उमेश चतुर्वेदी
(वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार)
इसे राजनीतिक विद्रूप ही कहेंगे कि हिंदी को राजभाषा बनाने का विचार देने वाली मराठी माटी पर ही हिंदीभाषियों को अपमानित किया जा रहा है। महाराष्ट्र की धरती पर हिंदीभाषियों को अपमानित करने में राजनीति के दो चेहरे साफ नजर आ रहे हैं। एक तरफ अपमानित करने वाली शिवसेना और महाराष्ट्र नव निर्माण सेना यानी मनसे है तो दूसरी तरफ राज्य की सत्ता है। हिंदीभाषियों को अपमानित करने वाली राजनीति का मकसद हिंदी विरोध पर मराठी मानुष की अवधारणा को आगे बढ़ाते हुए अपना वोट बैंक मजबूत करना है तो दूसरी तरफ सत्ता और विपक्ष के एक हिस्से की राजनीति है, जो अपमानित करने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई इस डर से नहीं कर रही कि कहीं इससे मराठी मानुष की धारणा कमजोर ना हो जाए और उसके जरिए उसका अपना समर्थक आधार ना खिसक जाए। राजनीति की इस चक्करघिन्नी में निम्न मध्यवर्गीय या हाशिये वाला हिंदीभाषी समुदाय ही पिस रहा है। उसका अपराध यह है कि वह महाराष्ट्र में रहते हुए मराठी ना बोलकर हिंदी बोल रहा है।
हिंदी बोलने के लिए हिंदीभाषियों को प्रताड़ित करने वाली राजनीति का अतीत भी ऐसा ही रहा है। शिवसेना का उभार पिछली सदी के साठ के आखिरी वर्षों में मुंबई में मलयालम बोलने वालों को खिलाफ आंदोलन के बाद हुआ। मनसे के कार्यकर्ता 2008-09 के दौरान तो केंद्रीय नौकरियों के लिए मुंबई में परीक्षाएं देने आए उत्तर भारतीय विशेषकर उत्तर प्रदेश-बिहार के छात्रों को को खुलेआम पिटते रहे। उस समय की राज्य सरकार ने इस बदसलूकी के खिलाफ प्रभावी कदम उठाने से बचती रही थी और आज की सरकार का भी कुछ वैसा ही रवैया है। मराठी मानुष का बोध महाराष्ट्र्र में इतना गहरा है कि सरकारें चाहें जिस भी दल की हो, इस मसले पर तकरीबन एक जैसा रूख अपनाने से परहेज नहीं करतीं।
भारत की संपर्क भाषा और राजभाषा के रूप में हिंदी को स्थापित करने का विचार देने में महाराष्ट्र की हस्तियों का बड़ा योगदान रहा है। लोकमान्य तिलक ने बंग-भंग के वक्त 1905 में वाराणसी की यात्रा की थी। वहां उन्होंने नागरी प्रचारिणी सभा के एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए जो कहा था, उसे महाराष्ट्र की हिंदीविरोधी राजनीति को जानना चाहिए। तिलक ने कहा था, ‘नि:संदेह हिंदी ही देश की संपर्क और राजभाषा हो सकती है। लोकमान्य अकेले मराठी मानुष नहीं हैं, जिन्होंने हिंदी को लेकर यह विचार दिया। 1960 से पहले आज का गुजरात राज्य भी महाराष्ट्र का ही हिस्सा था। 1880 में गुजराती कवि नर्मदाशंकर दवे उर्फ नर्मद कवि ने लोकमान्य से करीब चौथाई सदी पहले हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में आगे लाने का सुझाव दिया था।
हिंदी को स्थापित करने की महात्मा गांधी की कोशिशों से भला कौन इनकार कर सकता है। 1918 में गांधी जी की अध्यक्षता में हुए इंदौर के हिंदी साहित्य सम्मेलन को हर हिंदीप्रेमी जानता है। लेकिन बहुत कम लोगों को पता है कि गांधी जी ने 1917 में भरूच में आयोजित गुजरात शैक्षिक सम्मेलन में पहली सार्वजनिक तौर पर हिंदी की ताकत को स्वीकार किया था। उन्होंने कहा था, “भारतीय भाषाओं में केवल हिन्दी ही एक ऐसी भाषा है जिसे राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाया जा सकता है।” हिंदी के प्रचार को राष्ट्रीय कार्यक्रम मानने वाले काका कालेलकर भी मराठी भाषी ही थे। सतारा में जन्मे कालेलकर ने 1938 में कहा था, ‘राष्ट्रभाषा प्रचार हमारा राष्ट्रीय कर्म है।’ रचनात्मक आंदोलनकारी और गांधी जी के शिष्य विनोबा भी ताजिंदगी हिंदी के संघर्षरत रहे। उन्होंने हर भारतीय भाषा को एक-दूसरे के करीब लाने के लिए अनूठा सुझाव दिया था। उन्होंने हर भाषा से नागरी लिपि अपनाने का सुझाव दिया था।
