राहुल गांधी का कन्फ्यूजन कांग्रेस को डुबा देगा

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संतोष पाठक

राहुल गांधी का कन्फ्यूजन कांग्रेस को डुबा देगा 1

एक स्वस्थ और मजबूत लोकतंत्र के लिए सत्तारूढ़ राजनीतिक दल के साथ ही मजबूत विपक्षी दल भी बहुत जरूरी माना जाता है। लोकतांत्रिक शासन प्रणाली का यह मूल सिद्धांत माना जाता है कि जितनी मजबूत सरकार हो, उतना ही मजबूत विपक्ष भी होना चाहिए। लोकतंत्र में जनता की इच्छा सर्वोपरि होती है।जनता किसी राजनीतिक दल को बहुमत देकर सरकार चलाने का मौका देती है तो किसी राजनीतिक दल को विपक्ष में बैठाकर सरकार पर निगरानी बनाए रखने की जिम्मेदारी देती है। इसलिए यह तो स्वाभाविक है कि सरकार चलाने वाले राजनीतिक दल या गठबंधन के पास सदन में ज्यादा संख्या होती है। लेकिन जनता विपक्ष से यह उम्मीद भी करती है कि सदन में कम संख्या होने के बावजूद विपक्षी राजनीतिक दल या गठबंधन सरकार के गलत कामों की पोल लगातार खोलते रहे।

स्वाभाविक तौर पर, राजनीति के मैदान में उतरने का अंतिम लक्ष्य बहुमत हासिल कर सत्ता प्राप्त करना ही होता है। लेकिन कई बार ऐसा लगता है कि इस देश के सबसे बड़े विपक्षी राजनीति दल कांग्रेस के नेता राहुल गांधी महत्वपूर्ण अवसरों पर अक्सर कन्फ्यूज होते नजर आते हैं। उनके कन्फ्यूजन का नुकसान हर बार कांग्रेस को चुनावी हार के रूप में उठाना पड़ता है। लेकिन लगातार हार मिलने के बावजूद भी राहुल गांधी के रवैये में फिलहाल तो कोई सुधार होता, नजर नहीं आ रहा है।

हाल ही में, दिल्ली में हुआ विधानसभा चुनाव राहुल गांधी के इस कन्फ्यूजन का सबसे ताजा उदाहरण है। राहुल गांधी अंतिम समय तक यह फैसला नहीं कर पा रहे थे कि अरविंद केजरीवाल साथी है या विरोधी ? कांग्रेस को बचाने के लिए दिल्ली में चुनाव लड़े या फिर इंडिया गठबंधन को बचाने के लिए केजरीवाल और उनकी पार्टी के खिलाफ मजबूती से चुनाव नहीं लड़े ? उन्होंने कभी अजय माकन को केजरीवाल के ऊपर सीधा हमला करने की अनुमति दे दी तो कभी उनकी प्रेस कांफ्रेंस को ही रद्द करवा दिया। जबकि शुरुआती दौर में राहुल गांधी ने स्वयं दिल्ली के सीलमपुर में एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आम आदमी पार्टी सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल, दोनों पर एक ही सुर में तीखा निशाना साधा था।

सीलमपुर की रैली में अरविंद केजरीवाल पर तीखा राजनीतिक हमला बोलने के बाद अचानक से राहुल गांधी कुछ दिनों के लिए शांत हो गए। ऐसी खबरें निकलकर सामने आने लगी कि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, महाराष्ट्र के दिग्गज नेता शरद पवार और समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव के कहने पर ना केवल उन्होंने अजय माकन की प्रेस कॉन्फ्रेंस को रद्द करवा दिया बल्कि स्वयं भी दिल्ली के चुनाव प्रचार अभियान से बाहर होकर बैठ गए। लेकिन इंडिया गठबंधन के साथियों द्वारा एक-एक करके दिल्ली के विधानसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल को समर्थन दिए जाने की सार्वजनिक घोषणा करने के बाद राहुल गांधी ने अपने आप को आहत महसूस किया और उसके बाद एक बार फिर से उन्होंने दिल्ली कांग्रेस के नेताओं को चुनावी अभियान में जोर-शोर से जुड़ने का निर्देश दे दिया।

