
देश में संविधान स्वीकार होने के 75 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में संसद के दोनों सदनो में 13 घंटे से ज्यादा चली विशेष चर्चा संविधान और भारत के भावी स्वरूप को लेकर गंभीर बहस से ज्यादा राजनीतिक आरोपों में उलझ गई। पक्ष -विपक्ष ने एक दूसरे की खिचाई में कोई कोर -कसर नहीं छोड़ी। इस बहस में गांधी परिवार से पहली बार चुनकर संसद में पहुंची प्रियंका गांधी ने भी भाग लिया। उनके भाषण की तुलना, लोकसभा में 20 साल से मौजूद उनके सगे भाई राहुल गांधी के भाषण से होना स्वाभाविक है। नि:संदेह प्रभावशीलता के पैमाने पर प्रियंका ने पहली ही गेंद पर चौका मारकर जता दिया है कि अभिव्यक्ति की असरदारी, वैचारिक स्पष्टता, उच्चारण की शुद्धता, हिंदी भाषा पर पकड़, सही शब्द चयन और मन मस्तिष्क की एकरूपता के मामले में वो अपने भाई पर भारी साबित होंगी। हालांकि खुद राहुल गांधी भी अपनी बहन के पहले भाषण पर गदगद थे, लेकिन यह खुशी जल्द ही अघोषित प्रतिस्पर्द्धा में भी बदल सकती है।
संसदीय भाषणों के साथ सार्वजनिक सभाओं के लिए भी प्रियंका भी डिमांड राहुल से ज्यादा हो सकती है। हालांकि अच्छी संचारक होने के बाद भी प्रियंका उसको वोटों में तब्दील करने में ज्यादा सफल नहीं हो पाई हैं। हैरानी की बात यह थी कि संविधान पर बोलते हुए राहुल गांधी ने अपने वक्तव्य का ज्यादातर हिस्सा अंग्रेजी में दिया, जबकि वो अब हिंदी भाषी रायबरेली सीट से सांसद हैं। इसके विपरीत प्रियंका केरल की वायनाड सीट का प्रतिनिधित्व करती हैं, जहां की भाषा मलयालम है और लोकसभा उपचुनाव में उन्होंने मतदाताओं से अंग्रेजी में ही संपर्क किया था। बावजूद इसके प्रियंका ने हिंदी में ही अपनी बात सदन में रखी।
वैसे यह भी शोध का विषय है कि एक ही परिवार और समान परिवेश में पलने के बाद भी राहुल गांधी की हिंदी इतनी कमजोर और प्रियंका की हिंदी ज्यादा प्रभावी और कम्युनिकेटिव क्यों है? क्या ऐसा आम लोगों के बीच ज्यादा रहने के कारण है या जनता से जुड़ाव के लिए हिंदी का अच्छे ज्ञान की महत्ता को समझना है या फिर दोनो की समझ (ग्रास्पिंग) में फर्क इसकी वजह है। यूं तो इस बहस में करीब डेढ़ दर्जन लोगों ने भाग लिया। इसमें खुद को और अपनी पार्टी को संविधान की रक्षक और प्रतिपक्ष को संविधान का भक्षक साबित करने की कोशिशें हुईं। चूंकि यह कोई अकादमिक चर्चा नहीं थी, इसलिए संविधान के भावी स्वरूप और चुनौतियों पर बात होगी, इसकी संभावना नहीं के बराबर ही थी। जो बहस हुई, उससे यह कहीं भी नहीं झलका कि देश के कर्णधार संविधान के संदर्भ में भविष्य की सदी को लेकर क्या सोचते हैं, संविधान की मूल आत्मा को संरक्षित करने में उनकी प्रतिबद्धता कितनी और कैसी है।
लोकसभा चुनाव और संविधान
संविधान लागू होने के 70 साल बाद तक संविधान देश के पवित्रतम दस्तावेज के रूप में देखा जाता रहा है। लेकिन इस लोकसभा चुनाव में यह चुनावी अस्त्र के रूप में इस्तेमाल हुआ। उसका कुछ फायदा विपक्ष को मिला भी। सत्तारूढ़ एनडीए रक्षात्मक मुद्रा में आया, लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार संविधान बदलना चाहती है, विपक्ष के इस आरोप में बहुत स्पष्टता न होने से यह मुद्दा विधानसभा चुनावों में नहीं चल पाया। राहुल गांधी ने अपने भाषण में दोहराया कि देश की भावी राजनीति अब इस आधार पर तय होगी कि देश को बाबा साहब अंबेडकर के संविधान या हिंदुओं के एक ग्रंथ मनुस्मृति के आधार पर चलाया जाएगा। लेकिन कैसे यह बहुत स्पष्ट नहीं था। राहुल जब बोलते हैं तो लगता है कि उनके पास कहने को बहुत कुछ है, लेकिन वह वाणी और मस्तिष्क के अंतर्द्वद्व में कहीं फंस गया है क्योंकि आप जो लोगों से कह रहे हैं, उससे स्वयं का सौ फीसदी सहमत होना भी जरूरी होता है।
