विपक्ष का संसद में सवाल उठाना, सरकार को कठघरे में खड़ा करना और आवाज बुलंद करना उसका संवैधानिक अधिकार ही नहीं, बल्कि उसका कर्तव्य भी है। लेकिन असली सवाल यह है कि क्या यह अधिकार संसद के भीतर सार्थक, तथ्यपूर्ण और समाधान केंद्रित बहस के रूप में सामने आएगा या फिर एक बार हंगामे की भेंट चढ़कर भारतीय लोकतंत्र को शर्मसार करेगा। बीते कई वर्षों से संसद का यह कटु यथार्थ बनता जा रहा है कि बहस से अधिक शोर, तर्क से अधिक नारे और विमर्श से अधिक अवरोध हावी हो रहा है।
इस बार शीतकालीन सत्र से जनता को खास उम्मीद है। मॉनसून सत्र जहां ऑपरेशन सिंदूर के नाम रहा, वहीं इस बार बहस के केंद्र में एस.आई.आर. है। शिक्षा, सड़क, कॉरपोरेट कानून से जुड़े अहम विधेयक, हेल्थ सिक्योरिटी एंड नेशनल सिक्योरिटी सेस बिल जैसे प्रस्ताव इस सत्र में आने हैं। ऐसे में सवाल यह है कि यह सत्र संसद के कामकाज के लिए याद किया जाएगा या फिर हंगामों के लिए।
शीतकालीन सत्र का एजेंडा और अपेक्षाएं
शीतकालीन सत्र 19 दिसंबर तक चलना है और इसमें कुल 15 दिन की कार्यवाही तय है। सरकार इस सत्र में 14 महत्वपूर्ण विधेयक पेश करने जा रही है। इनमें शिक्षा सुधार, सड़क ढांचा, कॉरपोरेट कानून और स्वास्थ्य-सुरक्षा से जुड़े प्रस्ताव शामिल हैं। विशेष रूप से हेल्थ सिक्योरिटी एंड नेशनल सिक्योरिटी सेस बिल, 2025 को देश के स्वास्थ्य ढांचे और सुरक्षा तैयारियों के लिए बेहद अहम माना जा रहा है।
ये सभी विधेयक केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं हैं। विपक्ष की भी उतनी ही जिम्मेदारी बनती है कि वह इन पर गहन चर्चा करे, जरूरी संशोधन सुझाए और राष्ट्रहित को केंद्र में रखकर कानूनों को मजबूत बनाए। संसद केवल सत्ता पक्ष का मंच नहीं है, बल्कि यह पूरे देश की सामूहिक चेतना का प्रतिबिंब होती है।
हंगामों में डूबी संसद: आंकड़े जो लोकतंत्र को घायल करते हैं
पिछले कुछ वर्षों से संसद की कार्यवाही लगातार हंगामों की भेंट चढ़ती रही है। पिछला सत्र तो इस दृष्टि से बेहद निराशाजनक रहा। लोकसभा की प्रोडक्टिविटी मात्र 31 प्रतिशत और राज्यसभा की लगभग 39 प्रतिशत रही। इसका अर्थ है कि देश के करोड़ों नागरिकों की मेहनत के टैक्स से चलने वाली संसद का आधे से अधिक समय व्यर्थ चला गया।
वेल में पहुंचकर नारेबाजी, कुर्सियां पीटना, प्लेकार्ड लहराना, बार-बार स्थगन—ये दृश्य दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की छवि को बार-बार कमजोर करते हैं। संसद का एक-एक मिनट जनता के पैसे से चलता है। एक मिनट का भी व्यर्थ जाना, लोकतंत्र की आत्मा पर चोट है।
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सर्वदलीय बैठक: उम्मीद की एक किरण
शीतकालीन सत्र से पहले 36 दलों की सर्वदलीय बैठक का होना एक सकारात्मक संकेत है। यह केवल औपचारिकता नहीं, बल्कि संवाद और सहयोग की दिशा में एक मजबूत पहल मानी जा रही है। विपक्ष ने इस बैठक में राष्ट्रीय सुरक्षा, एस.आई.आर., वायु प्रदूषण और विदेश नीति जैसे मुद्दों पर विस्तृत चर्चा की मांग रखी है।
संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू के अनुसार, किसी भी दल ने यह नहीं कहा कि संसद नहीं चलने दी जाएगी। यह सहमति कि “सदन चलना चाहिए”, अपने आप में लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है।
सत्ता और विपक्ष: लोकतंत्र के दो पहिए
लोकतंत्र में सत्ता और विपक्ष दो पहियों की तरह होते हैं। अगर एक पहिया जाम हो जाए, तो लोकतंत्र का रथ आगे नहीं बढ़ सकता। विपक्ष का काम सरकार से सवाल पूछना है, लेकिन वह सवाल हंगामों से नहीं, बल्कि तथ्यों और तर्कों से होना चाहिए। सवाल उठाने का अधिकार तभी सार्थक होता है जब उसके उत्तर को सुनने का धैर्य भी हो।
पिछले कुछ सत्रों में यह प्रवृत्ति बढ़ी है कि विपक्ष प्रश्न तो पूछता है, लेकिन उत्तर सुनने का अवसर ही नहीं देता। यह रवैया लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कमजोर करता है। इसी तरह सरकार भी यदि बहुमत के अहंकार में विपक्ष की उपेक्षा करती है, तो यह भी लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह है।
संसद की गरिमा और युवा पीढ़ी का भरोसा
आज देश की युवा पीढ़ी संसद की कार्यवाही को बड़े ध्यान से देखती है। दुर्भाग्य यह है कि कई बार उन्हें यह लोकतंत्र का आदर्श नहीं, बल्कि अव्यवस्था का प्रतीक दिखाई देता है। सांसद केवल राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि नहीं होते, वे राष्ट्र की आत्मा के वाहक होते हैं।
उनकी भाषा, उनका आचरण और उनकी बहसें आने वाली पीढ़ी की राजनीति की दिशा तय करती हैं। संसद की गरिमा ही देश की गरिमा होती है। यदि संसद में शोर ही शोर हो, तो देश को दिशा कैसे मिलेगी?
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शीतकालीन सत्र: नई परंपरा की शुरुआत बन सकता है
यह शीतकालीन सत्र केवल विधेयक पारित करने का सत्र न बने, बल्कि संवाद, समाधान और सौहार्द का सत्र बने—यही देश की अपेक्षा है। यदि इस बार पक्ष और विपक्ष मिलकर संयम, मर्यादा और संवैधानिक जिम्मेदारी की एक नई लकीर खींच दें, तो यह सत्र भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में मील का पत्थर बन सकता है।
भारत का लोकतंत्र विश्व के लिए प्रेरणा बन सकता है, बशर्ते संसद अपने भीतर अनुशासन, संवाद और शांति की संस्कृति को स्थापित करे।
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