आपातकाल की यादें, यातना के वे दिनआपातकाल के 50 वर्ष पूरे होने पर विशेष

17 Min Read


अनिल विभाकर
(वरिष्ठ पत्रकार और आपातकाल में मीसा में जेल में बंद रहे )
बात सन् चौहत्तर की है। देश के अधिकतर राज्यों में कांग्रेस सत्ता में थी और केन्द्र में भी सरकार थी इंदिरा गांधी की। भ्रष्टाचार और जुल्म बढ़ा हुआ था जिसके कारण सरकार के विरुद्ध जन असंतोष का ज्वार उमड़ रहा था। छात्र भी असंतुष्ट थे और सरकार के विरुद्ध बिहार में छात्र आंदोलन शुरू हो चुका था। केन्द्र में कहने को एक चुनी हुई सरकार भले थी मगर वह कहीं से लोकतांत्रिक थी नहीं । सच कहें तो वह एक जुल्मी शासन था । संविधान, न्याय और नियम- कायदे का कोई महत्त्व नहीं था इंदिरा गांधी के लिए । जो स्वभाव से तानाशाह और निरंकुश हो उसकी सरकार कभी लोकतांत्रिक हो नहीं सकती।
इंदिरा जी मानती थीं कि देश पर शासन करने का हक उनके अलावा और किसी को नहीं। वह अपने को देश का पर्याय समझती थीं। उस समय कांग्रेस का नारा भी था – इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा। मानो इंदिरा ही भारत है। यह नारा उनके अत्यंत विश्वस्त कांग्रेस के वरिष्ठ नेता देवकांत बरुआ ने दिया था। बरुआ कुछ समय के लिए बिहार के राज्यपाल भी रहे। इंदिरा जी इस नारे से बहुत आह्लादित थीं। तभी तो इस नारे का न तो उन्होंने कभी विरोध किया न ही इस पर रोक लगाई। ऐसा नारा तो कोई तानाशाह ही लगवा सकता है।
इंदिरा जी की सरकार में न सिर्फ भ्रष्टाचार और धांधली चरम पर थी, चुनावों में भी खूब धांधली होती थी। इंदिरा जी के इशारे पर सुप्रीम कोर्ट तक के फैसले होते थे। धांधली ऐसी कि बिना कोई कानून की डिग्री के उन्होंने एक व्यक्ति को सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश तक बना दिया। प्रधानमंत्री बने रहने के लिए इंदिरा जी ने कैबिनेट के फैसले के बिना देश में रातोंरात इमरजेंसी लगा दी। इस आदेश पर राष्ट्रपति का हस्ताक्षर भी नहीं हुआ और देश में उन्होंने इमरजेंसी का एलान कर दिया।जनता के सभी मौलिक अधिकार स्थगित कर दिये गये । प्रेस पर सेंसरशिप लागू कर दी । सरकारी नजरों से गुजरे बिना अखबारों में कोई भी समाचार छप नहीं सकता था। इतनी तानाशाह और जुल्मी सरकार थी वह ।
इंदिरा जी समाजवादी नेता राजनारायण को हरा कर रायबरेली से लोकसभा सीट से निर्वाचित हुई थीं मगर राजनारायण का मानना था कि चुनाव में धांधली के कारण उनकी हार हुई। उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट में इस निर्वाचन को चुनौती दी और हाईकोर्ट ने मामले की विस्तृत सुनवाई में यह पाया कि चुनाव में गड़बड़ी हुई है। हाईकोर्ट ने इंदिरा जी का निर्वाचन रद्द कर दिया। इसके बावजूद इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा नहीं दिया उल्टे 25-26 जून 1975 की मध्य रात्रि में देश में इमरजेंसी लगा दी। विपक्ष के लगभग सभी प्रमुख नेता रातोंरात जेल में बंद कर दिये गये। मुझे भी 17 जुलाई 1975 की सुबह गया में गिरफ्तार कर पुलिस ने भीषण यंत्रणा दी । गया बस स्टैंड पर उल्टा लटका कर पुलिस ने मुझे न सिर्फ लाठियों से बुरी तरह पीटा , मेरे दायें पैर के अंगूठे का नाखून तक उखाड़ लिया । अधमरी स्थिति में पांच दिन तक मुझे पुलिस की हाजत में बंद रखा गया । मुझसे पूछताछ होती रही और फिर मीसा और डीआईआर के तहत गया सेंट्रल जेल भेज दिया गया। मेरे साथ दो अन्य छात्रों ज्ञानचंद जैन और अनिल कुमार सिन्हा को भी गिरफ्तार किया था और पुलिस ने बस स्टैंड पर ही उन्हें भी अधमरा कर दिया था। हम तीनों गया और हजारीबाग सेंट्रल जेल में बीस महीने तक लगातार नजरबंद रहे। रिहा तब हुए जब केन्द्र में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी।
