क्या फिर कुछ बड़ा करने वाली है मोदी सरकार?

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अभिनय आकाश
कहा जा रहा है कि आने वाले समय में सरकार कोई बड़ा एक्शन लेने वाली है। दो दिन पहले प्रधानमंत्री मोदी ने रात के आठ बजे राष्ट्रपति मुर्मू से मुलाकात की। दोनों के बीच किसी विषय पर बातचीत हुई है। उसके बाद उसी दिन जेपी नड्डा के घर पर कुछ मंत्री मिले । उसके बाद प्रधानमंत्री के दफ्तर से पता चलता है कि उनका 19 अप्रैल का श्रीनगर का दौरा रद्द किया जा रहा है। यह खबर आते हैं कि गृह मंत्रालय के एक हफ्ते के जो भी कार्यक्रम हैं उसे स्थगित किया जा रहा है। उसके बाद खबर आती है कि बुधवार को होने वाली कैबिनेट बैठक रद्द कर दी गई।
अब लोग कयास लगा रहे हैं कि बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगाने जा रहे हैं। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है। बंगाल में छह महीने बाद ही चुनाव होने हैं। कयास लगाए जा रहे हैं कि सरकार ज्यूडिशरी को लेकर कोई कदम उठाने जा रही है। कुछ रिफॉर्म के बारे में काम होने जा रहा है, जिसकी सुगबुगाहट बीते एक-दो दिन से देखने को मिल रही है। अलग अलग तरीके से लोग कोर्ट के बारे में बयान दर्ज करा रहे हैं। सबसे ज्यादा चर्चा उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के बयान की हैं, जिसमें उन्होंने कहा था कि किस तरह से कोर्ट विधायिका और कार्यपालिका के काम में दखल दे रही है और आर्टिकल 142 को हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रही है।

क्या राष्ट्रपति के खिलाफ रिट मैंडामस जारी कर सकता है कोर्ट?
राज्यपाल और तमिलनाडु की एमके स्टालिन सरकार में कई सालों से विवाद चल रहा है। विधानसभा से पास हुए विधेयकों को राज्यपाल ने मंजूरी नहीं दी। काफी समय बीतने के बाद उसे राष्ट्रपति के पास भेजा। वहां से भी मंजूरी नहीं आई। तमिलनाडु की सरकार सुप्रीम कोर्ट गई। सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच ने उसकी सुनवाई की और उसका फैसला आया। वो फैसला आश्चर्यचकित करने वाला है। भारत का संविधान जब से बना है। उसके बाद से ये पहली बार हुआ है कि किसी कंस्टीट्यूशनल कोर्ट ने राष्ट्रपति के खिलाफ रिट मैंडामस जारी किया है। रिट मैंडामस एक प्रकार का न्यायिक आदेश है जिसे उच्च न्यायालय निचली अदालत, सरकारी अधिकारी, या सार्वजनिक प्राधिकरण को जारी करता है। इसका उद्देश्य उन्हें कोई विशिष्ट कानूनी कर्तव्य करने के लिए बाध्य करना होता है, जिसे उन्होंने या तो करने से इनकार कर दिया है या करने में विफल रहे हैं। यानी ये सुप्रीम कोर्ट का निर्देश है। हमारा संविधान रा।ष्ट्रपति और राज्यपाल दोनों को लीगल इम्युनिटी देता है। यानी उनके खिलाफ कोई कानूनी कार्यवाई नहीं हो सकती।

सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने नहीं दिया है ये फैसला
राज्यपाल या राष्ट्रपति के खिलाफ रिट मैंडामस जारी नहीं हो सकती है। ये संवैधानिक प्रश्न है। किसी भी संवैधानिक स्थिति पर फैसला सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ द्वारा लिया जा सकता है। जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 145(3) में अनिवार्य है। अनुच्छेद 145(3) में कहा गया है कि संविधान की व्याख्या के संबंध में विधि के किसी सारवान प्रश्न से संबंधित किसी मामले का निर्णय करने के लिए या अनुच्छेद 143 के अंतर्गत किसी संदर्भ की सुनवाई के लिए न्यायाधीशों की न्यूनतम संख्या पाँच होगी। इसमें ऐसे मामलों की सुनवाई करने के लिए संविधान पीठ का विकल्प नहीं दिया गया है। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने जो निर्णय दिया है वह संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 की व्याख्या करके दिया है। सुप्रीम कोर्ट की यह बेंच ना संवैधानिक थी और ना ही इसमें न्यूनतम पाँच जज थे।

अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने 17 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले पर चिंता जताई जिसमें कहा गया था कि राज्यपाल अगर कोई बिल राष्ट्रपति के पास भेज रहे हैं तो राष्ट्रपति को उस पर तीन महीने में फैसला लेना होगा। धनखड़ बोले की भारत में ऐसी व्यवस्था नहीं होनी चाहिए जहां न्यायपालिका राष्ट्रपति को निर्देश दे। उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति संविधान के संरक्षण, सुरक्षा और बचाव की शपथ लेते हैं। मंत्री, उपराष्ट्रपति, सांसद और न्यायाधीश सहित अन्य लोग संविधान का पालन करने की शपथ लेते हैं। संविधान के तहत आपके पास एकमात्र अधिकार अनुच्छेद (3) 145 के तहत संवैधानिक आधिकार की व्याख्या करना है। इसमें 5 जजों का पुल होना चाहिए। समय आ गया है जब हमारी तीन संस्थाएं -विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका -फूलें-फलें… किसी एक द्वारा दूसरे के क्षेत्र में हस्तक्षेप चुनौती पैदा करता है, जो अच्छी बात नहीं है।