सिर्फ राजनीति ही नहीं, पत्रकारिता जगत की मराठीभाषी हस्तियों ने भी हिंदी को स्थापित करने में रचनात्मक भूमिका निभाई है और साहस दिखाया है। हिंदी पत्रकारिता आज जिस मुकाम पर है, उसमें बड़ा योगदान मराठीभाषी पत्रकारों और लेखकों का भी है। माधव राव सप्रे, बाबूराव विष्णुराव पराड़कर, रामकृष्ण खाडिलकर, लक्ष्मण नारायण गर्दे जैसे पत्रकारों ने हिंदी को नई शैली में गढ़ा, उसके शब्द गढ़े, और उसे ऊंचाई दी। हिंदी इन मराठीभाषी महात्मनों की शुक्रगुजार है। महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई से निकले धर्मयुग ने दशकों तक हिंदीभाषी पाठकों के दिलों पर राज किया। ऐसे महाराष्ट्र की धरती पर अगर हिंदी बोलने वालों का अपमान होना दुखद ही कहा जाएगा।
हिंदी को लेकर महाराष्ट्र की धरती पर अतीत में ऐसी सोच नहीं रही है। हिंदी विरोध की ग्रंथि तमिलनाडु में आजादी के पहले से ही रही है, जिसका संक्रमण कर्नाटक तक पहुंचा है। कर्नाटक रक्षण वेदिके ने 2017 में हिंदी बेड़ा अभियान यानी हिंदी विरोधी अभियान चलाया। साल 2019 में हिंदी दिवस न मनाने के लिए भी राज्य में अभियान चला। शुरू में इन विरोध प्रदर्शनों को बड़ा समर्थन नहीं मिला। राजनीति और मीडिया के हलकों में इसकी सुरसुरी दिखी। ऐसे आंदोलनों का असर बाद में पता चलता है। जब विरोध की वैचारिकी के असर में जमीनी स्तर की सोच बदलने लगती है। एक राष्ट्रीयकृत बैंक की स्थानीय शाखा के प्रबंधक से जबरदस्ती हिंदी बोलने के लिए हुज्जत करने का दृश्य हो या फिर किसी ऑटोवाले का किसी हिंदीभाषी लड़की को थप्पड़ मारना, कर्नाटक में हिंदी विरोधी आंदोलन की जमीनी परिणति ही कहा जाएगा।
निजाम का शासन कर्नाटक के उत्तरी हिस्से में रहा। दिल्ली सल्तनत के बादशाह मोहम्मद तुगलक ने 1327 ईस्वी में दिल्ली से महाराष्ट्र के दौलताबाद में अपनी राजधानी लेकर गया था। जिसे आज का महाराष्ट्र देवगिरि के नाम से जानता है। उसके साथ भी हिंदी वहां तक पहुंची थी। महाराष्ट्र का विदर्भ इलाका राज्य पुनर्गठन से पहले मध्य प्रांत और बरार का हिस्सा रहा। इस वजह से विदर्भ भी मोटे तौर पर हिंदी के प्रभाव वाला राज्य है। शायद यही वजह रहा कि महाराष्ट्र में हिंदी को लेकर विवाद नहीं रहा। विवाद की वजह अब मनसे और शिवसेना की राजनीति बनी है। इसका कारण नई शिक्षा नीति का वह प्रावधान है, जिसके तहत प्राथमिक स्तर पर भारतीय भाषायों के जरिए शिक्षा देने का प्रावधान है। इसके तहत जब प्राथमिक स्तर पर हिंदी में पढ़ाई कराने का आदेश आया तो राज्य की राजनीति में अपनी जगह खोज रहे शिवसेना-उद्धव और मनसे को हिंदी विरोध में ही अपना भविष्य नजर आया। एकनाथ शिंदे के अलग होने के बाद से शिवसेना-उद्धव भी परेशान है और शिवसेना से अलग होने के बाद से मनसे प्रमुख राज ठाकरे अपना राजनीतिक वजूद की खोज में हैं। दिलचस्प यह भी है कि अतीत में सत्ता और उत्तराधिकार के चलते अलग राह चुनने वाले दोनों चचेरे भाई उद्धव और राज एक कश्ती पर सवार होने की तैयारी में है और उसके लिए उन्होंने हिंदी विरोध की नाव तैयार की है।
हिंदी विरोध के जरिए राष्ट्रीय मानस पर चोट