राहुल टुकड़ों-टुकड़ों में मुद्दे तो उठाते हैं, लेकिन वाक्यों को पूर्णता और निरंतरता के साथ अक्सर नहीं बोलते, जिससे श्रोता की उत्कंठा बीच में ही दम तोड़ देती है। दरअसल प्रभावी वक्तृत्व एक कला है, जो विरासत में नहीं मिलती। वह या तो जन्मजात होती है या फिर उसे सतत अभ्यास से अर्जित करना पड़ता है।
सहयोगी भाषण के लिए आपको मुद्दे दे सकते हैं, लेकिन उन मुद्दों को परोसने का हुनर नहीं दे सकते। इसी फिनिश लाइन पर प्रियंका अपनी पहली मेराथन रेस में राहुल से आगे जाती दिखीं। हालांकि उन्होंने राहुल के मुद्दों को राहुल के भाषण से पहले ही उठा दिया था, लेकिन सहज, शालीन और संयत अंदाज में। उन्होंने कहा कि संविधान ‘सुरक्षा कवच’ है लेकिन सत्तारूढ़ पार्टी (भाजपा) इसे तोड़ने की कोशिश कर रही है। लोकसभा चुनाव में बीजेपी की कम सीटों ने उसे संविधान के बारे में बात करने के लिए मजबूर कर दिया है।
उन्होंने तीखा प्रहार करते हुए कहा कि अगर लोकसभा चुनाव में बीजेपी का ये हाल नहीं हुआ होता तो वो कब से संविधान बदलने का काम शुरू कर चुकी होती। उन्होंने पीएम मोदी पर भी तगड़ा प्रहार करते हुए कहा कि वो भारत का नहीं ‘संघ’ का संविधान समझते हैं। यहां संघ से प्रियंका का आशय राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से था। हालांकि संविधान में अंग्रेजी के शब्द ‘फेडरल स्टेट’ का हिंदी अनुवाद भी ‘संघ राज्य’ ही है। संविधान पर चली संसदीय बहस में प्रियंका गांधी 32 मिनट तक बोलीं। इस दौरान उनके चेहरे पर कई बार हल्की मुस्कुराहट तो कभी कटाक्ष के भाव दिखे। बातों का दोहराव बहुत कम था। जबकि राहुल गांधी ने लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष होने के बाद भी अपनी बात 26 मिनट में ही समेट दी। वो चाहते तो यह विस्तार से बता सकते थे कि कांग्रेस ने ही देश की आत्मा के अनुरूप संविधान दिया है और इसके लिए हर संभव कोशिश की है। लेकिन राहुल संविधान बचाने, जातिगणना, अल्पसंख्यक, पिछड़ो, दलित व आदिवासियों को न्याय की ही बात करते रहे, जो वो कुछ समय से लगातार कहते आ रहे हैं।
शास्त्रीय संगीत में दोहराव एक गुण है, लेकिन सियासत में वो जनता के कान पकने का कारण भी बन सकता है।
यही नहीं, राहुल संसद में भी केज्युअल अंदाज में टी शर्ट पहन कर आते हैं। यह उनका स्टाइल स्टेटमेंट हो सकता है। इम्फॉर्मल दिखने और महसूस कराने की कोशिश हो सकती है। इसके विपरीत सदन में गंभीर चर्चा को वक्तृत्व के मान्य पैमानों पर ही आगे बढ़ाना होता है। वहां इम्फार्मल होना, इनकाॅम्पिटेंट होना भी हो सकता है। जज्बात के साथ भाषा की सहज जुगलबंदी, सही शब्द चयन, ठोस मुद्दे और बात आपके दिल से निकली है, यह संदेश जाना भी जरूरी है।
संविधान पर समूची बहस का जवाब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 110 मिनट के अपने भाषण में दिया। मोदी का भाषण अकादमिक पैमाने पर भले उतना प्रभावी न लगे, लेकिन आम लोगों तक अपनी बात प्रभावी ढंग से पहुंचाने की कला उनके पास है। उन्होंने विपक्ष के प्रत्येक हमले का तथ्यों के आधार पर जवाब दिया। मोदी के भाषण का लुब्बोलुआब यही था कि कांग्रेस और उसके कर्णधार संविधान कैसे बचाना है, यह हमे न सिखाएं। उन्होंने संविधान के प्रति कांग्रेस के ‘पाप’ गिनाते हुए कहा कि देश में आपात काल लगाना और मौलिक अधिकारों को निलंबित करना सबसे बड़ा पाप था। हमने तो दस साल में वैसा कुछ भी नहीं किया। फिर भी हमारी नीयत पर प्रश्नचिन्ह क्यों? संसद में हुई रस्मी बहस में भी इस संदर्भ में कोई बात नहीं हुई कि हमे संविधान के आलोक में देश को किस दिशा में और कैसे ले जाना है। अपनी कमीज प्रतिद्वंद्वी के मुकाबले ज्यादा उजली होने की मुग्धता भविष्य के प्रति बहुत आश्वस्त नहीं करती।