हाल की कुछ घटनाओं के चलते संसदीय कार्यवाही के लाइव टीवी प्रसारण पर सवाल उठने लगे हैं। संसदीय लोकतंत्र की गरिमा को बचाए-बनाए रखने वाले तबके में इसकी मांग उठने लगी है। इस वर्ग का मानना है कि अगर ऐसा नहीं किया गया, तो संसद की गरिमा घटेगी। अपने आचरण के चलते सांसदों का एक वर्ग लोगों की नजर में अपनी प्रतिष्ठा तो खो ही चुका है। लाइव प्रसारण के जरिये उनके मुखारविंद से जो शब्द संसद में झड़ रहे हैं, उससे स्थितियां उलझी हैं।इसे बिडबंना कहें या उलटबांसी कि जिस ब्रिटेन के हम करीब दो सौ साल तक गुलाम रहे, हमारा संसदीय लोकतंत्र भी उसी ब्रिटिश शासन प्रणाली की तरह है। वैसे शासन प्रणाली जो भी हो, अगर उसे अपना लिया, तो उसकी उच्च परंपराएं, उसकी गरिमा और मर्यादा को भी स्वीकार करना होगा। पूर्व उपप्रधानमंत्री देवीलाल कहा करते थे कि लोकतंत्र लोकलाज से चलता है। यानी महान परंपराओं और गरिमा को स्वीकार किए बिना कोई भी शासन सफल नहीं हो सकता। अगर लोक का भरोसा शासन प्रणाली से खत्म हो गया, तो उस प्रणाली पर सवालिया निशानों की झड़ी लग जाती है।
ब्रिटिश संसद में एक परंपरा है कि संसदीय कार्यवाही से हटाए गए शब्दों को न तो कभी उद्धृत किया जा सकता है और न ही उसे रिपोर्ट किया जा सकता है। जाहिर है कि हटाए गए शब्द अमर्यादित, तथ्यहीन और गरिमा के विरुद्ध होते हैं। जब तक टेलीविजन नहीं था, पत्रकारों को संसदीय इम्बार्गो और कार्यवाही की रिपोर्टिंग के मायने गहराई से समझाए जाते थे। संसद या किसी संसदीय समिति के बयान की जानकारी होने के बावजूद उसे तब तक सार्वजनिक नहीं किया जा सकता था, जब तक कि संसद या संसदीय समिति द्वारा तय की गई समय सीमा खत्म न होती थी। मियाद पूरी होने के बाद ही वह अखबार में छपता था। अखबारों के रिपोर्टर संसद की रिपोर्टिंग करते हुए सांसदों की उन बातों को भी सुनते ही थे, जिन्हें कार्यवाही से हटा दिया जाता था। लेकिन उनका उल्लेख वे अपनी रिपोर्टों में नहीं करते थे। इसका उद्देश्य था कि लोगों तक वही बातें पहुंचे, जो मर्यादित एवं तथ्यात्मक रूप से ठीक हों।
लाइव प्रसारण के चलते अब जनता तक वे सारी बातें भी पहुंच रही हैं, जो तथ्यहीन हैं, और जिन्हें संसदीय कार्यवाही से निकाल दिया जा रहा है। उदाहरण के लिए, राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा के दौरान विपक्ष के नेता राहुल गांधी के भाषण को रखा जा सकता है। उन्होंने अग्निवीर, फसलों पर एमएसपी आदि पर तथ्यहीन बातें कीं। चूंकि लाइव प्रसारण के कारण उन्हें संसद के लाइव प्रसारण देखने वाले सभी लोगों ने देखा और सुना। इसके बाद भले ही उनकी बातों को कार्यवाही से हटा दिया गया हो, लेकिन जनता के बीच संदेश तो पहुंच ही गया।
इसी तरह राज्यसभा में आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह को पदेन सभापति जगदीप धनखड़ ने कई बार टोका, लेकिन नहीं मानने पर उनके भाषण के हिस्सों को एक्सपंज किया जाता रहा। यह कोई पहला मौका नहीं था, जब लाइव प्रसारण के दौरान सांसदों के ऐसे कई बयान देखे-सुने गए। अब ऐसे वाकये अक्सर होने लगे हैं। दिलचस्प है कि जब सांसदों को रोका जाता है, तो वे इसे अपने प्रति दुर्भावना बताते हैं। आरोप लगाते हैं कि उनका माइक बंद कर दिया गया। राहुल गांधी ने भी अपने भाषण से हटाए गए शब्दों को रखने की मांग की है। मौजूदा दौर में हर सांसद चाहता है कि वह संसद में जो भी बोले, उसका प्रसारण हो, ताकि उसके वोटरों के बीच यह संदेश जाए कि उसका सांसद दमदार है और जनता के मुद्दों को संसद में उठाता है।
