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नेपाल: 13 साल में 16 बार बदली सरकार 1
केएस तोमर

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें, तो साधनों, नैतिकता और मूल्यों का पूरी तरह से अनादर कर अंत तक अड़े रहने के मैकियावैली सिद्धांत के अनुपालन की राजनेताओं की प्रवृत्ति नेपाल के निवर्तमान प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल प्रचंड के मामले में सटीकता से दिखती है, जो नेपाली संसद में विश्वासमत हासिल करने के दौरान अपमानजनक ढंग से हारकर अपना पद गंवा बैठे हैं। प्रचंड को मात्र 63 वोट ही मिले, जबकि उनके खिलाफ नेपाली कांग्रेस और नेपाल (यूएमएल) के नए गठबंधन को कुल 194 वोट मिले। नए गठबंधन को राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी एवं जनता समाजवादी पार्टी जैसे छोटे दलों का भी समर्थन मिला। 275 सीटों वाले सदन में बहुमत के लिए मात्र 138 सीटें चाहिए। राष्ट्रपति रामचंद्र पौडेल के समक्ष ओली ने सरकार बनाने का दावा पेश किया है

इस बीच अच्छी बात यह है कि सीपीएन-यूएमएल के विदेश मामलों के प्रमुख और स्टैंडिंग कमेटी के सदस्य डॉ. राजन भट्टाराई ने जोर देते हुए कहा कि उनकी पार्टी का मानना है कि नेपाल की प्रगति या नेपाली नागरिकों का कल्याण केवल भारत समर्थक रुख अपनाकर ही हासिल किया जा सकता है। उन्होंने स्पष्ट किया कि ओली नेपाल-भारत संबंधों को नई ऊंचाइयों पर ले जाने के इच्छुक हैं, ताकि आधुनिक युग की जरूरतों के साथ तालमेल बिठाया जा सके।
नेपाल में लोकतंत्र की नाजुक स्थिति के कारण निरंतर अस्थिरता सरकार की पहचान रही है, जो तेरह वर्षों के लोकतंत्र में 16 बार सत्ता परिवर्तन से स्पष्ट है, जिससे देश के आम लोगों के हितों पर तो प्रतिकूल प्रभाव पड़ा ही है, देश आर्थिक संकट और ऋण देनदारियों, विशेष रूप से चीनी कर्ज के जाल में फंस गया है। नई सरकार का डेढ़ साल तक नेतृत्व पूर्व प्रधानमंत्री और कट्टर कम्युनिस्ट नेता ओली करेंगे, जिसके बाद समझौते के अनुसार, शेष कार्यकाल के लिए देउबा प्रधानमंत्री का पद संभालेंगे।

ओली एवं देउबा की नई गठबंधन सरकार को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा और यही चुनौतियां उनकी सफलता के लिए महत्वपूर्ण होंगी, अन्यथा इसका नतीजा मध्यावधि चुनाव के रूप में सामने आ सकता है। राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि कम्युनिस्टों (चीन समर्थक) और नेपाली कांग्रेस (भारत समर्थक) की विरोधी विचारधाराओं वाली नई सरकार को एकजुट रखना एक बड़ी चुनौती हो सकती है।

दूसरी बात, ओली और देउबा गठबंधन के समक्ष दो क्षेत्रीय शक्तियों यानी भारत और चीन से समान दूरी बनाए रखने की बाध्यता होगी, जिनके नेपाल के मामलों में भू-राजनीतिक और सामरिक हित जुड़े हैं। तीसरी बात, इससे पहले प्रधानमंत्री रहते हुए ओली ने भारत विरोधी कार्रवाइयों को बढ़ावा दिया था। उन्होंने एक नया नक्शा बनवाया था, जिसमें लिपुलेख, लिंपियाधुरा और कालापानी सहित भारतीय क्षेत्रों को नेपाल का हिस्सा दिखाया गया था। इससे भारत नाराज हो गया और नक्शे को खारिज करते हुए उसे संबंधों को खराब करने का प्रयास बताया था। अब, गठबंधन में प्रमुख भागीदार के रूप में देउबा की जिम्मेदारी होगी कि वह ओली को भारत विरोधी मानसिकता से निकलने के लिए मनाएं और दोनों देशों के सदियों पुराने संबंधों की रक्षा करें।

