
मराठी की एक कहावत में गढ़ जीतने को अहम तो बताया गया है, लेकिन गढ़ की जंग में अगर सेनापति का बलिदान हो जाता है तो उस जीत को भी बड़ा नहीं माना जाता। इसी मराठी कहावत की तर्ज पर दिल्ली की सियासी जंग को अरविंद केजरीवाल के संदर्भ में देखें तो कह सकते हैं कि गढ़ तो गया ही, सिंह यानी सेनापति भी नहीं रहा। अलग तरह की वैकल्पिक राजनीति और उसके जरिए आम लोगों को खुशहाल और नए तरह के भविष्य का सपना दिखाकर राजनीति में आए अरविंद केजरीवाल के लिए दिल्ली विधानसभा में बहुमत एक तरह से गढ़ यानी किला ही था।
अरविंद केजरीवाल वह किला अब खो चुके हैं और उनके लिए चिंता की बात है कि खुद उनके साथ उनके सेनापति इस जंग में खेत रहे हैं। तो क्या यह मान लिया जाए कि आंदोलन से उपजी राजनीति के दौर का खात्मा तय है? अभी तो यह मान लेना कि आम आदमी पार्टी खत्म हो जाएगी, थोड़ी जल्दबाजी होगी। लेकिन अतीत के उदाहरणों को देखें तो साफ लगता है कि केजरीवाल के लिए राह अब आसान नहीं रही।
अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के साथ उभरी आम आदमी पार्टी ने अलग तरह की राजनीति देने का वादा किया था। अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को लेकर लोगों को कितनी उम्मीदें थीं कि अन्ना का अनशन तो दिल्ली में हो रहा था, लेकिन उसके समर्थन में राजस्थान के रेतीले इलाकों में इक्का-दुक्का घरों के साथ बसी ढाणियों, झारखंड-छत्तीसगढ़ के सुदूर जंगलों, पानीपत से लेकर मोतिहारी, कच्छ लेकर अरूणाचल प्रदेश तक, शायद ही कोई शहर या गांव रहा होगा, जहां मोमबत्तियां न जली हों। ये मोमबत्तियां दरअसल नए भारत की अंजोरियाभरी राह का सपना थीं।
आम आदमी पार्टी का जब गठन हुआ तो लोगों को उम्मीद थी कि उसके जरिए देश और उनकी जिंदगी में ऐसा प्रकाश फैलेगा, जिसमें उनके, उनकी संततियों और उनके देश का भविष्य उज्ज्वल होगा। इस उम्मीद और सपने को 2015 और 2020 के विधानसभा चुनावों में दिल्ली की जनता ने भरपूर साथ दिया। पहली 54.3 प्रतिशत वोट और 67 सीटें तो दूसरी बार 53.57 प्रतिशत वोट और 62 सीटें देना एक तरह से बेहतर और चमकीले सपनीले भविष्य को लेकर जनाकांक्षाओं का उफान था। कभी बंगला और गाड़ी न लेने, वीआईपी कल्चर को न अपनाने के वायदे के साथ राजनीति में आए केजरीवाल धीरे-धीरे इसी जनाकांक्षा को भूलते चले गए। दूसरे कार्यकाल में तो वे तानाशाह की तरह खुद को स्थापित करते गए। झूठ और फरेब की राजनीति को ही उन्होंने अपनी सियासी आदत बना लिया। पंजाब में आम आदमी पार्टी की भारी जीत के बाद जैसे उनका खुद पर नियंत्रण नहीं रहा। आम आदमी पार्टी में सिर्फ उनकी ही चलती थी। लोकतंत्र का मुखौटा भी वहां नहीं रह गया था। वैसे भी आम आदमी पार्टी को पहली आर्थिक मदद देने वाले प्रशांत भूषण,. वैचारिक आधार तैयार करने वाले योगेंद्र यादव और प्रोफेसर आनंद कुमार के साथ ही अपने साथी रहे कुमार विश्वास को पार्टी से पहले ही बाहर कर चुके थे। उनके साथ रहे उनके आंदोलन के दिनों के साथी मनीष सिसोदिया और स्वाति मालीवाल। हालांकि उनके शासन के आखिरी दिनों में जिस तरह स्वाति की मुख्यमंत्री के घर में ही पिटाई हुई, उसने केजरीवाल के स्वभाव की एक तरह से कलई खोल दी।
केजरीवाल ने अपने पहले कार्यकाल में बेशक अच्छे कार्य किए। मोहल्ला क्लीनिक का विचार दिया और उसे लागू किया। शिक्षा और स्वास्थ्य का बजट बढ़ाया, दो सौ यूनिट तक बिजली और एक सीमा तक पानी मुफ्त दिया।
महिलाओं को फ्री में बस यात्रा की सहूलियत दी। लेकिन इसके साथ ही दिल्ली में भ्रष्टाचार बढ़ता गया। दो साल पहले के चुनाव में नगर निगम पर भी उनका कब्जा हो गया। इसके पहले दिल्ली की सफाई व्यवस्था के लिए नगर निगम पर अपना नियंत्रण ना होने का बहाना बनाते रहे थे, लेकिन अब वह बहाना भी नहीं रहा। फिर भी दिल्ली गंदी होती चली। दिल्ली की लाइफ लाइन मानी जाने वाली डीटीसी के बेड़े से बसें कम होती चली गईं।