देश में इमरजेंसी लगने से पहले 12 अप्रैल 1974 को गया में आंदोलनकारियों पर पुलिस फायरिंग हुई थी जिसमें कई आंदोलनकारी मारे गए थे । गोली लगने से कई लोग घायल भी हुए थे। गया में कर्फ्यू लगा था। इसी गोलीकांड के बाद ही जयप्रकाश नारायण ने इस आन्दोलन का नेतृत्व करने की घोषणा की। गया गोली कांड पर मैंने ‘ खून का रंग ‘ शीर्षक कविता लिखी जो उस समय आन्दोलन के समर्थन में गया से छपने वाले साप्ताहिक बुलेटिन ‘ छात्र संघर्ष ‘ में छपी थी। आन्दोलनकारियों को यह कविता खूब पसंद थी। गया गोली कांड पर ही मैंने लिखा था — ‘ दोस्तो क्या कहूं मैं इसलिए कि बागी हूं/ पूछना है तो पूछ लो अमर‌ शहीदों से/लगे हैं खून के धब्बे जहां शहीदों के / वहां पे आज भी हम सर नवा के चलते हैं।’ साहित्य की दुनिया में उस समय मैं बिल्कुल नया – नया था मगर मेरी कविताएं ‘ साप्ताहिक हिन्दुस्तान ‘ और पटना से प्रकाशित हिन्दी दैनिक ‘ प्रदीप ‘ आदि पत्र- पत्रिकाओं में छपने लगी थीं। ‘ प्रदीप ‘ और अंग्रेजी दैनिक ‘ सर्चलाइट ‘ राजधानी पटना से छपने वाले आन्दोलन के समर्थक अखबार थे । इसलिए सरकार समर्थकों ने इसका प्रेस और कार्यालय ही फूंक दिया ।
ऐसी तानाशाह और जुल्मी सरकार के विरुद्ध बिहार के कवियों – साहित्यकारों की टोली राजधानी पटना की सड़कों और नुक्कड़ों पर खुलकर उतर आई थी। बाबा नागार्जुन, गोपी वल्लभ सहाय , सत्यनारायण,रामप्रिय मिश्र लालधुआं , परेश सिन्हा, डा. रवीन्द्र राजहंस, मगही कवि बाबूलाल मधुकर आदि कवि इस टोली में प्रमुख थे। इन नुक्कड़ कवि गोष्ठियों में फणीश्वरनाथ रेणु भी होते थे। पटना में नुक्कड़ कविता पाठ की यह शुरुआत 17 अप्रैल 1974 को डाकबंगला चौराहे के समीप लखनऊ स्वीट्स के चबूतरे पर हुई थी। उस दिन इंदिरा सरकार के विरुद्ध ‘रेणु ‘ ने‌ सुबह सात बजे से शाम छह बजे तक उस चबूतरे पर अनशन किया था और बाबा नागार्जुन सहित कई साहित्यकार, चित्रकार और रंगकर्मी वहां उनके साथ थे। वहां पीछे की दीवार पर लगे कुछ पोस्टरों पर कुछ महत्त्वपूर्ण कवियों की पंक्तियां लिखी थीं।
एक पोस्टर में राष्ट्रकवि ‘ दिनकर ‘ की पंक्ति थी- समर शेष है , नहीं पाप का भागी केवल व्याध/ जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध। इन पोस्टरों में रघुवीर सहाय और बच्चन की भी काव्य पंक्ति थी। शाम में जब अनशन समाप्त हुआ तो ‘ रेणु ‘ के आग्रह पर बाबा नागार्जुन और वहां उपस्थित अन्य कवियों ने अपनी कविताओं का पाठ किया। पटना में नुक्कड़ काव्यपाठ की यह शुरुआत थी। फिर तो पटना में काव्यपाठ, पोस्टर प्रदर्शनी और नुक्कड़ नाटकों का सिलसिला ही चल पड़ा। ‘ रेणु’ का उत्साह तब चकित करने वाला था। बहुत कम बोलने वाले ‘ रेणु’ का बिल्कुल बदला हुआ रूप देखने को मिला। नुक्कड़ सभाओं में धाराप्रवाह बोलते हुए ‘ रेणु ‘ को सुनना सबके लिए नया अनुभव था। वाणी में ओज और तमतमाया चेहरा नेपाल के क्रांतिवीर युवा ‘ रेणु ‘ की याद दिला रहा था।
