कुमार शिव
जापान के हरेक नगर में देवी सरस्वती का मन्दिर है। सरस्वती को वहां ले जाने वाले ‘धूर्त ब्राह्मण’ नहीं, बल्कि बौद्ध लोग थे। बौद्ध धर्म जब भारत से बाहर फैला —- जैसे चीन, जापान, स्याम आदि देशों में —- तो भारतवर्ष से ही बौद्ध आचार्यों, भिक्षुओं और संदेशवाहकों द्वारा वैदिक देवी देवताओं को भी बाहर ले जाया गया। गौतम बुद्ध की चिन्ता कोई ब्राह्मणवाद के विरुद्ध विद्रोह, राजनीतिक कार्यक्रम आदि की थी ही नहीं, जो आज के मार्क्सवादी, नेहरूवादी और अम्बेडकरवादी उनमें देखते और भरते रहते हैं। भारत में बौद्ध धर्म को अलग बताने में कई तत्वों का योग है। इसमें अज्ञान की और हिन्दू धर्म के प्रति द्वेष की भी भूमिका है।
अधिकांश विद्वानों ने बौद्ध धर्म को आरंभ से ही हिन्दू-विरोधी आंदोलन के रूप में पेश करने की कोशिश की। जब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने 1956 ईस्वी में बौद्ध धर्म अपनाया तब उन्होंने हिन्दू धर्म त्यागने की भी घोषणा की। यह एकदम अनोखी बात थी क्योंकि यहां ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। हिन्दू परम्परा में कई मतों को एक साथ मानने और चाहे तो बाद में किसी मत से उदासीन हो जाने का खुला चलन रहा है। इसलिए किसी के द्वारा हिन्दू धर्म त्यागने जैसी घोषणा पहली बार हुई, जो मूलतः चर्च-ईसाइयत की अवधारणा है। उसी में केवल एक मत मानने, तथा दूसरे को अमान्य करने, मिटाने का सिद्धान्त व व्यवहार रहा है। अतः बौद्ध मत स्वीकार करने के लिए हिन्दू धर्म को त्यागने जैसी बात इतिहास में कहीं नहीं मिलती। यदि डॉक्टर अंबेडकर ने ऐसा किया तो इसमें बौद्ध दर्शन और इतिहास के प्रति उनकी भ्रांत समझ इसका सबसे बड़ा कारण रही है।
बौद्ध धर्म को हास्यास्पद स्तर तक राजनीतिक विचारधारा (पोलिटिकल आइडियोलॉजी, पोलिटिकल टूल्स) में बदल डालने की उनकी कोशिश की जड़ में वह भ्रांति थी कि गौतम बुद्ध का दर्शन हिन्दू धर्म का विरोधी था। और इसी भ्रान्ति ने समकालीन भारत में नेहरूवादी, वामपंथी लेखकों, नेताओं को अपनी हिन्दू-विरोधी परियोजना के लिए अतिरिक्त बल और सामग्री दी। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने बौद्ध धर्म को एक विशिष्ट महत्ता दी। सम्राट अशोक को बौद्ध धर्म से जुड़ा इतिहास-पुरुष बताया, उनके सिंह-त्रयी वाले स्तंभ को भारत का राजकीय चिह्न बनाया तथा उसमें दिए चक्र को भारत के झंडे में स्थान दिया। इसमें भारतीय पहचान को हिन्दू धर्म से अलग करने का सचेत प्रयत्न भी था।
अपने लेखन में नेहरू जी बार-बार यहां के दो महानतम शासकों में केवल अशोक और अकबर का उल्लेख करते हैं। नेहरू जी के अंतर्मन का वास्तविक खाका कोनराड एल्स्ट ने खींचा है। उन्होंने लिखा है कि, नेहरू की इतिहास जानकारी केवल दो आध्यात्मिक व्यक्तियों — बुद्ध और गांधी तथा तीन राजनीतिक शासकों — अशोक, अकबर और स्वयं अपने तक सीमित थी। वस्तुत: भारत में चक्रवर्ती अर्थात चक्र चलाने वाले सार्वभौमिक शासक की धारणा अशोक से बहुत पुरानी है। साथ ही, चौबीस तीलियों वाले चक्र का सम्बन्ध सांख्य दर्शन से भी जोड़ा जा सकता है, जिसमें केन्द्र में पुरुष/कर्ता है और परिधि में प्रकृति के चौबीस तत्व हैं। पर नेहरू स्वयं को गर्वपूर्वक भारत का अन्तिम वायसराय कहते थे, और उनके अहंकार में हिन्दू धर्म के प्रति अज्ञान भी शामिल था, जैसे अभी भारत में असंख्य उच्चवर्गीय लोग हिन्दी या कोई भारतीय भाषा न जानने का अहंकार रखते हैं।
इसमें यह समझ भी थी कि हिन्दू धर्म में कोई जानने समझने लायक बात ही नहीं है ! जैसे अनेक अंग्रेजी प्रवीण भारतीयों को यहां की भाषा, साहित्य न जानना कोई बड़ी बात नहीं लगती। इसीलिए नेहरू हिन्दू संस्कृति और ज्ञान के बारे में कुछ विशेष न जानते हुए इतने ही से सन्तुष्ट थे कि सम्राट अशोक और धर्मचक्र की महत्ता दिखा देने के बाद हिन्दू धर्म अपने आप हीन हो गया जिसे वे दकियानूसी मानकर चलते थे। यह नेहरू के लिए स्वयंसिद्ध था कि जब अशोक ने बौद्ध मत स्वीकार किया तो वे हिन्दू धर्म से अलग हो गए। इसीलिए नेहरूवादी समझ से भारतीय परम्परा में जो भी बहुमूल्य है वह बौद्ध धर्म (और इस्लाम) की देन है, जिसके प्रति मूढ़ हिन्दुओं को कृतज्ञ होना चाहिए।
