हिन्दी की दुनिया

By Team Live Bihar 69 Views
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प्रेमकुमार मणि (वरिष्ठ साहित्यकार )
हिन्दी की साहित्यिक-सांस्कृतिक दुनिया कैसी है, इस पर आपने कभी विचार किया होगा. यदि नहीं किया तो करना चाहिए. जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में हिन्दी लेखकों की प्रकृति-प्रवृति पर कोई दो पैराग्राफ लिखा है. यह पढ़ने लायक है. मैंने उसे कई दफा याद किया है और उनकी राय से सहमत हूँ. नेहरू के अनुसार हिन्दी के लेखक बहुत ही छोटे-से दायरे केलिए लिखते हैं. उनकी दुनिया बहुत छोटी है. प्रायः वे तुनक-मिजाज और जल्दी ही एक दूसरे के खिलाफ अपशब्दों के प्रयोग पर उतर आते हैं. आदि।
लेकिन इन सबके बावजूद हिन्दी का क्षेत्र इतना विस्तृत है कि अपनी इस लोकशक्ति से इसने ऐसी दुनिया गढ़ी है, कि लोग इसकी तरफ खिंचे चले आए हैं. जुबान के तौर पर हिन्दी लगातार बढ़ती जा रही है. देश के विभिन्न हिस्सों में इसके विस्तार को देख मैं हैरान होता हूँ. आज से कोई पचीस साल पहले की बात है. मैं चेन्नई के समंदर किनारे पाँव-पैदल टहल रहा था. बड़ा-सा बोर्ड दिखा. रोमन लिपि में लिखा था ‘ ब्रिटानिया खाओ शारजाह चले जाओ. ‘ अरब के शारजाह में तब कुछ खेल आयोजित था. देश के विभिन्न हिस्सों में हिन्दी के ऐसे विस्तार पर मुग्ध होता रहा हूँ. कहीं यह बंगला तो कहीं पंजाबी तो कहीं भोजपुरी टोन में उभर और निखर रही है. किसान-मजदूरों से लेकर बनिया-व्यापारियों और संसद से लेकर सड़क तक इसका फैलाव हो रहा है. हाँ,अकादमिक विमर्श और साहित्य में इसकी उतनी असरदार उपस्थिति नहीं है. अंग्रेजी की तो बात ही और है, उर्दू और बंगला के मुकाबले भी इस में हीनता का भाव है.
ऐसा क्यों हुआ? इस पर कई बार सोचा है. संभव है आपने भी सोचा होगा.
एक समय था जब उर्दू के मशहूर किस्सागो प्रेमचंद उर्दू जुबान से हिन्दी में आए थे. कई अन्य लेखक भी उर्दू से हिन्दी की तरफ आए थे. वह राष्ट्रीय आंदोलन का दौर था. हिन्दी अभी बन रही थी. कई स्तरों पर रचनाकार सक्रिय थे. ब्रजबोली को छोड़ हिन्दी कविता ने खड़ी बोली को अंगीकार किया था. कथा साहित्य अपने आरम्भिक दौर में था. लेकिन उस दौर को देखने पर गर्व की अनुभूति होती है. एक साथ बहुत कुछ भव्य और सुन्दर लिखा जा रहा था. विचार और दृष्टिकोण के नए गवाक्ष उद्घाटित हो रहे थे. प्रेमचंद थे, तो जैनेन्द्र, यशपाल, अज्ञेय भी थे. गुप्त जी की सौम्य उपस्थिति थी तो प्रसाद, निराला और महादेवी का आलोक भी था. परस्पर भिन्न विचार और सौंदर्य-बोध के रचनाकार थे. इंद्रधनुष की तरह सतरंगी छवि उभर रही थी. वह नवोन्मेष का दौर था. राजनीतिक स्तर पर हिन्दी को भारतीय गणराज्य की राजभाषा के रूप में स्वीकार लिए जाने से पूरी दुनिया का ध्यान हिन्दी की ओर आकृष्ट हुआ. यह हिन्दी का उत्कर्ष काल था.
लेकिन उभर रही नई सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों के अनुकूल हिन्दी अपने को ढालने में विफल रही. इसका साहित्य कुछ अधिक विफल रहा. आज़ादी के बाद जब राष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक नवोन्मेष होना था, हिन्दी साहित्य अपने उत्तरदायित्व से विलग रहा. यह हमारे सामाजिक नवजागरण का दूसरा दौर था. लेखकों को एक प्रबुद्ध समाज के निर्माण में लगना चाहिए था. उन्हें सामाजिक मिथ्याचारों, जात-पात, वर्णवाद, वर्चस्ववाद आदि से संघर्ष करना था. इन से अलग हमारे लेखक इस बीच पूंजीवाद से संघर्ष कर रहे थे, जो हमारे यहाँ था ही नहीं. सर्वेन्तीस की तरह हमारे लेखकों ने किसी आटा-चक्की वाले ,तो किसी रेस्तरां मालिक को पूंजपति मान कर उस पर हमला बोला और हास्यास्पद बन कर रह गए. विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों ने हिन्दी की एक अलग अबूझ दुनिया निर्मित की, जो अंततः हिंदुत्व की राजनीति के अड्डे बन गए.
और आज हिन्दी साहित्य सिमट कर इतना भर है कि कभी- कभार पुस्तक-मेलों और साहित्य-उत्सवों में अपनी झलक दिखला जाता है. लेखक समाज में तो क्या अपने घर में भी सम्मानित नहीं रह गया है. सामाजिक मूल्य के तौर पर लेखक समाज कुल वर्नाकुलर द्विज समाज का सांस्कृतिक प्रकोष्ठ भर है. तमाम गतिविधियों में गो-द्विज हितकारी का भाव भरा होता है. याद कर सकता हूँ आलोचना पुनर्नवा के प्रवेशांक का लोकार्पण समारोह. सुप्रसिद्ध आलोचक शिवदान सिंह चैहान के हाथों लोकार्पण हुआ था. नामवर सिंह सहित हिन्दी साहित्य के दिग्गज दिल्लीवासी रचनाकार उपस्थित थे. चौहान साहब ने पीड़ा भरे स्वर में कहा था, आज भारत में फासीवाद है तो ब्राह्मणवाद के रूप में है और खेद है हिन्दी लेखक इससे जूझ नहीं रहे हैं.
आज शिवदान सिंह चौहान होते तो पता नहीं क्या और कैसी टिप्पणी करते. वह दलितों और अन्य पिछड़े वर्ग के वर्चस्ववादी उभारों को भी देखते जो अस्मितावाद का बैनर लगा कर हो रहा है. आज कोई भी देख सकता है कि हिन्दी का पूरा ठाट कैसा है. रचनाकारों, आलोचकों, प्रकाशकों और उत्सव आयोजकों का एक चरगट्टा बना हुआ है. इनके बीच एक कुटिल स्तर की राजनीति होती है. अहो-रूपम अहो-ध्वनि का एक ‘ शिष्टाचार ‘ होता है. इन सब के बीच ही हिन्दी की दुनिया होती है.

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