राष्ट्रीय सुरक्षा और कूटनीति : बालाकोट से ऑपरेशन सिंदूर तक

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डॉ. संतोष कुमार सुमन
(मंत्री, लघु जल संसाधन, विभाग, बिहार सरकार)
राष्ट्रीय सुरक्षा किसी भी संप्रभु राष्ट्र की प्राथमिकता होती है। भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में, जहां राजनीतिक विविधता और जनमत की स्वतंत्रता लोकतंत्र की आत्मा हैं। यह अपेक्षा की जाती है कि राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर सभी राजनीतिक दल एकजुट हों। दुर्भाग्यवश ऐसे गंभीर विषयों पर भी राजनीति होने लगी है। विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर के ऑपरेशन सिंदूर पर दिए गए बयान को लेकर जो विवाद खड़ा हुआ, उसने इस संवेदनशीलता की सच्चाई को सामने लाकर रख दिया। इस लेख में हम 2019 के बालाकोट एयर स्ट्राइक, 2025 के ऑपरेशन सिंदूर, और 1971 के युद्ध में इंदिरा गांधी की भूमिका को संदर्भ बनाकर यह समझने की कोशिश करेंगे कि कूटनीति और रणनीति को राजनीति से ऊपर क्यों रखना चाहिए।

बालाकोट एयर स्ट्राइक—कूटनीति, साहस और संयम का त्रिकोण
14 फरवरी 2019 को पुलवामा में सीआरपीएफ के काफिले पर हुए आत्मघाती हमले ने देश को हिला दिया। यह हमला जैश-ए-मोहम्मद द्वारा किया गया था, जिसका मुख्यालय पाकिस्तान में स्थित था। इसके जवाब में भारत ने 26 फरवरी 2019 को पाकिस्तान के बालाकोट में स्थित आतंकी ठिकानों पर एयर स्ट्राइक की। यह एक साहसी कदम था, जिसने भारत की आतंकवाद के प्रति जीरो टॉलरेंस नीति को स्पष्ट कर दिया। लेकिन यह भी उतना ही महत्वपूर्ण था कि इस स्ट्राइक को एक सीमित कार्रवाई के रूप में प्रस्तुत किया गया। भारत ने स्पष्ट किया कि उसका लक्ष्य केवल आतंकी ठिकाने हैं, पाकिस्तान की सेना या नागरिक नहीं। यह संतुलन ही भारत की परिपक्व कूटनीति का प्रतीक था। विश्व समुदाय ने भारत की इस कार्रवाई को जिम्मेदार और संतुलित माना, और पाकिस्तान पर आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई का दबाव बढ़ा।

ऑपरेशन सिंदूर 2025—एक आधुनिक कूटनीतिक कदम
‘ऑपरेशन सिंदूर’ का उद्देश्य पाकिस्तान में मौजूद आतंकी ठिकानों को समाप्त करना था। भारत ने अपने इरादे स्पष्ट करते हुए पाकिस्तान को यह संदेश दिया कि हमला केवल आतंकियों पर है, न कि पाकिस्तानी सेना या नागरिकों पर। विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर ने बयान दिया: हमने पाकिस्तान को एक संदेश भेजा कि हम आतंकवादी ठिकानों पर हमला कर रहे हैं, पाकिस्तानी सेना पर नहीं। इसलिए सेना के पास इस प्रक्रिया से बाहर रहने का विकल्प है।
इस बयान का उद्देश्य स्पष्ट था—युद्ध की संभावना को टालना, पाकिस्तान की सेना को तटस्थ रहने का अवसर देना, और अंतरराष्ट्रीय समुदाय को यह दिखाना कि भारत एक जिम्मेदार शक्ति है। हालांकि विपक्ष ने इसे ‘पाकिस्तान को पूर्व सूचना’ बताकर विवाद खड़ा किया। यह समझना आवश्यक है कि यह एक सामान्य कूटनीतिक प्रक्रिया है, जिसे अमेरिका, इजराइल, फ्रांस जैसे देश भी अपनाते हैं।

