जम्मू और कश्मीर में उमर अब्दुला की नेशनल कॉन्फ्रेंस कुल 51 सीटों पर लड़ी और 42 जीत लिए। ये एक बड़ी सफलता है। सहयोगियों के साथ राज्य की 90 सीटों में उन्हें साफ बहुमत मिला है। 2014 के चुनाव में उमर बड़े बेआबरू हो के कूचे से निकले थे। तब उनकी पार्टी को महज 15 सीटें मिली थी और वो अपनी खुद की सीट भी बुरी तरह हारे थे। पिछले 10 वर्षों में कश्मीर खासकर श्रीनगर के आसपास के इलाकों में काफी बदलाव दिखा है। केंद्र सरकार ने एलजी मनोज सिन्हा के मातहत कई परियोजनाओं के साथ कश्मीर के फेस और मानस दोनो को बदलने की खूब कोशिश की है। सैलानियों का तांता लगा हुआ है। बाज़ारों में रौनक दिख रही है। अर्थव्यवस्था और ‘इंफ्रास्ट्रक्चर’ में सुधार के साथ कश्मीरियों के चेहरे पर मुस्कान लौट आई है। बच्चे स्कूल जा रहे हैं और पत्थरबाज रोजगार के अवसर के साथ कम पड़ते जा रहे हैं।
लेकिन उमर अब्दुला की वापसी एक अलग मानस का संकेत दे रही है। उमर ने चुनाव लड़ते हुए ये ख्वाहिश जाहिर की थी कि वो धारा 370 को बहाल करने की कोशिश करेंगे। राजनीतिक बंदियों को रिहा किया जाएगा और पाकिस्तान के साथ रिश्तों में सुधार के लिए केंद्र सरकार पर दबाव डालेंगे। उनकी मंशा कुछ भी हो लेकिन जम्मू और कश्मीर नए अवतार में पूर्ण राज्य नही हैं। संघ शासित इलाके में मुख्यमंत्री के ऊपर तमाम बंदिशे हैं। ऐसे में उमर अब्दुल्ला की सोच और कार्यान्वयन में बड़ा फर्क दिखेगा। ऐसी हालत में केंद्र राज्य टकराव और विकास योजनाओं के पटरी से उतरने का खतरा बना हुआ है। सवाल ये है कि चुनाव के बाद कश्मीर आगे बढ़ता रहेगा या फिर से जद्दोजहद से गुजरेगा ?
मुख्यमंत्री बनने के बाद उमर अब्दुल्ला ने पहली प्रतिक्रिया में कहा, ‘राजनीतिक रूप से भाजपा से विरोध जारी रहेगा लेकिन केंद्र सरकार से तालमेल बनाना राज्य के हित मे होगा।’ राज्य के विकास के लिए यह सोच ठीक है लेकिन राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता कब तक तालमेल कायम रखेगी ये एक यक्ष प्रश्न है। वैसे अब्दुल्ला परिवार के तीसरी पीढ़ी के उमर के पास प्रबंधन की डिग्री है, जो उन्होंने विलायत से हासिल की है। 1998 में महज 28 साल की उम्र में सांसद बनने से पहले उन्होंने आईटीसी और ओबेरॉय ग्रुप जैसी बड़ी कंपनियों में नौकरी भी की थी। 29 साल की उम्र में उमर अब्दुल्ला केंद्र सरकार में सबसे युवा मंत्री बने थे। तब उनके पास उद्योग मंत्रालय था। सिर्फ 38 साल की उम्र में 2009 में वो मुख्यमंत्री बन गए। हालांकि मुख्यमंत्री रहते हुए उन्हें बहुत सी परेशानियों से गुजरना पड़ा। चाहे 2006 में हुए एक सेक्स स्कैंडल को लेकर 2009 में हुए खुलासे की बात हो या 2010 में आम नागरिकों की लगातार हो रही मौत के खिलाफ सड़क पर प्रदर्शन की बात हो या 2013 में हुई अफज़ल गुरू की फाँसी, उमर का ग्राफ गिरता गया और 2014 में उनकी कुर्सी जाती रही। अब सवाल है कि आगे के 10 वर्षों में जनमानस में ऐसे कौन से बदलाव हुए कि उमर अब्दुलाह डार्लिंग बन के उभर आए ?
कुछ बातें गौरतलब है, केंद्र ने श्रीनगर क्षेत्र में विकास की गति तेज की और उम्मीद ये रखी कि विकास की चकाचौंध में लोगों की सोच में बदलाव आएगा। लेकिन जटिल सामाजिक और धार्मिक समीकरण को समझने पर काम नही हुआ। धारा 370 को हटाना भाजपा के एजेंडे का बड़ा तीर है लेकिन इसी धारा का विरोध करते हुए किसी का मुख्यमंत्री बनना बताता है कि भाजपा के लिए श्रीनगर अभी बहुत दूर है। घाटी में भाजपा को एक भी सीट नही मिली। नए चुनाव के बाद सबसे बड़ी चुनौती है कि परस्पर विरोधी केंद्र और राज्य सरकारों के साथ क्या कश्मीर को भारतीय मुख्य धारा में लाने का काम उसी शिद्दत से हो पायेगा? अलगाववादी ताकतों के उभार का डर एक बार फिर बनेगा। केंद्र और सेना की चुनौतियों और बढ़ सकती हैं। एक दूसरी संभावना है कि 10 वर्षो का वनवास झेल चुके उमर अब्दुला सत्ता में आने के बाद जम्मू कश्मीर की बेहतरी के लिए हो रहे कामों को आगे बढ़ाने की सोचें । खस्ताहाल हो चुके पाकिस्तान परस्ती की मानसिकता से बाहर निकल आये। अगर ऐसा हुआ तो कश्मीरियों के लिए बेहतर होगा।