संसद की कार्यवाही का पहला प्रसारण 20 दिसंबर, 1989 को दूरदर्शन पर शुरू हुआ, तो शुरू में चुनिंदा संसदीय कार्यवाही को ही टीवी पर दिखाया गया। लेकिन 18 अप्रैल 1994 से लोकसभा की पूरी कार्यवाही को फिल्माया जाने लगा। उसी साल अगस्त में, कार्यवाही का सीधा प्रसारण शुरू किया गया। तीन नवंबर, 2003 को डीडी न्यूज लॉन्च होने पर दोनों सदनों के प्रश्नकाल का प्रसारण डीडी चैनलों पर एक साथ होने लगा।
संसदीय कार्यवाही के लाइव प्रसारण के इतिहास में दो घटनाएं बहुत याद की जाती हैं। जब अक्तूबर, 1990 में भाजपा द्वारा समर्थन वापसी के बाद वीपी सिंह सरकार अल्पमत में आ गई, तो उन्होंने संसद में विश्वास मत प्रस्तुत किया था। उस पर दो दिनों तक चली बहस का दूरदर्शन ने लाइव प्रसारण किया था। ‘अंतरात्मा की आवाज’ पर वीपी सिंह का सांसदों से समर्थन मांगना बेहद चर्चित रहा। दूसरी घटना तेरह दिन की वाजपेयी सरकार के विश्वास मत पर हुई चर्चा से संबंधित है। विश्वास मत पर चर्चा का जवाब देते हुए वाजपेयी ने जो भाषण दिया, उसे उनके कालजयी भाषणों में से एक माना जाता है। इससे उनकी लोकप्रियता काफी बढ़ी। इसके बाद से ही संसदीय बहसों में शामिल होते ही सांसद लाइव प्रसारण में दिखने की इच्छा पालने लगे।
साल 2004 में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की पहली सरकार आई। तब लोकसभा अध्यक्ष मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सोमनाथ चटर्जी बने। उन्होंने संसदीय कार्यवाही के प्रसारण के लिए दो चैनलों का विचार दिया। दिसंबर, 2004 में दोनों सदनों की कार्यवाही के सीधे प्रसारण के लिए एक अलग समर्पित सैटेलाइट चैनल की स्थापना की गई। 2006 में लोकसभा टीवी ने निचले सदन की कार्यवाही का सीधा प्रसारण शुरू किया। लेकिन राज्यसभा टीवी की शुरुआत उस दौर के नेता प्रतिपक्ष और सभापति के बीच मतभेदों के चलते नहीं हो पाई। जब हामिद अंसारी उपराष्ट्रपति बने, तो 2011 में राज्यसभा टीवी के लिए अलग से चैनल की शुरुआत हुई। एक मार्च, 2021 को लोकसभा और राज्यसभा-दोनों चैनलों को एक करके संसद टीवी बना दिया गया। जब से संसद टीवी बना है, तब से कुछ ज्यादा ही विवाद उठ रहे हैं।
लोकसभा टीवी अपने प्रसारण के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए लिखता है कि वह जीवंत लोकतंत्र के विभिन्न पहलुओं को निष्पक्ष प्रस्तुत करने के लिए प्रतिबद्ध है। लेकिन सवाल यह है कि क्या तथ्यों से रहित वक्तव्यों के प्रसारण को निष्पक्षता के दायरे में रखा जा सकता है! संसदीय बहसों के संदर्भ में मीडिया निरपेक्षता संभव नहीं है। ऐसे में क्यों न संसदीय बहसों की पहले रिकॉर्डिंग हो और फिर संसदीय मर्यादाओं के लिहाज से उन्हें संपादित करके प्रसारित किया जाए?