एम-वाई समीकरण की जड़ें और उसका राजनीतिक महत्व
बिहार की राजनीति में जब भी जातीय समीकरणों की बात होती है, तो एम-वाई समीकरण (मुस्लिम–यादव गठजोड़) का ज़िक्र सबसे पहले होता है। यह गठजोड़ राष्ट्रीय जनता दल (राजद) की राजनीति की पहचान और उसकी सबसे बड़ी ताकत माना जाता है।
लेकिन सवाल उठता है कि क्या यह समीकरण वाकई में दोनों समुदायों को समान प्रतिनिधित्व देता है, या यह सिर्फ़ चुनावी रणनीति का प्रतीक बनकर रह गया है?
सिवान की राजनीति में ‘एम’ क्यों है हाशिये पर?
यदि सिवान जिले की 8 विधानसभा सीटों के चुनावी इतिहास को 2010 से 2020 तक देखा जाए, तो स्थिति चौंकाने वाली है।
राजद ने इस पूरे डेढ़ दशक में सिर्फ़ एक मुस्लिम उम्मीदवार — रघुनाथपुर से डब्लू खान (2010) — को टिकट दिया है।
यानि 10 वर्षों में 8 सीटों पर हुए कई चुनावों में मुसलमानों की साझेदारी लगभग शून्य रही है।
लोकसभा स्तर पर डॉ. मोहम्मद शहाबुद्दीन और उनकी पत्नी जैसे नाम सामने आए, लेकिन विधानसभा स्तर पर मुस्लिम चेहरों को लगातार नज़रअंदाज़ किया गया।
यह स्थिति इसलिए और विस्मयकारी है क्योंकि सिवान और बड़हरिया जैसे क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते हैं।
इसके बावजूद राजद का उम्मीदवार चयन हमेशा “वाई” यानी यादव समाज पर केंद्रित रहा है।

एम-वाई समीकरण या सिर्फ़ ‘वाई’ समीकरण?
राजद का नारा भले ही “सामाजिक न्याय” और “एम-वाई गठजोड़” की बात करता है, लेकिन टिकट वितरण की हकीकत कुछ और ही कहानी कहती है।
सिवान विधानसभा क्षेत्र इसका सबसे बड़ा उदाहरण है — जहाँ कभी किसी मुस्लिम प्रत्याशी को टिकट नहीं मिला।
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि सिवान जैसे जिलों में यह असंतुलन पार्टी की आंतरिक जातीय रणनीति और स्थानीय नेतृत्व के दबदबे के कारण है।
यादव समुदाय के नेताओं की पकड़ इतनी मज़बूत है कि टिकट बंटवारे में वही अंतिम निर्णय लेते हैं।
नतीजतन, “एम” यानी मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधित्व धीरे-धीरे राजनीतिक रूप से समाप्त होता जा रहा है।
बदलते समीकरणों में घटता संतुलन
सिवान में एम-वाई समीकरण का कमजोर होना सिर्फ़ स्थानीय राजनीति की कहानी नहीं है, बल्कि यह राजद के वैचारिक संकट की झलक भी देता है।
राजनीतिक रूप से यह असंतुलन आने वाले 2025 विधानसभा चुनाव में पार्टी के लिए चुनौती बन सकता है।
क्योंकि अगर मुस्लिम मतदाताओं को बार-बार “सिर्फ़ वोटर” की भूमिका में रखा जाएगा, तो वे अन्य विकल्पों की ओर रुख कर सकते हैं।
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समान अवसर ही सामाजिक न्याय की असली कसौटी
राजद की राजनीति की नींव समानता और सामाजिक न्याय पर रखी गई थी।
अगर यह पार्टी अपने इस दर्शन को जीवित रखना चाहती है, तो उसे अपने दोनों स्तंभ — “एम” (मुस्लिम) और “वाई” (यादव) — को समान अवसर देना होगा।
अन्यथा, एम-वाई समीकरण धीरे-धीरे सिर्फ़ “वाई समीकरण” में बदल जाएगा, और यही परिवर्तन राजद के लिए राजनीतिक जोखिम बन सकता है।
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निष्कर्ष – क्या राजद फिर से संतुलन साध पाएगी?
अब बड़ा सवाल यह है कि क्या राजद नेतृत्व 2025 से पहले अपनी नीतियों में बदलाव लाएगा?
अगर पार्टी ने सिवान जैसे जिलों में मुस्लिम चेहरों को प्रतिनिधित्व नहीं दिया, तो एम-वाई समीकरण की ताकत कमजोर पड़ सकती है।
राजद को यह समझना होगा कि वोट बैंक सिर्फ़ नारों से नहीं, प्रतिनिधित्व से बनता है।
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