मुजफ्फरपुर: साल था 1908…! कलकत्ता के चीफ प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट डगलस एच किंग्सफोर्ड थे। वे फ्रीडम फाइटर्स को कड़ी सजा देने के लिए बदनाम थे, इसलिए क्रांतिकारियों के निशाने पर भी होते थे। इसी साल एक ऐसी घटना हुई, जिसने डगलस को लेकर स्वतंत्रता सेनानियों में गहरी नफरत पैदा कर दी। अदालत के सामने क्रांतिकारियों को पीटे जाने का विरोध करने पर डगलस ने 15 साल के सुनील सेन को 15 कोड़े मारने का आदेश सुनाया। हर कोड़े के साथ सेन के मुंह से निकला वंदे मातरम।
यह खबर जंगल में आग की तरह फैली। क्रांतिकारियों ने जब यह खबर पढ़ी तो वे गुस्से से उबल गए। उन्होंने तय कर लिया था कि किसी भी हाल में डगलस से बदला लेना है।
इस बात का अंदाजा अंग्रेजों को भी हो चुका था इसलिए उन्होंने डगलस को कलकत्ता से बिहार के मुजफ्फरपुर भेज दिया।
क्रांतिकारियों को भी अंग्रेजों के इस प्लान के बारे में पता चल चुका था। डगलस से बदला लेने के लिए क्रांतिकारियों के समूह ने प्रफुल्ल कुमार चाकी और खुदीराम बोस को चुना। दोनों सीक्रेट मिशन पर मुजफ्फरपुर पहुंचे। एक ने अपना नाम रखा ‘हरेन सरकार’ दूसरा बना ‘दिनेश रॉय’।
इन्होंने पूरी प्लानिंग के बाद एक बग्घी पर बम फेंक दिया। हालांकि, यहां क्रांतिकारियों से एक गलती हो गई। जिस बग्घी पर बम फेंका गया था उसमें डगलस की जगह दो महिलाएं थीं, जो ब्रिटेन के एक बैरिस्टर प्रिंगल केनेडी की पत्नी और बेटी थी। बम फेंके जाने के कुछ ही घंटों बाद इन दोनों महिलाओं की मौत हो गई थी। इस घटना के बाद बोस को पकड़ लिया गया। वे महज 18 साल की उम्र में हंसते हुए फांसी पर झूल गए। लेकिन अफसोस की बात ये है कि देश के लिए अपनी जान न्यौछावर कर देने वाले इन दोनों क्रांतिकारियों की यादें अब मुजफ्फरपुर में भी किस्सों-कहानियों तक ही रह गई हैं।
पटना से 80 किमी दूर मुजफ्फरपुर के जिस एरिया में खुदीराम बोस ने अंग्रेजों पर बम फेंका था, वहां अब चिकन मार्केट है और इसे कंपनी बाग कहा जाता है। यहां पहुंचने पर सिविल कोर्ट की दीवार से लगा खुदीराम बोस का स्मारक नजर आया। इस पर लिखा है, ‘भारत के सबसे कम उम्र के क्रांतिकारी अमर शहीद खुदीराम बोस का स्मारक स्थल।’
मुजफ्फरपुर कोर्ट ने 13 जुलाई 1908 के दिन खुदीराम बोस को फांसी की सजा सुनाई। इस फैसले के खिलाफ कोलकाता हाई कोर्ट में अपील की गई। वहां मुजफ्फरपुर कोर्ट में चले ट्रायल की करीब 3000 पन्नों की केस डायरी पेश की गई। हालांकि, अंग्रेज जज ने मुजफ्फरपुर कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा।
आजादी के बाद ट्रायल की करीब 3000 पन्नों की केस डायरी कोलकाता में किसी म्यूजियम में रख दी गई। कहां रखी गई, किसी को पता नहीं है। हालांकि, मुजफ्फरपुर में रहने वाले बहुत सारे लोग खुदीराम बोस की स्मृतियों को जिंदा करने के लिए लड़ाई भी लड़ रहे हैं। मुजफ्फरपुर के मानवाधिकार कार्यकर्ता और वकील एसके झा इस मामले में राष्ट्रपति तक को लेटर लिख चुके हैं। झा कहते हैं कि, ‘खुदीराम बोस को अमर शहीद कहा जाता है। वो अलौकिक पुरुष थे। उन्होंने सबसे कम उम्र में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंका था। इसकी गूंज सात समुंदर पार ब्रिटेन तक पहुंची थी।
हमारी मांग है कि वर्तमान में जो खनन विभाग का ऑफिस है, उसे ऐतिहासिक स्थल घोषित कर सजाया-संवारा जाए। इसे आने वाली पीढ़ियों के लिए संरक्षित किया जाए। साथ ही कोलकाता से खुदीराम बोस की 3 हजार पेज की केस डायरी वापस मुजफ्फरपुर लाई जाए।’ कोलकाता के किसी म्यूजियम में बोस से जुड़ी केस डायरी आज भी रखी है।