली। निधन से कोई साल भर पहले 1997 में उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से विभूषित किया गया, जबकि ‘पद्मविभूषण’ से पहले से विभूषित किया जा चुका था। अपने मंत्रिकाल में वे भ्रष्टाचार को लेकर इतने असहिष्णु थे कि भ्रष्टाचारी कितना भी प्रभावशाली या ‘अपना’ क्यों न हो, उसे बख्शते नहीं थे। एक बार इसी के चलते उन्हें अपना मंत्री पद भी गंवा देना पड़ा था। यह जानना भी दिलचस्प है कि वे जितने बड़े राजनेता, उतने ही अच्छे अर्थशास्त्र के जानकार व लेखक भी थे। उन्होंने कई किताबें तो लिखी ही हैं, श्रमिकों के अधिकारों की सुरक्षा और 1947 में इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस की स्थापना में भी उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
वर्ष 1898 में चार जुलाई को अविभाजित भारत के सियालकोट स्थित गुजरांवाला के बडोकी गोसाईं कस्बे में एक पंजाबी हिन्दू खत्री परिवार में जन्मे नंदा ने सियालकोट व लाहौर में शुरुआती शिक्षा के बाद आगरा व इलाहाबाद (अब प्रयागराज) से अर्थशास्त्र व कानून की पढ़ाई की थी और बम्बई (अब मुम्बई) में अध्यापन करने लगे थे। 1921 में वहीं उनकी महात्मा गांधी से भेंट हुई तो उनके प्रस्ताव पर वे गुजरात में आ बसे थे।
उन्होंने 1932 के राष्ट्रव्यापी सत्याग्रह और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेकर जेल यात्राएं की थीं। तत्कालीन बंबई राज्य की विधानसभा के सदस्य और श्रम व आवास मंत्री के रूप में प्रदर्शित उनकी प्रतिभा से प्रेरित कांग्रेस नेतृत्व ने उनकी सेवाओं से सारे देश को लाभान्वित करने के लिए उन्हें दिल्ली बुलाकर योजना आयोग (जिसे अब नीति आयोग में बदल दिया गया है) के उपाध्यक्ष का पदभार सौंपा। उन्होंने देश के नवनिर्माण के लिए प्रस्तावित पंचवर्षीय योजनाओं के स्वरूप निर्धारण में निर्णायक योगदान दिया था।
तदुपरांत समय के साथ वे जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी की सरकारों में गृह समेत कई महत्वपूर्ण विभागों के मंत्री बने। पं. नेहरू व शास्त्री के निधन पर कार्यवाहक प्रधानमंत्री के दायित्वों का निर्वहन किया। पहली बार वे 27 मई, 1964 से 9 जून, 1964 तक कार्यकारी प्रधानमंत्री रहे। दूसरी बार 11 जनवरी, 1966 से 24 जनवरी, 1966 तक। प्रसंगवश, नेहरू के निधन के वक्त उनके ‘नम्बर दो’ होने के कारण प्रधानमंत्री पद की उनकी दावेदारी लालबहादुर शास्त्री और मोरारजी देसाई से ज्यादा सशक्त थी। इसके बावजूद वे सत्ता-संघर्ष से सर्वथा अलग रहे। वर्ष 1965 में शास्त्री के निधन के बाद भी उन्होंने प्रधानमंत्री पद का लोभ नहीं किया। हालांकि उनके कई मित्र चाहते थे कि इस बार वे उससे चूकें नहीं। अलबत्ता, पहले से लेकर पांचवें आम चुनाव तक वे अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों से लोकसभा के सदस्य निर्वाचित होते रहे।
वे गोरक्षा के प्रबल समर्थक थे। 7 नवम्बर, 1966 को गोरक्षा महाअभियान समिति के बैनर पर गोहत्या के विरोध में साधुओं के संसद घेराव के वक्त पुलिस फायरिंग से आठ जानें चली गईं। संभवतः इसी के चलते तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने स्थिति से ठीक से न निपटने को लेकर उन्हें गृहमंत्री पद से बर्खास्त करा दिया था। वर्ष 1971 के लोकसभा चुनाव में श्रीमती गांधी फिर से भारी बहुमत से चुनकर आईं तो नन्दा ने यह कहते हुए कांग्रेस छोड़ दी थी कि नये दौर की राजनीति उन्हें पसंद नहीं है। तदुपरांत वे अपने द्वारा ही स्थापित भारत सेवक समाज के प्रति समर्पित हो गये थे।