इसी क्रम में, अज्ञानी नेहरू भारतीय सहिष्णुता को भी बौद्ध धर्म की देन समझते थे, न कि सनातन हिन्दू परम्परा की। जबकि सच्चाई यह है कि उस पारम्परिक हिन्दू सहिष्णुता, बहुलतावादी दृष्टिकोण का लाभ स्वयं गौतम बुद्ध को मिला था। अन्यथा, क्या किसी मुस्लिम देश में भी कोई गौतम बुद्ध अपने सिद्धान्त प्रतिपादित करते हुए शान्ति और आराम से रह सकते थे ? लेकिन हिन्दू समाज में यह बिल्कुल सहज था और आज भी है। स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानंद और रमण महर्षि जैसे नए नए चिन्तक यहां सदैव स्वीकृत रहे हैं जो किसी न किसी विशेष विचार को अपना आधार बनाते हैं। उन्हें अपने शिष्य भी मिलते हैं। गौतम बुद्ध ठीक इन जैसे ही थे। ऐसे चिंतकों, महापुरुषों या उनके अनुयायियों ने कभी अपने को हिन्दू धर्म से अलग नहीं माना।
अतः नेहरू और डॉक्टर अम्बेडकर तथा उनके अनुयायियों ने यह भ्रांत कल्पना कर ली कि ईसाइयत और इस्लाम की तरह गौतम बुद्ध ने कोई नया धर्म चलाया था, तथा वे अपने पूर्ववर्ती धर्म से अलग हो गए थे। यह बात आज यहां यदि स्कूली पुस्तकों के माध्यम से घर-घर फैलाई जा चुकी है, तो इसका अर्थ यह नहीं कि यह सत्य भी है। इसका सीधा प्रमाण यह है कि बौद्ध धर्म को हिन्दू धर्म से अलग बताने वाले यह कभी नहीं बता पाते कि गौतम बुद्ध अपने जीवन में कब, किस घटना के बाद, हिन्दू धर्म से अलग हुए थे ? ईसाइयत, इस्लाम में यह बात बिल्कुल स्पष्ट व केन्द्रीय है। इसलिए भी इस प्रश्न को साधारण प्रश्न समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। यह अति महत्वपूर्ण प्रश्न है। यदि बौद्ध धर्म हिन्दू धर्म के प्रति विद्रोह था, जो तमाम नेहरूवादी, मार्क्सवादी और कुछ अंबेडकरवादी दुहराते हैं, तो प्रश्न है कि यह विद्रोह कब से चिह्नित होता है ?
इसका उत्तर खोजने से उलटे पता यह चलता है कि गौतम बुद्ध आजीवन, कभी एक क्षण के लिए भी हिन्दू धर्म से अलग नहीं हुए। बल्कि उनके मन में कभी ऐसा विचार तक नहीं आया! वे हिन्दू पैदा हुए और हिन्दू ही मरे। उनके दर्शन, चिन्तन और कार्य में भी ऐसा एक भी तत्व नहीं है, जो पहले के सनातन चिन्तन और कार्यों का विरोधी या मूलतः भिन्न भी हो। अतः हिन्दू धर्म से विद्रोह की सारी बातें नेहरूवादी, मार्क्सवादी अज्ञान और कोरी कल्पना है।
इस प्रश्न को उठाने पर हिन्दू-विरोधी प्रचारकों की पहली प्रतिक्रिया होती है कि —- दरअसल, तब हिन्दू धर्म जैसी कोई चीज थी ही नहीं। यानी जो चीज थी ही नहीं, उसी से गौतम बुद्ध अलग हो गए ! यह विचित्र तर्कणा है। मगर सेक्यूलरवादी-वामपंथी दलीलों में यह प्रायः सुनाई पड़ने वाली बात है कि हिन्दू धर्म बड़े हाल की निर्मित है। रोमिला जी तो इसे बमुश्किल दो सौ साल पुराना मानती हैं !
असल बात है इन नेहरूवादियों, मार्क्सवादियों, अम्बेडकरवादियों द्वारा स्थापित यह दुष्प्रचार और विकृतीकरण। ये इसी दुष्प्रचार और ऐतिहासिक लेखन के माध्यम से फैलाए गए अपदूषण के सहारे आज नेरेटिव्स स्थापित करने में सफल रहे हैं कि बौद्ध, सिख, जैन, यहां तक कि दलित भी हिन्दू नहीं हैं। लेकिन जब चर्च मिशनरी और इस्लामी अतिक्रमणों पर हिन्दू चिन्ता रखी जाती है, तब यही उपहास करते हुए बोल पड़ते हैं कि : 80 प्रतिशत हिन्दुओं को 2 प्रतिशत ईसाइयों और 18 प्रतिशत मुसलमानों से क्या खतरा हो सकता है ?
जबतक हिन्दू अपने भाव जगत तथा वैचारिक ईको सिस्टम (परिवेशगत बौद्धिकता) में गहरे जड़ जमाए अपने इन सबसे भयानक शत्रुओं से जब तक निपट नहीं लेते, राष्ट्र और धर्म असुरक्षित ही रहेगा।