महाराष्ट्र में चुनावी सरगर्मियों के बीच राजनेताओं ने वाक युद्ध की सीमा लांघनी शुरू कर दी है। भाजपा के लिए जहां ये चुनाव नाक का प्रश्न है। वहीं विपक्ष राज्य में लोकसभा के दौरान मिली सफलता से उत्साहित है। लोकसभा की 48 सीटों में भाजपा को सिर्फ 9 सीटों पर जीत मिली थी। उसका गठबंधन महायुति भी महज 17 सीटों पर सिमट गया था। भाजपा कह रही है कि वर्तमान में माहौल बदल गया है। उसे लगता है कि महाभारत की इस लड़ाई में शिवसेना (उद्धव) से टूट कर आये वर्तमान मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और एनसीपी से टूट कर आये शरद पवार के भतीजे अजित पवार उसके रथ को विजय की ओर ले जाएंगे। दूसरी तरफ ‘महाविकास अगाड़ी’ जिसमें मुख्य रूप से कांग्रेस, शिवसेना (उद्धव) और एनसीपी हैं। इन दोनों नेताओं को अवसरवादी साबित करने में लगे हुए हैं।
महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई मायानगरी के नाम से मशहूर है जहां देशभर से सपने देखने वाले उसे साकार करने आते हैं। इसे देश की आर्थिक राजधानी भी कहते हैं। तमाम ‘कॉरपोरेटस’ ने यहां अपना हेड ऑफिस बना रखा है। आमदनी के मामले में महाराष्ट्र की सरकार सबसे अमीर सरकारों में है। लेकिन महाराष्ट्र में सिर्फ चमक दमक नही है। हजारो मिल के दायरे में बसे इस राज्य में ग़रीबी और अमीरी की विविधता भी बहुत है। 1962 के पहले ये राज्य बम्बई था लेकिन 1953 से ही मराठी भाषा भाषियों को एक छत के नीचे लाने के लिए आंदोलन जोर पकड़ रहा था। इसी सोच के तहत सेंट्रल प्रोविंस (मध्यप्रदेश) का विदर्भ क्षेत्र 1960 में और ‘प्रिंसली स्टेट ऑफ हैदराबाद’ का ‘मराठवाड़ा’ 1956 में महाराष्ट्र का हिस्सा बना।
इस एकीकरण के बाद क्षेत्र की विविधता बढ़ गयी। विदर्भ क्षेत्र में किसानों की आत्महत्या अक्सर सुर्खियां बन जाती है। यहां सोयाबिन और कपास के खेतिहरों के गम्भीर मुद्दे हैं। मराठवाड़ा में मराठों के आरक्षण को ले कर आंदोलन होते रहते हैं। वहीं मुंबई में बाहरी बनाम मुम्बई का मुद्दा अक्सर चर्चा में आ जाता है। मुंबई वासियो को ये भी लगता है कि व्यवसाय पर गुजरातियों ने कब्जा जमा रखा है। हालांकि गुजराती समुदाय के आर्थिक दबदबे को देखते हुए कोई भी पार्टी खुल के उनके विरोध में नही बोलती है। वोटों को ‘स्विंग’ करने के लिए यहां प्रकाश अम्बेडकर और असदुद्दीन ओवैसी की पार्टियां भी मैदान में है। ओवैसी पिछली बार बंगाल और उत्तरप्रदेश में कुछ नही कर पाए थे लेकिन बिहार और महाराष्ट्र में उन्हें खड़े होने की जमीन मिल गयी थी।
भाजपा इस बार सतर्क है। उसी सतर्कता से उसने कांग्रेस को हरियाणा में मात दिया था। वहां अपने खिलाफ जाट उन्माद को उसने ‘ओबीसी’ मतदाताओ को लामबंद करते हुए काट दिया था। कुछ उसी प्रकार की रणनीति उसने महाराष्ट्र में अपनाई है। मराठवाड़ा में शरद पवार के खिलाफ अजित पवार का दांव चलेगा या नही चलेगा इस बात पर भाजपा के राजनीतिक पंडित आश्वस्त नही है लेकिन उनकी नजर इसके काट में ओबीसी और दलित पर टिकी हुई है। हालांकि करीब साढ़े तीन सौ उपजातियों वाले ओबीसी और दलित इस समाज को साधना इतना आसान नही होगा। शायद इसीलिए भाजपा आक्रमण हिंदूवाद के नारे ‘बंटोगे तो कटोगे’ का सहारा ले रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ स्टार प्रचारकों में एक है। राजनीति में रेवड़ियों का दौर जारी है। भाजपा को उम्मीद है कि ‘लाडली बहन’ योजना के तहत करीब दो करोड़ महिलाओं को दिए गए सालाना साढ़े सात हजार रुपये भी वोट में परिवर्तित होंगे।
दूसरी तरफ विपक्ष ने मराठा-मुस्लिम गठजोड़ को मजबूत करने की दिशा में प्रयास तेज कर दिया है। ये गठजोड़ लोकसभा के दौरान कामयाब भी रहा था। कांग्रेस के लिए ये चुनाव बहुत अहम है। ज्यादातर बड़े राज्यों में कांग्रेस अपना जनाधार खो चुकी है। महाराष्ट्र उसके लिए आजादी के समय से ही मजबूत किले की तरह रहा है। 1978 से पहले राज्य में लगातार उसी की अकेली सरकार रही। 1978 में उसे कांग्रेड (यू) के साथ सरकार बनानी पड़ी थी। चार महीने बाद जुलाई 1978 में महज 34 साल की उम्र में शरद पवार ने पार्टी तोड़ते हुए जनता दल के साथ मिल कर सरकार बनाई जो महाराष्ट्र में पहली गैर कांग्रेसी सरकार थी। पुनः 1980 में 185 सीटें जीतते हुए कांग्रेस ने अपनी खोई जमीन वापस ले ली थी।
1985 में पहली बार भाजपा ने 16 सीटे जीत कर राज्य में अपनी उपस्थिति दर्ज की थी। 1990 में 52 सीटें जीत कर शिवसेना एक ताकत की तरह उभरी। उसी साल भाजपा को 42 सीटे मिली। ये वो दौर था जहाँ से महाराष्ट्र की जागीर चार राजनीतिक पार्टियों शिवसेना, एनसीपी, भाजपा और कांग्रेस के बीच बंट गयी। 1990 के बाद किसी भी पार्टी को अकेले बहुमत नही मिला और गठबंधन का दौर चलता रहा। भाजपा इसे जीत कर बताना चाहती है कि लोकसभा चुनाव के बाद उसकी लोकप्रियता का ग्राफ बढ़ रहा है। वो विपक्ष के बढ़े हुए मनोबल को तोड़ना चाहती है। वहीं विपक्ष खासकर कांग्रेस ये साबित करना चाहती है कि लोकसभा में भाजपा की कम हुई सीटे उसकी गिरती लोकप्रियता का प्रतीक हैं और ये क्रम बदस्तूर जारी है। पक्ष और विपक्ष की इस जद्दोजहद के नतीजे दूरगामी हो सकते हैं।