चौथी बात, प्रचंड के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट सरकार ने हमेशा चीन के प्रति प्रतिबद्धता के संकेत दिए हैं। चीन नई सरकार से भी बेल्ट ऐंड रोड (बीआरआई) पहल पर आगे बढ़ने की उम्मीद करेगा, क्योंकि प्रचंड ने 12 मई, 2017 को दोनों देशों के बीच हुए हस्ताक्षरित प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है। अब ओली सरकार को भारत की तरफ से किसी भी अड़चन से बचने के लिए इसे स्थगित रखने के लिए तार्किक कदम उठाना होगा। प्रचंड ने सितंबर, 2023 में बीजिंग की अपनी यात्रा के दौरान बीआरआई को गति देने के लिए नेपाल की प्रतिबद्धता दोहराई थी।

अब ओली के लिए बीआरआई के संकल्प पर टिके रहना मुश्किल होगा, क्योंकि नेपाली कांग्रेस पूरी तरह से इसके खिलाफ है, इसलिए इस मामले में प्रगति की संभावना दूर की कौड़ी लगती है। पांचवीं बात, भारत की अग्निपथ योजना से निपटना नई सरकार के लिए चुनौती होगी, जो अब तक की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है। भारत ने 15 जून, 2022 को अग्निपथ योजना शुरू की थी, जिसे नेपाल में भी लागू किया गया था, लेकिन कुछ आपत्तियों की वजह से अब भी नेपाल ने कोई फैसला नहीं लिया है। जबकि फील्ड रिपोर्ट बताती है कि नेपाल में ऐसे बेरोजगार युवा हैं, जो अग्निवीर के रूप में भारतीय सेना में शामिल होने के इच्छुक हो सकते हैं, लेकिन पिछली दो सरकारों ने इसमें देरी की और तीसरी सरकार भी शायद उससे अलग नहीं होगी।

छठी बात, भारत के साथ नेपाल का सीमा विवाद है, जिसके समाधान के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण की जरूरत है। नई सरकार एक नई रणनीति अपना सकती है, जिसमें भारतीय समकक्षों के साथ उच्चस्तरीय द्विपक्षीय वार्ता करने और सीमा विवाद को सौहार्द्रपूर्ण ढंग से सुलझाना शामिल है। तकनीकी और कूटनीतिक माध्यमों से सीमा विवाद के समाधान में तेजी लाने के लिए नेपाल-भारत संयुक्त सीमा आयोग को मजबूत करने से अच्छे परिणाम मिल सकते हैं। अवैध गतिविधियों और अनधिकृत घुसपैठ को रोकने के लिए विवादित सीमा क्षेत्रों में सुरक्षा और निगरानी बढ़ाना, दोनों देशों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हो सकता है। सातवीं बात, चीन ने पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश आदि की तरह नेपाल को भी अपनी ‘ऋण नीति’ में फंसा कर नेपाल को भारी कर्ज दिया है, जिसे चुकाने में सदियां लग सकती हैं।

अंत में, विवादित क्षेत्रों में पहुंच बढ़ाने और उपस्थिति का दावा करने के लिए सीमावर्ती क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे के निर्माण और सुधार के लिए एक कार्य योजना तैयार की जानी चाहिए। इन रणनीतियों को अपनाकर नेपाल की नई सरकार अग्निपथ योजना से उत्पन्न चुनौतियों और भारत के साथ चल रहे सीमा विवादों का संतुलित और प्रभावी तरीके से समाधान कर सकती है। लेकिन नए गठबंधन का अस्तित्व पूरी तरह से साझेदारों के आपसी विश्वास और संतुलित कूटनीतिक रणनीति के कार्यान्वयन तथा दो क्षेत्रीय दिग्गजों को नाराज करने से बचने पर निर्भर करेगा, जिसका अतीत में अभाव रहा है।

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