इतना ही नहीं राहुल गांधी स्वयं, अरविंद केजरीवाल की नई दिल्ली विधानसभा में चुनाव प्रचार करने के लिए पहुंच गए। जहां से उन्होंने दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय शीला दीक्षित के बेटे संदीप दीक्षित को उम्मीदवार बनाया था। जाहिर तौर पर कांग्रेस का लक्ष्य सिर्फ एक था कि कांग्रेस का उम्मीदवार भले ही चुनाव में जीत हासिल न कर पाए लेकिन अरविंद केजरीवाल सहित आप के तमाम दिग्गज नेता अपनी विधानसभा सीट हार जाएं। हुआ भी कुछ वैसा ही, दिल्ली में भले ही कांग्रेस को पिछले दो विधानसभा चुनावों की तरह इस बार भी जीरो सीट ही मिली लेकिन उसके उम्मीदवारों के कारण अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया समेत आप के कई दिग्गज नेताओं को चुनाव में करारी हार का सामना करना पड़ा। आम आदमी पार्टी के सभी बड़े नेताओं को चुनाव हरवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाकर राहुल गांधी ने अपनी ताकत को साबित कर दिया लेकिन यहां एक बार फिर से वही सवाल खड़ा हो रहा है कि अगर राहुल गांधी आखिरी समय तक कंफ्यूज नहीं रहते और उन्होंने कुछ महीने पहले ही दिल्ली प्रदेश कांग्रेस को अपने इरादे बता दिए होते तो शायद पार्टी ज्यादा बेहतर तरीके से चुनाव लड़ पाती और 2015 एवं 2020 के विधानसभा चुनाव में जीरो सीट हासिल करने वाली कांग्रेस पार्टी को इस बार भी जीरो के आंकड़े पर ही संतोष नहीं करना पड़ता।

राहुल गांधी का मुकाबला नरेंद्र मोदी और अमित शाह वाली भारतीय जनता पार्टी से हैं। पीएम नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी चुनाव जीतने की मशीन बनती जा रही है और ऐसे माहौल में कंफ्यूज होकर राजनीति करने से हार के अलावा और कुछ नहीं मिलने जा रहा है। जिसका सामना राहुल गांधी लगातार 3 लोकसभा चुनावों और कई राज्यों की विधानसभा में करते आ रहे हैं।

वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में 99 सीटों पर जीत हासिल कर कांग्रेस भले ही लोकसभा में सबसे बड़ा विपक्षी राजनीतिक दल बन गया हो लेकिन यह सभी जानते हैं कि कांग्रेस के 99 सीटों में अखिलेश यादव समेत इंडिया गठबंधन में शामिल अन्य कई क्षेत्रीय दलों की भी अहम भूमिका रही है। ऐसे में होना तो यह चाहिए था कि राहुल गांधी इंडिया गठबंधन के तमाम सहयोगी राजनीतिक दलों के साथ विचार विमर्श कर चुनाव से कम से कम 6-7 महीने पहले ही रणनीति तैयार कर लेते।

राहुल गांधी के लिए यह तय करना भी जरूरी है कि किस राज्य में कौन सा राजनीतिक दल कांग्रेस का विरोधी है और किस राज्य में कौन सा राजनीतिक दल कांग्रेस के साथ है। दिल्ली में आखिरी समय तक राहुल गांधी यह तय ही नहीं कर पा रहे थे कि केजरीवाल साथी है या विरोधी है ? पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनाव में भी ममता बनर्जी ने कांग्रेस को ठेंगा दिखा दिया था और एक बार फिर से उन्होंने राज्य में अकेले ही 2026 का विधानसभा चुनाव लड़ने की घोषणा करके कांग्रेस पर हावी होने की कोशिश की है। लेकिन दूसरी तरफ राहुल गांधी को देखिए, कि वह तय ही नहीं कर पा रहे हैं कि ममता बनर्जी से लड़ना है या दोस्ताना संबंध रखने हैं।

लोकसभा में विपक्ष के नेता की जिस कुर्सी पर इस बार राहुल गांधी बैठे हैं, उसी कुर्सी पर पिछली लोकसभा में कांग्रेस के लोकसभा सांसद अधीर रंजन चौधरी बैठा करते थे। चौधरी पश्चिम बंगाल में लगातार कांग्रेस पार्टी को मजबूत बनाने की बात किया करते थे और सिर्फ इस वजह से ममता बनर्जी उनसे इतनी ज्यादा नाराज हो गई कि उन्होंने व्यक्तिगत रूप से यह सुनिश्चित किया की अधीर रंजन चौधरी 2024 का चुनाव जीतकर फिर से लोकसभा सांसद ना बन पाए। चौधरी 2024 में लोकसभा चुनाव हार गए और कांग्रेस आलाकमान ने उन्हें पूरी तरह से अकेला छोड़ दिया हैं। जम्मू कश्मीर में उमर अब्दुल्ला हो या फिर बिहार में लालू यादव, कांग्रेस की लगभग सभी सहयोगी पार्टियां राहुल गांधी के कन्फ्यूजन का फायदा उठाने का प्रयास करती रहती है। इसलिए यह सवाल बार-बार उठाया जाने लगा है कि क्या राहुल गांधी का यह कन्फ्यूजन कांग्रेस पार्टी को राजनीतिक रूप से डूबा कर ही मानेगा ?

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