श्यामा प्रसाद मुखर्जी की तरफ देखने की जरुरत श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जयंती पर विशेष

6 Min Read

प्रेम कुमार मणि (साहित्यकार और विश्लेषक )
6 जुलाई भारत में हिन्दू राजनीति के संस्थापक श्यामाप्रसाद मुखर्जी का जन्मदिन है. 1901 में उनका जन्म बंगाल के एक सुशिक्षित परिवार में हुआ था. उनके पिता सर आशुतोष मुखर्जी ब्रिटिश भारत में जज थे. मुखर्जी से मैं कभी प्रभावित नहीं हुआ. लेकिन उन्हें समझने की कोशिश जरूर की. उनकी कुछ बातों से मेरी सहमति भी है. लेकिन कुल मिला कर उनकी हिन्दू राजनीति का मैं आलोचक रहा. जैसे जिन्ना की मुस्लिम राजनीति का रहा. लेकिन दोनों के आत्मसंघर्ष को जरूर समझना चाहा. चीजें यूँ ही नहीं प्रकट होतीं. कुछ कारण होते हैं. इन दोनों व्यक्तित्वों के पीछे जो कारण तत्व थे, उन्हें समझना चाहिए. इससे वर्तमान और भविष्य के कुछ प्रश्नों के जवाब मिल सकते हैं.
मुखर्जी का बंगाल हिन्दू नवजागरण का प्रान्त भी रहा है. बंकिमचंद्र वहीं हुए. आनंदमठ वहीं लिखा गया. आनंदमठ का कथानक हिन्दू नवजागरण को समझने के लिए एक कुंजी है. बंगाल में अंग्रेजों ने पहली दफा मुस्लिम शासक सिराज के शासन को बदल दिया था. प्लासी युद्ध भारत में मुस्लिम शासन के अंत का आरम्भ था. आनंदमठ में हिन्दू सन्यासी दल मुस्लिमों के खिलाफ गोलबंद होते हैं. संघर्ष करते हैं और मुस्लिम राज का अंत हो जाता है. इन सब के बाद उपन्यास में दिव्य पुरुष प्रकट होते हैं और उनसे जब सन्यासी श्रेष्ठ पूछता है कि क्या अब मातृभूमि की रक्षा के लिए अंग्रेजों से युद्ध किया जाय ; तब दिव्य पुरुष का जवाब होता है, नहीं, अंग्रेज मित्र राजा हैं. अंग्रेजों से कुछ ऐसा ही मित्र भाव महाराष्ट्र के जोतिबा फुले का भी है. अन्य उत्पीड़ित समूहों जैसे दलितों और आदिवासियों ने भी अंग्रेजों से मित्र भाव का अनुभव किया. डॉ आम्बेडकर में भी यह भाव देख सकते हैं.
लेकिन हम बंगाल पर लौटें. बंगाल में हिन्दू-मुस्लिम आबादी लगभग बराबर की थी. कोलकाता में हिन्दू प्रबल थे और ढाका में मुस्लिम. कोलकाता अंग्रेजों द्वारा बसाया नगर था. नवजागरण का केंद्र कोलकाता ही था. अनुशीलन समिति ठीक उस साल स्थापित हुई जिस साल श्यामा प्रसाद का जन्म हुआ. उनसे आगे-पीछे कोलकाता के सांस्कृतिक-सामाजिक- राजनीतिक कल्लोल को जानना दिलचस्प हो सकता है. भारतीय इतिहास के आधुनिक पाठ में दृष्टिकोण का दारिद्र्य रहा है. अतएव हम अनेक गुत्थियों को समझने में अक्षम रहे हैं.
श्यामा प्रसाद मूलतः शिक्षाविद थे. लगभग तीस साल की छोटी उम्र में कोलकाता विश्वविद्यालय के कुलपति बन गए. उनके कार्यकाल में एक बार रवीन्द्रनाथ टैगोर को विश्वविद्यालय में बोलना था. उन्होंने कुलपति को पत्र लिख कर बंगला में बोलने की इजाजत मांगी. कुलपति ने इजाजत नहीं दी. ऐसे कड़े प्रशासक थे.
अपने सामाजिक सोच में श्यामा प्रसाद जी हिन्दू महासभा के साथ थे. 1948 तक वह हिन्दू महासभा के अध्यक्ष थे. नेहरू के प्रधानमंत्री बनने पर उनके मंत्रिमंडल में भी शामिल किए गए. धर्म के आधार पर भारत बंटवारे के समय उन्होंने आबादी के स्थानान्तरण का मामला जोर-शोर से उठाया. उनके इस प्रस्ताव को गंभीरता से नहीं लिया गया. इसी के कारण दर्दनाक हिंसा हुई और लाखों लोग तबाह हुए.
यह स्थानांतरण हो जाता तो हिंसा कम होती. यूँ भी पाकिस्तान से हिन्दुओं का पलायन तो हो ही गया. आज पाकिस्तान में हिन्दुओं की संख्या नगण्य है. बंगला देश, जो तब पूर्वी पाकिस्तान था में 28 फीसद हिन्दू थे आज 7 फीसद हैं. पूरे भारतीय उपमहाद्वीप की धार्मिक डेमोग्राफी में हिन्दू 68 फीसद से घट कर 59 फीसद रह गए और मुस्लिम 22 फीसद से बढ़ कर 34 फीसद हो गए. यहीं आकर श्यामा प्रसाद मुखर्जी याद आते हैं. श्याम प्रसाद मुखर्जी ही थे जिन्होंने भारतीय जनसंघ की स्थापना की. वह चाहते थे कि हिन्दू हितों की राजनीति हो. उन्होंने इसके लिए गुरु गोलवलकर से संपर्क किया. गुरु दुविधा में थे. बावजूद उन्होंने संघ के पांच लोगों को जनसंघ में काम करने केलिए दिया. अटल बिहारी इसमें नहीं थे. अटल बिहारी मुखर्जी के निजी सहायक के तौर पर रहे थे. मुखर्जी केवल 53 साल की अल्पायु में दिवंगत हो गए. संदिग्ध स्थितियों में उनकी मौत कश्मीर में हुई. वह कश्मीर में भारत से अलग तरह के विधान और तौर तरीकों के खिलाफ थे.
मैं देश और दुनिया की बदलती हुई स्थितियों में भारतीय राजनीति की समीक्षा का प्रस्तावक हूँ. अब धर्म, जाति और विचार के पुराने औजारों से काम नहीं चलेगा. आज समग्रता में हमें सोचना होगा. एकांगी विचार हमें अँधेरी गुफाओं में पहुंचा सकते हैं. ऐसे में हम श्यामा प्रसाद मुख़र्जी के विचारों को भी देखना चाहेंगे. न उन्हें पूरी तरह स्वीकार किया जाना चाहिए, न पूरी तरह इंकार. वह भी भारतीय थे, हैं और रहेंगे.

Share This Article