मोदी, जयशंकर और डोभाल की तिकड़ी का कमाल

8 Min Read

नीरज कुमार दुबे
(वरिष्ठ स्तंभकार)
भारत का मौजूदा कूटनीतिक कैलेंडर इस समय एक दुर्लभ समन्वय का उदाहरण है, जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, विदेश मंत्री एस. जयशंकर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल तीनों समानांतर मोर्चों पर काम कर रहे हैं। यह ट्रिपल इंजन रणनीति भारत को न केवल अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सक्रिय बनाए रखती है, बल्कि विभिन्न वैश्विक शक्ति केंद्रों के साथ तालमेल बैठाने में भी मदद करती है। मोदी का आगामी तियानजिन (चीन) दौरा, शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ ) शिखर सम्मेलन में भागीदारी और सीमा शांति पर जोर, जयशंकर का मॉस्को दौरा और रूस के साथ ऊर्जा व तकनीकी सहयोग पर वार्ता तथा डोभाल की चीन व रूस में उच्च-स्तरीय सुरक्षा बातचीत, ये सभी एक ही लक्ष्य की ओर इशारा करते हैं- रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखते हुए बहु-संरेखण की नीति को मजबूत करना। अमेरिका के साथ टैरिफ विवाद और वैश्विक शक्ति-संतुलन में हो रहे बदलाव के बीच, यह सक्रियता भारत को न केवल दबाव झेलने की क्षमता देती है, बल्कि उसे एक निर्णायक वैश्विक खिलाड़ी के रूप में स्थापित करने की दिशा में भी ले जाती है। भारत का यह व्यस्त कूटनीतिक कैलेंडर इस बात का संकेत है कि आने वाले महीनों में क्षेत्रीय और वैश्विक राजनीति में उसकी भूमिका और भी अहम होने वाली है।

भारत की कूटनीति इस समय तीन मोर्चों पर एक साथ सक्रिय है— अमेरिका से टैरिफ विवाद, रूस के साथ सामरिक–आर्थिक साझेदारी और चीन के साथ सीमा मुद्दों पर संवाद। इसी परिप्रेक्ष्य में विदेश मंत्री एस. जयशंकर अगले सप्ताह रूस की राजधानी मॉस्को में अपने समकक्ष सर्गेई लावरोव से 21 अगस्त को वार्ता करेंगे, जबकि इससे पहले 18 अगस्त को चीन के विदेश मंत्री वांग यी नई दिल्ली में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए ) अजीत डोभाल के साथ सीमा मुद्दे पर वार्ता करेंगे। यह घटनाक्रम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस माह के अंत में तियानजिन (चीन) यात्रा की पृष्ठभूमि तैयार कर रहा है, जहां वह एससीओ शिखर सम्मेलन में भाग लेंगे।

पिछले सप्ताह अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत के उत्पादों पर अतिरिक्त 25% टैरिफ लगाकर कुल सीमा शुल्क 50% कर दिया, जिसका सीधा कारण भारत का रूसी तेल का आयात बताया गया। हालांकि भारत ने स्पष्ट किया है कि ऊर्जा खरीद राष्ट्रीय हित और बाज़ार परिस्थितियों पर आधारित है, न कि किसी दबाव पर। यह कदम भारत–अमेरिका संबंधों में तनाव पैदा कर सकता है, खासकर ऐसे समय में जब भारत संयुक्त राष्ट्र महासभा के लिए प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा पर विचार कर रहा है।

इसी बीच, रूस के साथ भारत उच्च-स्तरीय संवाद तेज कर रहा है। एनएसए डोभाल हाल ही में मॉस्को जाकर राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से मिले थे और अब जयशंकर वहां द्विपक्षीय मुद्दों, ऊर्जा सहयोग और पुतिन की आगामी भारत यात्रा की तैयारियों पर चर्चा करेंगे। उधर, चीनी विदेश मंत्री वांग यी की नई दिल्ली यात्रा स्पेशल रिप्रेजेंटेटिव संवाद के तहत हो रही है, जिसमें वांग और डोभाल सीमा मुद्दे पर वार्ता करेंगे। यह वार्ता ऐसे समय हो रही है जब गलवान घाटी की 2020 की हिंसक झड़प के बाद भारत–चीन संबंधों में आई कड़वाहट को कम करने के लिए दोनों देश कई संवाद तंत्रों को पुनर्जीवित कर रहे हैं। हम आपको याद दिला दें कि पिछले वर्ष कज़ान (रूस) में मोदी और शी जिनपिंग की मुलाकात में कैलाश मानसरोवर यात्रा बहाल करने, चीनी पर्यटकों को वीज़ा जारी करने और जल्द ही सीधी उड़ानें शुरू करने जैसे कदमों पर सहमति बनी थी।

