प्रशांत रंजन (फिल्म अध्येता)
खबर है कि पटना में अपराधियों ने सरेआम फायरिंग की, तो बिहार पुलिस के एडीजी रैंक के अफसर ने अपराधियों को खदेड़कर पकड़ने की कोशिश की। हालांकि अपराधी पकड़ में नहीं आए, तथापि एडीजी साहब को एक सेल्यूट बनता है, क्योंकि आमतौर पर इतने ऊंचे स्तर के अधिकारी (नंबर- दो) को सड़क पर अपराधियों का पीछा करते देखना दुर्लभ होता है। इनके सूचना देने के बाद सीनियर एसपी ने फ्लैश मैसेज से अधीनस्थों को आदेश दिया। लेकिन, कप्तान के आदेश को किसी ने गंभीरता से नहीं लिया। लापरवाही करने वाले 14 पुलिसकर्मियों को अगले दिन निलंबित कर दिया गया। ऊपरी तौर पर देखने पर यह मामला प्रशासनिक असफलता का दिखता है, लेकिन मुझे यह प्रशासनिक असफलता के बजाय राजनीतिक विफलता दिखती है। अपराधियों को पकड़ने के लिए अगर पुलिसकर्मी गंभीर नहीं हैं, तो वे कौन से काम में गंभीर हैं?
पटना पुलिस को शराब खोजने, हेलमेट-सीटबेल्ट चेक करने और शहर के किसी भी कोने को मौखिक रूप से नो-एंट्री घोषितकर चालान काटने से फुर्सत हो, तब न पेट्रोलिंग करेगी या अपराधियों को पकड़ेगी। पटना पुलिस से अपराधी तो पकड़े नहीं जा रहे, बाकी एक निरीह नागरिक के वाहन को 6 कांस्टेबल ऐसे घेरकर खड़े होते हैं, जैसे उन्होंने कोई दुर्दांत अपराधी को दबोच लिया है। आप यकीन कीजिए, वाहन जांच के नाम पर सिविलियन्स को प्रताड़ित करना ही पटना पुलिस की रूटीन बन गई है। अरे कोई हेलमेट-सीटबेल्ट नहीं लगाया है तो चालान काटें, ओवर स्पीड या गलत दिशा में वाहन चला रहा है तो चालान काटें, नो-एंट्री का बोर्ड लगे स्थान पर भी वाहन पार्किंग कर दे तो चालान काटें, वाहन के कागजात सही नहीं हैं तो चालान काटें, इससे किसी को आपत्ति नहीं है।
लेकिन, कोई घर से वाहन लेकर निकले और गंतव्य पहुंचने से पहले पांच जगह पर सिपाही डंडे दिखाकर गाड़ी साइड में कराए और पेपर दिखाने के बाद भी 20 मिनट तक हुज्जत करे, तो इससे पुलिस की क्या छवि बनती है? कुछ समय पहले पटना पुलिस को सड़क किनारे खड़े वाहनों को टांगकर ले जाने का फितूर सवार हो गया था। अंततः न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा। यह कौन सी पुलिसिंग है भला!
बिहार के पुलिस प्रमुख क्यों नहीं अपने सिपाहियों और थानेदारों को समझाते हैं कि कोई नागरिक इलाज कराने, परीक्षा देने, व्यवसाय करने, परिजन को रेलवे स्टेशन छोड़ने या किसी अन्य जरूरी काम से जा रहा है, उसे अकारण रोककर परेशान न करें। पुलिस वालों के हाथ में अत्याधुनिक मशीनें हैं, जिनसे नंबर प्लेट का फोटो लेकर उस वाहन विशेष के सारे पेपर की जांच हो सकती है और गलत पाए जाने पर ऑनलाइन चालान भेजे जा सकते हैं। फिर, डंडे दिखाकर गाड़ी साइड कराने का क्या तुक है? बिना किसी अपराध के किसी नागरिक को डंडा दिखाना अपमानजनक है। कम से कम इसे सभ्य पुलिसिंग तो नहीं कहा जा सकता।
पटना पुलिस के रवैए को देखते हुए यह क्यों नहीं समझा जाए कि पुलिस अनुशासन बनाए रखने के लिए चालान नहीं काट रही, बाकी राजस्व संग्रह के लिए ताबड़तोड़ चालान काटती है। यातायात पुलिस द्वारा अवैध वसूली की शिकायत पर पिछले महीने की 17 तारीख को पटना के ट्रैफिक एसपी को उच्च न्यायालय में पेश होने का आदेश हुआ था। इसलिए, इसे साधारण मामला न समझा जाए।
यह नीतिगत समस्या प्रतीत होती है। यह केवल पुलिस का मुद्दा नहीं है, बल्कि यह राजनीतिक मुद्दा है। ‘ऊपर से आदेश’ टाइप से। क्या यह माना जाए कि शराबबंदी के कारण बिहार सरकार को प्रतिवर्ष हो रहे लगभग दस हजार करोड़ रुपए के राजस्व के नुकसान की भरपाई अन्यान्य तरीकों से करने के प्रयास हो रहे हैं, जिसमें चालान काटकर पैसा जमा करना भी शामिल है? कुछ दिन पहले एक झा जी पटना के ट्रैफिक एसपी हुए थे। आए दिन अखबार में उनका बयान छपता था, जिसमें अन्य कामों से अधिक कितने रुपए का चालान काटा गया, इसका जिक्र अधिक होता था। उनके बयानों की अखबार कटिंग एक साथ रख देने पर किसी को प्रतीत होता कि केवल चालान वसूलने के लिए ही सरकार ने नौकरी पर रखा है। इससे सवाल यह उठ रहा है कि क्या हमारी पटना पुलिस राजनीतिक दबाव में काम कर रही है?
राष्ट्रीय औसत के मुकाबले बिहार के पास पहले से ही पुलिस बल कम संख्या में है, फिर भी लॉ एंड ऑर्डर के काम को नजरअंदाज कर पुलिस बल को शराब खोजने और वाहन चालान काटने के लिए तैनात किया जा रहा है? आखिर क्या कारण है? ऐसे में प्रश्न तो खड़े होंगे ही। इसका जवाब बिहार के गृहमंत्री, जो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खुद हैं, को देना चाहिए। जब से वे सत्ता में आये हैं तब से पुलिस विभाग लगातार उन्हीं के पास रहा है फिर इतनी ढिलाई क्यों ?
आखिर बिहार पुलिस कहां व्यस्त है ?
