भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली एक बार फिर गंभीर सवालों के घेरे में है। 50 रुपये और 100 रुपये जैसे मामूली रिश्वत के आरोपों में फंसे लोगों को चार दशक बाद दोषमुक्त किया जाना यह साबित करता है कि देश में न्याय मिलना नहीं, बल्कि न्याय तक पहुँच पाना सबसे बड़ी चुनौती बन चुका है। हाल के वर्षों में सुप्रीम कोर्ट के कई फैसले इस सच्चाई को उजागर करते हैं कि न्याय में देरी अब अपवाद नहीं, बल्कि व्यवस्था का स्थायी चरित्र बन चुकी है।
- Judicial System: 50 और 100 रुपये के आरोप, 40 साल की सजा
- निठारी कांड: बड़े अपराध, उतनी ही बड़ी न्यायिक देरी
- Judicial System: 46 प्रतिशत विचाराधीन कैदी: बिना दोष सिद्ध हुए सजा
- मुख्य न्यायाधीश सूर्यकांत की पहल: उम्मीद की किरण
- Judicial System: संस्थागत विफलता, सिर्फ दिशा-निर्देशों से नहीं सुलझेगी समस्या
- एक थाना, एक कोर्ट का मिथक तोड़ना होगा
- Judicial System: सिविल और क्रिमिनल क्षेत्राधिकार का पृथक्करण जरूरी
- समझौता योग्य अपराधों की सूची बढ़े
- Judicial System: प्ली-बार्गेनिंग को प्रभावी बनाने की जरूरत
- कानून है, लेकिन निगरानी तंत्र नहीं
- रिक्तियां और बोझ: न्याय की सबसे बड़ी बाधा
- Judicial System: समय पर न्याय ही असली न्याय
Judicial System: 50 और 100 रुपये के आरोप, 40 साल की सजा
एक दिवंगत रेलवे टीटीई को 50 रुपये की रिश्वत लेने के आरोप से मुक्त होने में पूरे 40 साल लग गए। इस अवधि में उन्होंने सरकारी नौकरी, सामाजिक प्रतिष्ठा और मानसिक शांति—तीनों खो दी। इसी तरह मध्य प्रदेश राज्य सड़क परिवहन में तैनात लिपिक जागेश्वर प्रसाद अवधिया को 100 रुपये रिश्वत लेने के मामले में गिरफ्तारी के 39 साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने दोषमुक्त किया।
इन दोनों मामलों में न्याय मिला, लेकिन तब जब संबंधित व्यक्ति अपना जीवन गंवा चुका था या जीवन का सर्वश्रेष्ठ समय खो चुका था।
यह भी पढ़े : https://livebihar.com/vip-darshan-ban-supreme-court-temple-comment/
निठारी कांड: बड़े अपराध, उतनी ही बड़ी न्यायिक देरी
साल 2005 और 2006 के बहुचर्चित निठारी सीरियल किलिंग मामलों में नवंबर 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने सुरेंद्र कोली और मोनिंदर सिंह पंढेर को दोषमुक्त कर दिया। ये मामले केवल अपराध की भयावहता के लिए नहीं, बल्कि वर्षों तक चली अदालती प्रक्रिया और अंततः पलटे फैसलों के कारण भी न्यायिक इतिहास के सबसे चौंकाने वाले अध्याय बन गए।
Judicial System: 46 प्रतिशत विचाराधीन कैदी: बिना दोष सिद्ध हुए सजा

वस्तुतः भारत में आपराधिक मामलों के निर्णय में देरी न्याय प्रणाली में अंतर्निहित समस्या बन चुकी है। इसका सबसे बड़ा खामियाजा विचाराधीन कैदियों को भुगतना पड़ता है।
गिरफ्तार किए गए लोगों में से 46 प्रतिशत से अधिक विचाराधीन कैदी वर्षों तक जेलों में सजायाफ्ता अपराधियों जैसी स्थिति में जीवन गुजारने को मजबूर हैं। यह स्थिति संविधान में प्रदत्त व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार पर सीधा आघात है।
मुख्य न्यायाधीश सूर्यकांत की पहल: उम्मीद की किरण
इसी पृष्ठभूमि में भारत के 53वें मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति सूर्यकांत द्वारा लंबित मामलों को प्राथमिकता के आधार पर निपटाने का एजेंडा तय करना एक स्वागतयोग्य कदम है।
