महिषासुर मर्दिनी के बहाने मातृका पूजा! 

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शंभूनाथ शुक्ल 

(वरिष्ठ पत्रकार) 

जीवन के तीन वर्ष मैंने कलकत्ता (अब कोलकाता) में गुज़ारे हैं। मैं आज भी मानता हूँ कि ये तीन साल मेरे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि हैं। जिस तरह की विविधता कलकत्ता में देखने की मिलती है, वैसी शायद ही विश्व के किसी और शहर में मिल सकती है। कलकत्ता का हर पल आप जी सकते हैं और स्मृतियों में ज़िंदा रख सकते हैं। कलकत्ता की सबसे बड़ी विशेषता है, उसकी दुर्गा पूजा। महिषासुर मर्दिनी का जैसा वर्णन और चित्रण बंगाल के इस शहर में देखने को मिलता है, वह अद्भुत है। यहाँ दुर्गा पूजा के पंडाल शारदीय नवरात्र की षष्ठी से लगने शुरू होते हैं। चार दिन पूजा होती है और दसवें दिन महिषासुर मर्दिनी की मूर्तियों का विसर्जन हो जाता है। इसी दिन सिंदूर खेला होता है। विवाहित महिलाएं परस्पर एक-दूसरे को सिंदूर लगाती हैं। यह दृश्य देख कर कोई भी अभिभूत रह सकता है। 

ढाक बजते ही ‘अयि गिरीनंदिनि’ की पूजा शुरू 

लाल किनारे वाली सफ़ेद साड़ी पर जब सिंदूर पड़ता है तब बंगाल खिल उठता है। मुझे पूरे कोलकाता प्रवास के दौरान इस षष्ठी का इंतज़ार रहता। षष्ठी की सुबह चार बजे से ही दुर्गा पंडालों पर ढाक बजने शुरू हो जाते। हर बंगाली ढाक का दीवाना होता है। इसे स्त्रियाँ और पुरुष दोनों बजाते हैं। ढोलक की तरह का यह वाद्य यंत्र खड़े हो कर बजाया जाता है। ढोलक में अंगुलियों की थाप होती है तो ढाक में बांस की स्टिक। ढोलक हर मांगलिक पर्व पर बजती है किंतु ढाक अधिकतर दुर्गा पूजा पर। इसे बजाने वाले भी सीमित होते जा रहे हैं क्योंकि ढाकियों की माँग सिर्फ दुर्गा पूजा पर होती है। कोलकाता का अहिरी टोला ढाकियों के लिए मशहूर रहा है। तबला वादक तन्मय बोस ने ढाक बजाने वालों की प्रतिभा पहचानी थी। इसके बाद उन्होंने ढाक को संगीत की मुख्य धारा में लाने के प्रयास शुरू किए। 

पांच दिन की पूजा में उमड़ता है पूरा समाज 

यूँ बंगाल में दुर्गा पूजा की शुरुआत 16 वीं शताब्दी में हुई थी। सन् 1583 में बंगाल के ज़मींदारों द्वारा शुरू कराई गई दुर्गा पूजा में ढाक की एंट्री 1757 में हुई जब लॉर्ड क्लाइव ने प्लासी युद्ध जीता। इसी के बाद शुरू हुई षष्ठी के रोज से दुर्गा का घर-घर में पाठ। हालाँकि पंडित लोग महालया से (अश्विन मास की अमावस्या) से ही दुर्गा पूजा शुरू कर देते हैं किंतु माँ दुर्गा के पट पंचमी से खुलते हैं और षष्ठी को वे मायके पधार जाती हैं। इसके बाद सप्तमी, अष्टमी, नवमी मायके में रह कर पाँचवें दिन दशमी को वे वापस हो जाती हैं। बंगाल में दशमी को रावण दहन नहीं होता बल्कि सिंदूर खेला होता है। दुर्गा पूजा का यह विधान बंगाल के अलावा असम, बिहार, झारखंड, ओडीसा में मनाया जाता है। दक्षिण के राज्यों में में भी दुर्गा की पूजा महिषासुर मर्दिनी के रूप में विख्यात है। मैसूर में चामुंडेश्वरी देवी मंदिर उसी का प्रतीक है। 