केजरीवाल के दौर में हवा-हवाई घोषणाएं खूब हुईं। इसकी वजह से उनसे फायदा लेने वाले लोग भी खुश नहीं थे। डीटीसी के कर्मचारियों, बसों में तैनात मार्शलों आदि को स्थायी नौकरियां देने का वादा कर चुके केजरीवाल उन्हें नौकरियां नहीं दे पाए। शुरू में उनकी बहानेबाजी तो चली,लेकिन बाद में लोगों ने समझना शुरू कर दिया कि वे सिर्फ हवा-हवाई दावे करते हैं और बहानेबाजी के जरिए खुद को बचा ले जाते हैं। 2022 में पंजाब में हुए विधानसभा चुनाव में उन्होंने महिलाओं को हजार रूपए महीने देने का वादा किया था, लेकिन अब तक उन्हें यह रकम नहीं दे पाए।
पंजाब रोडवेज की बसों में महिलाओं को फ्री सहूलियत देने के चलते पंजाब रोडवेज घाटे में है। इसकी वजह से महीनों तक कर्मचारियों को तनख्वाह नहीं मिल रही। सूचना और संचार क्रांति के दौर में ये सारी बातें दिल्ली की जनता तक पहुंचती रहीं। इसका असर यह हुआ कि केजरीवाल से लोगों का भरोसा खत्म हो गया।
पिछले दो चुनावों तक केजरीवाल नैरेटिव तैयार करते थे और उनके विपक्षी उसका जवाब देते थे। इस बार भी महिलाओं को 21 सौ रूपए महीने देने और उसके लिए उनके फॉर्म भरवाकर नैरेटिव स्थापित कर दिया था। लेकिन बाद में बीजेपी ने उनकी काट शुरू की। उसने अपना पंद्रह सूत्रीय संकल्प पत्र पेश किया। महिलाओं को 2500 रूपए महीने की सम्मान निधि देने और 200 की बजाय 300 यूनिट बिजली फ्री देने जैसे ऐलान किए। इसका असर वोटरों पर दिखा। इस बीच बीजेपी ने चुनाव प्रबंधन के लिए अपने सारे मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री उतार दिए।
मंडल स्तर तक बड़े नेताओं को जिम्मेदारी दी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता भी सक्रिय हुए। भारतीय जनता पार्टी ने बुनियादी स्तर पर अपने कार्यकर्ताओं को सक्रिय किया, जिन्हें मनाने की जरूरत थी, उन्हें मनाया, सबके योग्य जिम्मेदारी दी। सभी कार्यकर्ता सक्रिय हुए। उन्होंने जमीनी स्तर तक काम किया। इसका असर चुनावों में दिखा। केजरीवाल की पार्टी पस्त रही। खुद केजरीवाल भी हारे हैं, उनके विश्वस्त मनीष सिसोदिया, सत्येंद्र जैन और राखी बिड़लान जैसे नाम चुनावी जंग में खेत रहे हैं।
बीजेपी की जीत में कुछ हिस्सेदारी कांग्रेस भी है। हालांकि उसे पिछले चुनाव की तुलना में महज दो फीसद ज्यादा वोट मिले हैं। कांग्रेस को भले ही समर्थन नहीं मिला। कुछ एक जगहों को छोड़ दें तो उसके उम्मीदवार दूसरे स्थान पर भी नहीं रहे। लेकिन कांग्रेस ने केजरीवाल के भ्रष्टाचार और उनके बड़बोलेपन के खिलाफ माहौल बनाने में योग जरूर दिया। दिल्ली की सूरत बदलने वाली शीला दीक्षित के बेटे संदीप दीक्षित ने खुलेआम मोर्चा खोल रखा था। उन्होंने कहा था कि अपनी मां के अपमान का बदला वे जरूर लेंगे। संदीप खुद केजरीवाल के खिलाफ नई दिल्ली सीट से मैदान में उतरे और केजरीवाल की हार की पटकथा लिखने में मदद की। कांग्रेस ने भी मान लिया है कि उसका असली दुश्मन भारतीय जनता पार्टी की बजाय आम आदमी पार्टी है। इसलिए उसने अपना सारा ध्यान आम आदमी पार्टी के भ्रष्टाचार और उसके खिलाफ रहा। केजरीवाल के शीश महल का सवाल भले बीजेपी ने उठाया, लेकिन जिस आबकारी नीति घोटाले में केजरीवाल जेल गए थे, उसका भंडाफोड़ कांग्रेस के नेता अजय माकन ने ही किया था। जनता के बीच वे सादगी के साथ आए थे, इसलिए लोगों को उनका शीश महल स्वीकार नहीं हुआ। केजरीवाल ने चुनाव के आखिरी वक्त में एक और गलती कर दी। उन्होंने यह कहकर बीजेपी पर हमला बोला कि उसकी हरियाणा सरकार ने यमुना के पानी में जहर मिला दिया है ताकि दिल्ली वालों का नुकसान हो। इस बात को जनता स्वीकार नहीं कर पाई। जनता ने माना कि केजरीवाल का भी यह भी एक बहाना है, उस वायदे को ढकने के बहाना है, जिसके तहत उन्होंने यमुना को पांच साल में साफ करने और उसमें नहाने का वादा किया था।
दिल्ली में राजनीतिक माहौल बदल चुका है। अब बीजेपी के सामने जिम्मेदारियों की लंबी लिस्ट है। उसकी जिम्मेदारी है कि वह राजधानी को खुशहाल ही नहीं, पर्यावरण अनुकूल और साफ भी बनाए। केजरीवाल के लिए यह चिंतन का वक्त है। उनका गढ़ भी छिन गया है और सेनापति भी नहीं रहे। ऐसे में सेना का उठ खड़ा होना आसान नहीं, वे उठ पाएंगे या नहीं, उनकी राजनीति में बदलाव आएगा या नहीं, यह तो वक्त ही बता पाएगा।