अनुच्छेद 142 क्या कहता है?
यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 142 सर्वोच्च न्यायालय को उसके समक्ष लंबित किसी भी मामले में पूर्ण न्याय सुनिश्चित करने की शक्ति प्रदान करता है। यह प्रावधान एक संवैधानिक उपकरण के रूप में कार्य करता है जो सर्वोच्च न्यायालय को मौजूदा कानूनों में अंतराल को पाटने, वैधानिक प्रावधानों से परे जाने और ऐसे उपाय प्रदान करने की अनुमति देता है जो लिखित विधान के अनुरूप नहीं हो सकते हैं, जब तक कि वे संविधान की सीमाओं के भीतर न्याय प्रदान करते हैं। मजेदार बात यह है कि इस अनुच्छेद के प्रारूप संस्करण – तब अनुच्छेद 118 – को संविधान सभा ने बिना किसी बहस के अपना लिया था, जिससे इसकी व्याख्या और सीमाएँ समय के साथ मुख्य रूप से सर्वोच्च न्यायालय के अपने विवेक पर छोड़ दी गईं। पिछले कुछ वर्षों में, शीर्ष न्यायालय ने आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने, विवाह के अपरिवर्तनीय टूटने के आधार पर तलाक देने और यहाँ तक कि भोपाल गैस त्रासदी जैसे जटिल मामलों में समझौते को मंजूरी देने जैसे ऐतिहासिक मामलों में अनुच्छेद 142 का इस्तेमाल किया है। इस अनुच्छेद ने न्यायालय को सरकारी निकायों को निर्देश जारी करने, नीतिगत बदलावों का सुझाव देने और जन कल्याण के हित में दिशा-निर्देश लागू करने में सक्षम बनाया है। हालाँकि, ये शक्तियाँ दूरगामी हैं, लेकिन ये निरपेक्ष नहीं हैं। सर्वोच्च न्यायालय अनुच्छेद 142 का उपयोग मुख्य संवैधानिक प्रावधानों को दरकिनार करने, किसी मामले में पक्षकार न होने वाले व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने या प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करने के लिए नहीं कर सकता। संक्षेप में, अनुच्छेद 142 न्यायालय को विशिष्ट संदर्भों में अर्ध-विधायी और अर्ध-कार्यकारी भूमिकाएँ निभाने की अनुमति देता है, विशेष रूप से मौलिक अधिकारों की रक्षा करने, संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखने और जनहित संबंधी चिंताओं को संबोधित करने में, जहाँ कानून कम पड़ सकता है।

मृत्युदंड को भी पलटने का अधिकार
जिस सुप्रीम कोर्ट में किसी व्यक्ति को मृत्युदंड जैसी सजा दी जाती है, उस सजा को क्षमा करने का अधिकार राष्ट्रपति को है। संविधान का अनुच्छेद 72(2) इसका प्रावधान करता है। इस अनुच्छेद के अनुसार, राष्ट्रपति को किसी अपराध में दोषसिद्ध ठहराए गए किसी व्यक्ति के दंड को क्षमा, उसका प्रविलंबन, विराम या परिहार करने की अथवा दंडादेश के निलंबन कर सकता है> इतना ही नहीं, संविधान के अनुच्छेद 361 के तहत राष्ट्रपति तो दूर की बात है, राज्यपाल तक पर कार्रवाई नहीं हो सकती है। राष्ट्रपति इस देश के शासन का प्रमुख ही नहीं होता, जिसका एक हिस्सा न्यायपालिका भी है, बल्कि वो सेना का सर्वोच्च कमांडर भी होता है। सैन्य निर्णयों के मामलों को संविधान के अनुसार चुनौती नहीं दी जा सकती है।

दूरगामी होने वाला है असर
भारत की संविधान की दृष्टि से देखें तो ये बहुत ही बड़ा फैसला है। ये ऐसा फैसला है जिसका असर बहुत ही दूरगामी होने वाला है। इसका असर पूरी राजनीति को बदलने वाला भी हो सकता है। सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या भारत सरकार इसको इसी रूप में स्वीकार कर लेगी। भारत सरकार के एटॉर्नी जनरल उन्होंने कहा कि सरकार रिव्यू पर विचार कर रही है। इसके साथ ही उन्होंने एक छोटी सी टिप्पणी कि की राष्ट्रपति का पक्ष नहीं सुना गया और उनका पक्ष सुने बिना फैसला सुना दिया गया। देश की कोई अदालत राज्यपाल या राष्ट्रपति को समन नहीं कर सकती है, नोटिस नहीं भेज सकती है। उसके बावजूद ये फैसला हुआ। अदालत ने सीमा निर्धारित कर दी है कि राष्ट्रपति या राजपाल अपने पास के विधेयक पास होकर आता है तो एक निश्चित अवधि में उन्हें मंजूरी देना होगा। अगर ऐसा नहीं किया जाता है तो फिर उसे स्वत: मंजूर मान लिया जाएगा। लेकिन संविधान में समय निर्धारित करने वाली कोई सीमा नहीं है। संविधान में संशोधन का अधिकार सिर्फ संसद को दिया है। केवल संसद संविधान में संशोधन कर सकती है। लेकिन इस फैसले को एक तरह से माना जा रहा है कि जो संविधान में नहीं था वो दिया गया है।

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