देश में जब इमरजेंसी की घोषणा हुई तो ‘ रेणु ‘ को गिरफ्तार कर अररिया जेल में बंद कर दिया गया। गिरफ्तारी से कुछ दिन पहले ही उन्होंने पद्मश्री लौटा दी थी। वे लगभग डेढ़ वर्ष जेल में बंद रहे जहां उनकी सेहत खराब हो गई। वे काफी कमजोर हो गये । इमरजेंसी हटने के बाद ‘ रेणु ‘ जेल से रिहा हुए मगर कुछ महीने बाद ही उनका निधन हो गया। ‘ रेणु ‘ की गिरफ्तारी के बाद बाबा नागार्जुन ने नुक्कड़ कवि सम्मेलन के इस सिलसिले को आगे बढ़ाया तो कुछ और कवि साथ हो गये जिनमें काशीनाथ पांडेय , रवीन्द्र भारती और राज इन्कलाब प्रमुख थे।’ रेणु ‘ ने अपने संयोजन में ‘जनसंघर्षी रचनाकार मंच ‘ का गठन किया था। जुगनू शारदेय इसके सचिव थे। फिर तो नुक्कड़ काव्यपाठ, नुक्कड़ नाटकों और चित्र प्रदर्शनियों का सिलसिला ही चल पड़ा। नुक्कड़ नाटकों में अपनी भागीदारी दर्ज करा रहे थे सतीश आनंद, वसंत कुमार उमेश कुमार और चित्र प्रदर्शनियों में छायाकार सत्यनारायण दूसरे व वासुदेव साह। इस तरह कवियों, रंगकर्मियों और छायाकारों ने जनमानस को आंदोलित किया और राजधानी पटना में क्रांति की जमीन तैयार की। ‘जनसंघर्षी रचनाकार मंच’ की ओर से‌ डा शैलेन्द्र नाथ श्रीवास्तव ने अपने सम्पादन में ‘आन्दोलन की कविताएं’ नाम से पचास से अधिक कवियों की कविताओं का संकलन भी प्रकाशित किया था। कवि सत्यनारायण कहते हैं वह एक अजीब दृश्य था। हर शाम पटना के चौराहों पर हम इकट्ठा होते। सैंकड़ों की संख्या में नगर वासी हमें सुनने आते। लाठी और राइफलधारी पुलिस का घेरा होता। लोग आते रहे और कारवां चलता रहा। किसी आन्दोलन में नुक्कड़ काव्यपाठ का यह पहला प्रयोग था। ‘ दिनमान ‘ ( 23 जून से 3 जुलाई 1978 पृष्ठ 40 ) ने लिखा भी था कि ‘ जनसंघर्ष से सीधे जुड़ने के लिए कवियों की कोई टोली नुक्कड़ों पर आई हो इसका उल्लेख 1974 से पहले कहीं नहीं मिलता।…न चम्पारण सत्याग्रह के समय , न असहयोग आन्दोलन के समय, न नमक सत्याग्रह के समय , न सन् 1942 के आन्दोलन के समय।’ सचमुच यह कविता की सर्वथा नई भूमिका थी। कविता की भंगिमा बदली। कवि का आभिजात्य टूटा। नि:संदेह यह साहित्यिक प्रयोग पटना की धरती पर पहली बार हुआ।
बाबा नागार्जुन इन नुक्कड़ कवि गोष्ठियों में निरंतर भाग लेते रहे मगर उन्हें बिहार के सीवान जिले के पचरुखी गांव से तीन जून 1975 को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया । उनके साथ 11 और लोग गिरफ्तार किये गये थे। बाबा नागार्जुन लगभग सात महीने जेल में रहे। इसके बाद सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया। दरअसल बाबा नागार्जुन इमरजेंसी और केन्द्र सरकार की समर्थक पार्टी सीपीआई के करीब थे। प्रलेस जो सीपीआई का लेखक संगठन है , उसके लगभग सभी लेखक इमरजेंसी का समर्थन कर रहे थे । दूसरी ओर माकपा आन्दोलन के साथ थी । इस बीच एक नई बात यह हुई कि पता नहीं क्यों बाबा नागार्जुन का जेल में आन्दोलन से अचानक मोहभंग हो गया और सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया। जेल से रिहा होकर बाबा ने आन्दोलन और इसमें शामिल लोगों के बारे में अमर्यादित वक्तव्य भी दिया और बाद में चलकर ‘ खिचड़ी विप्लव देखा हमने ‘ शीर्षक कविता लिखी।
नुक्कड़ कवि गोष्ठी के प्रमुख चेहरे सत्यनारायण और गोपीवल्लभ सहाय बिहार सरकार की नौकरी में थे और परेश सिन्हा थे रेलवे के कर्मचारी । इन लोगों ने न तो नौकरी की परवाह की और न गिरफ्तारी की। निर्भय होकर वे तीनों इंदिरा सरकार को खुलकर चुनौती दे रहे थे । तीनों की गिरफ्तारी भले नहीं हुई मगर वे आन्दोलन में काफी सक्रिय थे। जेल जाने से पहले अपनी कविताओं में पटना के नुक्कड़ों पर नागार्जुन इंदिरा गांधी से सीधा सवाल कर रहे थे –
इंदिरा जी, इंदिरा जी क्या हुआ आपको/
सत्ता की मस्ती में भूल गईं बाप को ?