उत्तर प्रदेश में शारदीय नवरात्रि पर राम लीला 

उत्तर प्रदेश में शारदीय नवरात्रि में राम लीलाएँ होती हैं और महिलाएँ दुर्गा अष्टमी के दिन दुर्गा मंदिर में जा कर रतजगा करती हैं। उत्तर प्रदेश के मेरठ मंडल, हरियाणा, पंजाब, जम्मू, हिमाचल आदि में नवरात्रि को नवरात या नौरातां बोलते हैं। अधिकांश महिलाएँ और पुरुष भी नौ दिनों का व्रत करते हैं और मांस, मदिरा, प्याज, लहशन से दूर रहते हैं। कुछ लोग अष्टमी या नवमी के दिन कंजक (कन्या भोज) करते हैं। आसपास की कन्याओं को न्योता जाता है और उनको भोजन करवाया जाता है। खीर-पूरी और हलवा के साथ। अपनी-अपनी सामर्थ्य से लोग उन्हें पैसा भी देते हैं। इन नौ या ग्यारह कन्याओं के बीच एक लड़का भी बुलाया जाता है, जिसे लंगूर कहते हैं। यहाँ दुर्गा दुर्गति नाशिनी है। इस क्षेत्र में वर्ष में दो नवरात्रि होती हैं। एक चैत में पड़ने वाली दूसरी क्वार की शारदीय नवरात्रि। 

मौसम का संधि काल 

शेष हिंदी भाषी राज्यों में भी पूजा इसी विधि से होती है। उत्तर और मध्य भारत में दोनों नवरात्रि को समान रूप से पवित्र मना गया है। इसलिए शुद्ध शाकाहारी रह कर नौ दिन तक व्रत का विधान है। इसके पीछे एक तो मौसम के संधि काल की आयुर्वेद की व्याख्या है। उत्तर भारत का मौसम उष्ण है या भयंकर गर्मी है और उतनी ही शीत भी। यहाँ दो तरह के संधि काल हैं। एक जब मौसम शीत से गर्मी की तरफ़ बढ़ता है। इसीलिए चैत (मार्च-अप्रैल) का महीना सुहाना है लेकिन स्वास्थ्य को ले कर सतर्क रहना पड़ता है। ठीक इसी तरह जब बरसात के बाद मौसम ठंडा होना शुरू होता है। धूप आद्रता के कारण प्रखर हो जाती है, तब भी बीमारियाँ पनपती हैं। यह मौसम है भादों के बाद क्वार या अश्विन मास (सितंबर-अक्तूबर) का। इसलिए शारदीय नवरात्र पर भी व्रत के जरिये शरीर को स्वस्थ करने की परंपरा चली आ रही है।

बंगाली संस्कृति का असर पूरे देश पर 

इसके विपरीत भारत का बड़ा हिस्सा समुद्र तटवर्ती है। यहाँ सम-शीतोष्ण मौसम है, आद्रता हर वक्त रहती है। यहाँ बरसात और शीत के बीच मौसम सुहाना होता है। यही कारण है कि यहाँ के पर्व-त्योहार इसी मौसम में आते हैं। शारदीय नवरात्रि का यहाँ विशेष महत्त्व है। किंतु ढाक बाज़ा कर मां दुर्गा का स्वागत करने की परंपरा बंगाल की संस्कृति का एक हिस्सा है। चूँकि बंग-भंग के पूर्व बंगाल की संस्कृति और बंगाल के रीति-रिवाज़ बिहार, झारखंड, असम और ओडीसा तक छाये थे इसलिए वहाँ पर दुर्गा पूजा भी षष्ठी के दिन से शुरू होती है। ढाक इन सभी स्थानों पर बजता है। अब तो चौबीस परगना के गोकुल चंद दास ने तन्मय बोस के साथ मिल कर ढाक बजाने वालों की एक मंडली बनाई हुई है। इस मंडली में महिलाएँ हैं और अपने कैरियर को संवार रही हैं।