29 अक्टूबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने आरोप निर्धारण में हो रही अत्यधिक देरी पर गंभीर चिंता व्यक्त करते हुए अटॉर्नी जनरल और सॉलिसिटर जनरल से समाधान हेतु सहयोग भी मांगा था।
Judicial System: संस्थागत विफलता, सिर्फ दिशा-निर्देशों से नहीं सुलझेगी समस्या
आपराधिक मामलों के निपटान में देरी कोई आकस्मिक समस्या नहीं है जिसे केवल दिशा-निर्देश बनाकर रोका जा सके। यह दरअसल बदलती परिस्थितियों से निपटने में संस्थागत विफलता का मामला है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट भारत में अपराध–2023 के अनुसार—
• 2023 के अंत तक निचली अदालतों में 2,54,10,354 आपराधिक मामले लंबित
• एक वर्ष में 49,20,771 नए मामले दर्ज
• निपटान केवल 40,95,080 मामलों का
• हर साल औसतन 16 प्रतिशत की वृद्धि लंबित मामलों में
ये आंकड़े बताते हैं कि मौजूदा ढांचा बढ़ते बोझ को संभालने में असफल हो रहा है।
एक थाना, एक कोर्ट का मिथक तोड़ना होगा
यह धारणा अब अप्रासंगिक हो चुकी है कि एक पुलिस थाना क्षेत्र के मामलों की सुनवाई के लिए एक ही ट्रायल कोर्ट पर्याप्त है।
लंबित मामलों की संख्या के आधार पर एक थाना क्षेत्र में एक से अधिक मजिस्ट्रेट नियुक्त किए जाने चाहिए।
अदालतों में संसाधनों की अनिवार्यता
प्रत्येक ट्रायल कोर्ट में ढांचागत सुविधाओं के साथ कम से कम तीन स्टेनोग्राफर और दो लोक अभियोजक होना अनिवार्य किया जाना चाहिए।
Judicial System: सिविल और क्रिमिनल क्षेत्राधिकार का पृथक्करण जरूरी
कई राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में एक ही न्यायाधीश सिविल और आपराधिक दोनों मामलों की सुनवाई कर रहे हैं। यदि क्षेत्राधिकार का स्पष्ट विभाजन कर दिया जाए और अलग-अलग प्रकृति के मामलों के लिए अलग न्यायाधीश नियुक्त हों, तो मुकदमों का शीघ्र निपटान संभव है।
समझौता योग्य अपराधों की सूची बढ़े
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 359 में संशोधन कर तीन वर्ष तक की सजा वाले अपराधों को समझौता योग्य घोषित किया जाना चाहिए।
वर्ष 2023 में केवल 3,03,802 छोटे मामलों में ही समझौता हुआ, जो कुल मामलों का लगभग 1 प्रतिशत है।
Judicial System: प्ली-बार्गेनिंग को प्रभावी बनाने की जरूरत
BNSS के तहत प्ली-बार्गेनिंग का प्रावधान है, लेकिन 2023 में केवल 42,318 मामलों का ही निपटान इस माध्यम से हो सका।
इस प्रक्रिया में संशोधन कर प्ली-बार्गेनिंग करने वाले के सिर से अपराधी का स्थायी टैग हटाया जाना चाहिए और मुकदमे के किसी भी चरण में यह विकल्प उपलब्ध होना चाहिए।
Do Follow us. : https://www.facebook.com/share/1CWTaAHLaw/?mibextid=wwXIfr
कानून है, लेकिन निगरानी तंत्र नहीं
BNSS में समयबद्ध आरोप तय करना, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, समरी ट्रायल और फैसलों के ऑनलाइन अपलोड जैसे कई प्रावधान हैं। समस्या इनके क्रियान्वयन और निगरानी की है।
रिक्तियां और बोझ: न्याय की सबसे बड़ी बाधा
• सुप्रीम कोर्ट में 18 हजार से अधिक आपराधिक मामले लंबित
• हाईकोर्टों में 63 हजार से अधिक मामले लंबित
न्यायाधीशों, अभियोजकों और कर्मचारियों की नियमित वार्षिक भर्तियां किए बिना स्थिति में सुधार असंभव है।
Judicial System: समय पर न्याय ही असली न्याय
जब 50 और 100 रुपये के मामलों में न्याय मिलने में 40 साल लग जाएं, तो यह केवल व्यक्तिगत त्रासदी नहीं, बल्कि लोकतंत्र के लिए चेतावनी है।
न्याय व्यवस्था में सुधार अब विकल्प नहीं, बल्कि अनिवार्यता बन चुका है।
Do Follow us. : https://www.youtube.com/results?search_query=livebihar