देखा जाये तो तियानजिन में होने वाला एससीओ शिखर सम्मेलन महज़ एक बहुपक्षीय कार्यक्रम नहीं है, बल्कि भारत–चीन संबंधों में आई ठंडक को कम करने और बदलते वैश्विक समीकरणों के बीच भारत की रणनीतिक स्वायत्तता को मजबूती देने का अवसर भी है। हाल के वर्षों में गलवान संघर्ष, डोकलाम गतिरोध और व्यापारिक तनावों ने भारत–चीन संबंधों को कई बार संकट में डाला। हालांकि पिछले वर्ष ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच यह सहमति बनी थी कि सीमा विवाद शांति बनाए रखते हुए सुलझाए जाएंगे। यह सहमति अभी तक अक्षुण्ण है और यही मोदी की यात्रा का सबसे बड़ा आधार है।

हम आपको बता दें कि एससीओ, जिसमें चीन और रूस की प्रमुख भूमिका है, वह क्षेत्रीय सुरक्षा, आतंकवाद-रोधी सहयोग और कनेक्टिविटी के लिए एक महत्वपूर्ण मंच है। भारत इस मंच पर बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव जैसी विवादित परियोजनाओं से दूरी बनाए हुए है, लेकिन आतंकवाद-रोधी पहल और मध्य एशिया से संपर्क के लिए इसे आवश्यक मानता है। रूस ने भी अप्रत्यक्ष रूप से भारत और चीन को इस मंच पर संवाद के लिए प्रेरित किया है।
माना जा रहा है कि मोदी की चीन यात्रा के दौरान सीमा शांति की पुनः पुष्टि के साथ-साथ व्यापार और निवेश में सहयोग बढ़ेगा। भारत $100 अरब के व्यापार घाटे को कम करने के लिए चीन से आयात बढ़ाने की अपेक्षा करेगा, वहीं चीन अपने निवेश के लिए पारदर्शी माहौल की मांग करेगा। माना जा रहा है कि चीन के साथ द्विपक्षीय बैठक में विश्वास बहाली और व्यापार, निवेश व उभरती प्रौद्योगिकियों में सहयोग की संभावना है। रणनीतिक स्तर पर यह यात्रा इंडो-पैसिफिक में शक्ति-संतुलन बनाए रखने, मध्य एशिया में भारत की उपस्थिति मजबूत करने और अमेरिका की संभावित नीतिगत बदलावों से बचाव का साधन भी है।

देखा जाये तो भारत–चीन संबंधों ने पिछले दशक में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं— कभी अनौपचारिक शिखर वार्ताओं से उत्साह, तो कभी सीमा पर टकराव से निराशा। इस यात्रा का असली संदेश प्रधानमंत्री मोदी के हालिया वक्तव्य में छिपा है, जिसे बीजिंग ने भी स्वीकार किया— प्रतिस्पर्धा को संघर्ष में नहीं बदलना चाहिए। यही दृष्टिकोण भारत की कूटनीति को बदलते वैश्विक समीकरणों में मजबूती देगा और उसे एक स्वतंत्र, संतुलित और दीर्घकालिक शक्ति के रूप में स्थापित करेगा।

भारत का मौजूदा कूटनीतिक कैलेंडर यह दिखाता है कि वह एक साथ तीन महाशक्तियों के साथ अपने समीकरण साधने की कोशिश कर रहा है— अमेरिका के साथ टैरिफ विवाद में टकराव से बचना, रूस के साथ ऊर्जा व रक्षा साझेदारी मजबूत करना और चीन के साथ प्रतिस्पर्धा को संघर्ष में न बदलने का प्रयास करना। मोदी की तियानजिन यात्रा इस संतुलन साधने की कला का हिस्सा है। यह यात्रा यदि ठोस समझौतों या भरोसा बहाली के कदमों में बदलती है, तो भारत–चीन संबंधों में नया अध्याय खुल सकता है।

ये भी पढ़ें…राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और स्वतंत्रता आंदोलन

Share This Article