तमिल और तेलुगु भाषियों के बीच दुर्गा पूजा 

दक्षिण भारत के सभी राज्यों में नवरात्रि मनाने की परंपरा है। तमिल लोग षष्ठी के दिन से तीनों देवियों- दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती का स्वागत करने के लिए अपने घरों को सजाते हैं। इन देवियों की प्रतिमाओं को एक मिट्टी का ऊँचा चबूतरा बना कर रखा जाता है, इसे गोलू-कोलू बोलते हैं। गोलू-कोलू में सीढ़ीदार खाने बने होते हैं और हर खाने में देवी-देवताओं की प्रतिमाएं। दशावतार और महाभारत की थीम पर प्रतिमाएँ सजाई जाती हैं। लोग एक-दूसरे के घर सजावट देखने जाते हैं। उपाहार परोसा जाता है और विवाहित स्त्रियों को गहने, चूड़ियाँ और बिंदी भेंट की जाती है। आंध्र और तेलांगना के तेलुगू भाषी समाज में भी यही परंपरा है। वहाँ इसे बोम्माला कोलू कहा जाता है। यहाँ सबसे ऊपर आदि देव फिर दशावतार, फिर लक्ष्मी के अष्ट रूप और सबसे अंत में दुर्गा की मूर्ति होती है। यहाँ मूर्तियाँ गुड़िया की तरह बनती हैं।

कर्नाटक में चामुंडेश्वरी पूजा और केरल में आयुध पूजा 

कर्नाटक में भी दुर्गा पूजा बंगाल की तरह मनाई जाती है। षष्ठी के रोज मां दुर्गा अपने मायके आती हैं तो साथ में उनका परिवार भी होता है। गणेश, सरस्वती, लक्ष्मी और कार्तिकेय साथ रहते हैं। यहाँ भी वे महिषासुर मर्दिनी हैं। मैसूर से 13 किमी दूर चामुंडेश्वरी देवी में महिषासुर की मूर्ति भी है और उसका मर्दन करने वाली मां दुर्गा की भी। यहाँ पर मार्च-अप्रैल की नवरात्रि पर भी चामुंडा देवी की विशेष पूजा होती है। यह एक शक्ति पीठ है। यूँ केरल में त्रिवेंद्रम का पद्मनाभ मंदिर सबसे महत्त्वपूर्ण है। यह त्रावणकोर के राजाओं द्वारा बनवाया गया विष्णु मंदिर है। फिर भी भगवती पूजा बहुत महत्त्व खूब है। शारदीय नवरात्रि का स्वागत चावल बिखेर कर किया जाता है। यहाँ दशमी के दिन सरस्वती पूजा का विशेष विधान है। उत्तर भारत की तरह दशमी को आयुध (हथियार) पूजा भी होती है। 

पूरे उप महाद्वीप में मातृका पूजा का विधान  

इस तरह हम पाते हैं कि पूरे भारत वर्ष, नेपाल, श्रीलंका, पाकिस्तान और बांग्ला देश में हिंदू समाज नवरात्रि को या तो उपवास रख कर मनाता है या खूब उत्सव तथा धूम-धाम के साथ। यह पर्व हिंदू समाज में मातृका पूजा का प्रतीक है और आज भी अपनी पूरी धज के साथ उपस्थित है। मातृका पूजा न सिर्फ सनातनी हिंदुओं में बल्कि जैन और बौद्ध समाज में भी है। इस वर्ष आज अर्थात् रविवार, 28 सितंबर को महिषासुर मर्दिनी अपने मायके में पधार गईं। 

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