इंदिरा गांधी का 1971 का निर्णय
1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान, भारत ने एक निर्णायक विजय हासिल की, जिसके परिणामस्वरूप बांग्लादेश का निर्माण हुआ। इस युद्ध में 93,000 पाकिस्तानी सैनिकों ने आत्मसमर्पण किया, जो कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सबसे बड़ा सैन्य आत्मसमर्पण था। इस युद्ध के दौरान, भारतीय सेना ने पाकिस्तान के कुछ क्षेत्रों पर कब्जा किया, जिनमें गुजरात के कच्छ ज़िले से सटे सिंध प्रांत के इलाके शामिल थे। ऐसा माना जाता है कि भारतीय सेना ने खोखरापार जैसे महत्वपूर्ण इलाकों पर कब्जा कर लिया था, जो गुजरात सीमा के पास स्थित है। जब 1972 में इंदिरा गांधी और जुल्फिकार अली भुट्टो के बीच शिमला समझौता हुआ, तब भारत के पास मजबूत सैन्य और रणनीतिक स्थिति थी — न केवल पाकिस्तानी ज़मीन पर कब्जा था, बल्कि 93,000 पाकिस्तानी युद्धबंदी भी भारत के पास थे। इसके बावजूद, इंदिरा गांधी ने वह ज़मीन लौटाने और सभी पाकिस्तानी सैनिकों को रिहा करने का निर्णय लिया, जिसे शांति और सद्भावना के प्रतीक के रूप में देखा गया।
इस निर्णय की उस समय काफी आलोचना भी हुई। कई लोगों का मानना था कि भारत इस सैन्य जीत का उपयोग कश्मीर मुद्दे को सुलझाने के लिए कर सकता था। लेकिन इंदिरा गांधी ने स्थायी शांति और अंतरराष्ट्रीय कूटनीति को प्राथमिकता दी। इंदिरा गांधी जानती थीं कि स्थायी शांति बल से नहीं, समझदारी से आती है। उनके इस निर्णय की उस समय आलोचना भी हुई, लेकिन आज इतिहास यह स्वीकार करता है कि उन्होंने भारत की वैश्विक छवि को एक शांतिप्रिय, न्यायप्रिय और ज़िम्मेदार राष्ट्र के रूप में स्थापित किया। खोखरापार जो भारत के कब्जे में था, उसे भी लौटा दिया। यह निर्णय उस समय भी विवादास्पद रहा। आलोचकों ने कहा कि भारत ने बिना किसी ठोस कारण के इतना बड़ा रणनीतिक लाभ गंवा दिया। लेकिन इंदिरा गांधी के समर्थकों ने इसे एक मानवीय, शांतिपूर्ण और वैश्विक छवि को मजबूत करने वाला कदम बताया। यह निर्णय भारत की नीति में संतुलन, विवेक और वैश्विक जिम्मेदारी का प्रतीक बन गया।
हालांकि यह भी सच है कि पाकिस्तान ने इसके बाद भी आतंकवाद का रास्ता नहीं छोड़ा। इसलिए आज जब हम ऑपरेशन सिंदूर जैसे कदमों की बात करते हैं, तो 1971 से मिली सीख भी हमारे दृष्टिकोण को प्रभावित करती है।

विपक्ष की भूमिका राष्ट्रहित के साथ हो
विपक्ष का काम सरकार की आलोचना करना है। यह लोकतंत्र की आत्मा है। लेकिन जब राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मुद्दों पर केवल राजनीतिक लाभ के लिए बयानों को तोड़ा-मरोड़ा जाए, तो यह दुर्भाग्यपूर्ण होता है। डॉ. जयशंकर के बयान पर विपक्षी नेताओं ने जिस तरह से प्रतिक्रिया दी, वह बताता है कि राजनीतिक रणनीति, राष्ट्रहित पर भारी पड़ रही है। राहुल गांधी ने कहा: ऑपरेशन शुरू होने से पहले पाकिस्तान को सूचित करना एक अपराध है। जबकि विदेश मंत्रालय ने स्पष्ट किया कि यह संदेश ऑपरेशन के आरंभिक चरण में भेजा गया था, न कि पहले। इसका मकसद केवल पाकिस्तान की सेना को यह बताना था कि वे अगर शामिल नहीं होते, तो उन पर हमला नहीं होगा। यह एक संयमित और रणनीतिक कदम था।
बालाकोट से लेकर ऑपरेशन सिंदूर तक, भारत ने यह स्पष्ट किया है कि वह आतंकवाद के विरुद्ध कठोर, लेकिन विश्व समुदाय के प्रति उत्तरदायी है। यही कारण है कि अमेरिका, फ्रांस, जापान और अन्य देशों ने भारत की इन कार्रवाइयों का समर्थन किया। आज भारत जी 20 की अध्यक्षता कर रहा है। क्वार्ड का अहम सदस्य है, और ब्रिक्स और एससीओ जैसे मंचों पर प्रभावशाली भूमिका निभा रहा है। ऐसे में भारत की हर सैन्य और कूटनीतिक कार्रवाई वैश्विक नजरों में होती है। डॉ. जयशंकर का बयान भी इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए, कि भारत न केवल बल प्रयोग करता है, बल्कि कूटनीतिक संतुलन भी बनाए रखता है।

क्या कूटनीति कमजोरी है? इस प्रश्न का उत्तर इतिहास में छिपा है। जब अमेरिका ने इराक में कार्रवाई की, तो उसने पहले अंतरराष्ट्रीय समुदाय को विश्वास में लिया। इजराइल हमास के आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई करता है। भारत भी यही कर रहा है। कूटनीति कमजोरी नहीं, बल्कि संयम और सूझबूझ का प्रमाण होती है। जयशंकर का बयान यह दिखाता है कि भारत अब केवल प्रतिक्रियावादी नहीं, बल्कि रणनीतिक रूप से सक्रिय राष्ट्र है। जब सुरक्षा और रणनीति जैसे विषय राजनीति के अखाड़े में आ जाते हैं, तो राष्ट्रीय हित हाशिए पर चले जाते हैं। चुनावी लाभ के लिए राष्ट्र की सुरक्षा पर सवाल उठाना, सैनिकों के मनोबल को प्रभावित करता है और विश्व में देश की साख को कमजोर करता है। राष्ट्रीय सुरक्षा और कूटनीति को राजनीति से ऊपर रखना अब विकल्प नहीं, अनिवार्यता है। भारत का लोकतंत्र तभी मजबूत होगा जब हम राष्ट्रीय हितों पर एकजुट होंगे, और जब नेता, चाहे सत्ता में हों या विपक्ष में, राष्ट्र को सर्वोपरि मानेंगे। आज भारत को यशस्वी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में जयशंकर जैसे रणनीतिकारों की आवश्यकता है।

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