क्या हुआ आपको ?

तो सत्यनारायण पूछ रहे थे –
जुल्म का चक्कर और तबाही कितने दिन?
हम पर तुम पर सर्द सियाही कितने दिन?
यह गोली -बंदूक सिपाही कितने दिन?
बोलो भइया यह मनचाही कितने दिन?
आपातकाल के दौरान यह गीत भी उतना ही लोकप्रिय था जितनी नागार्जुन की कविता। गोपी वल्लभ के नुक्कड़ गीत भी तब खूब तालियां बटोरते थे। वे आह्वान करते थे —
‘ जहां – जहां जुल्मों का गोल/बोल जवानों हल्ला बोल।
नेताओं के चिकने चोल / काला चेहरा, उजला खोल…
खुलती जाती सबकी पोल/ बोल जवानों हल्ला बोल! ‘
गोपी वल्लभ जब नुक्कड़ों पर खड़े होकर दहाड़ते थे —
‘भूखे-प्यासे नंगे हम/ बोलो बम , बोलो बम! /
महंगी से नाकों में दम/ है कालाबाजार गरम / कहीं नहीं ईमान- धरम / लाज रही ना रही शरम /
थामे हुए तिरंगे हम / बोलो बम , बोलो बम!’
श्रोता भी उनके साथ- साथ गाने लगते थे और पटना के नुक्कड़- चौराहे तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठते थे। लालधुआं का नाम उस समय क्रांतिकारी कवियों में शुमार था। वे पूछते थे –
‘ इस उदास दिन की ड्योढ़ी पर/ चिमटा गाड़ गया है कौन ?
मरघट की मिट्टी उड़ती है/ झूला गाड़ गया है कौन?’
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर ‘ इस आन्दोलन में शामिल होने ही वाले थे कि मद्रास में अचानक रहस्यमय हालत में उनका निधन हो गया। मद्रास में ही ‘दिनकर’ ने आन्दोलन में शामिल होने की घोषणा की थी मगर घोषणा के दूसरे ही दिन 24 अप्रैल 1974 को वहीं हृदयाघात से उनका निधन हो गया। ‘ दिनकर ‘ जेपी आन्दोलन में सदेह सक्रिय भले नहीं थे मगर जेल में गहरी निराशा के समय मेरे जैसे आन्दोलनकारियों के लिए उनकी ओजपूर्ण कविता ‘ जयप्रकाश ‘ बहुत बड़ा संबल थी। हजारीबाग जेल में सेल में बंद होने से पहले हर शाम उनकी इस ओजपूर्ण कविता का सामूहिक गान होता था —-
सेनानी करो प्रयाण अभय भावी इतिहास तुम्हारा है।
ये नखत अमा के बुझते हैं सारा आकाश तुम्हारा है।…
वह सुनो भविष्य पुकार रहा, वह दलित देश का त्राता है।
स्वप्नों का द्रष्टा जयप्रकाश, भारत का भाग्य विधाता है।
आपातकाल का यह अर्द्धशती वर्ष है। बिहार आन्दोलन अब स्मृतिशेष है। मगर जेपी आंदोलन और इमरजेंसी में नुक्कड़ कवि गोष्ठियों में भाषा को बोली की चाशनी मिली। अपनी बोली – बानी में अपने लोगों से सीधे बोलती- बतियाती कविताएं मिलीं। खांटी मुहावरे मिले और वह धरातल मिला जिस पर कवि और श्रोता साथ – साथ खड़े दिखे। कविता और श्रोताओं की यह जनशक्ति ही थी कि अंततः इंदिरा जी को 1977 के मार्च में लोकसभा का चुनाव कराना पड़ा जिसमें वे खुद तो बुरी तरह हारीं ही , कांग्रेस भी हार गई और वे सत्ता से बेदखल हो गईं । सत्ता जब निरंकुश हो जाती है तो जनता उसका सिंहासन छीन लेती है। इमरजेंसी की अर्द्धशती पर राष्ट्रकवि ‘दिनकर’ हमें बार- बार याद आते हैं। ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ उनका यह नारा याद आता है।

Share This Article