राजनीति का काला चेहरा: 251 सांसदों पर आपराधिक मामले – मतदाता कब जागेगा?

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Highlights
  • • राजनीति और अपराध के रिश्ते पर बड़ा सवाल — क्या अपराधी नेता लोकतंत्र के लिए खतरा बन चुके हैं? • लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी और तेजस्वी यादव के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों पर अदालत ने सुनवाई योग्य मामला माना। • अदालत का फैसला आने से लालू परिवार की मुश्किलें बढ़ीं, अब लंबी कानूनी लड़ाई की शुरुआत। • रिपोर्ट के मुताबिक, देश के 40% मुख्यमंत्रियों ने स्वीकार किया है कि उन पर आपराधिक मामले चल रहे हैं। • लोकसभा के 543 सांसदों में से 251 पर आपराधिक मामले दर्ज, यानी लगभग आधे सांसद आरोपों के घेरे में। • तमिलनाडु, केरल, ओडिशा और तेलंगाना जैसे राज्यों में अधिकांश सांसदों पर गंभीर आरोप लंबित हैं। • आंकड़ों के अनुसार, भाजपा के 94, कांग्रेस के 49, समाजवादी पार्टी के 21 और तृणमूल कांग्रेस के 13 सांसदों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। • सवाल यह कि जब नेता अपराध में लिप्त हैं तो जनता क्यों देती है उन्हें वोट? • मतदाता के विवेक पर निर्भर है कि ऐसे नेताओं को राजनीति से बाहर किया जाए। • अदालतें कानून के आधार पर फैसला करेंगी, लेकिन बदलाव की शुरुआत मतदाता के निर्णय से ही संभव है।

भारत में राजनीति और अपराध के रिश्ते पर एक बार फिर से बहस तेज हो गई है। दिल्ली की अदालत ने लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी और तेजस्वी यादव के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले को सुनवाई के योग्य घोषित कर दिया है। अब इस पर मुकदमा चलेगा, कानूनी प्रक्रिया आगे बढ़ेगी। यह फैसला सिर्फ एक केस नहीं, बल्कि भारतीय राजनीति की उस पुरानी बीमारी की याद दिलाता है जहाँ राजनीति में अपराध अब सामान्य बात बन चुकी है।

राजनीति की विडंबना यह है कि जब किसी नेता पर गंभीर आरोप लगते हैं, तो उसे “राजनीतिक साजिश” कहकर खारिज कर दिया जाता है। अदालत चाहे जो भी कहे, नेता अक्सर खुद को पीड़ित के रूप में पेश करते हैं। यही हाल अब लालू परिवार का भी है। अदालत के फैसले को लेकर सवाल उठ रहे हैं कि यह समय इतना “संयोगवश” क्यों है। लेकिन असल सवाल अदालत के फैसले का नहीं, बल्कि राजनीति में व्याप्त अपराध के उस गहरे दाग का है, जो दशकों से साफ नहीं हो पा रहा।

जब अदालतें बोलती हैं, राजनीति चुप रहती है

कानूनी रूप से देखा जाए तो अदालत ने सिर्फ इतना कहा है कि मामला सुनवाई के योग्य है। इसका मतलब यह नहीं कि लालू परिवार दोषी सिद्ध हो गया। लेकिन यह सच है कि भारतीय राजनीति में ऐसे मामलों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है।

एक रिपोर्ट के मुताबिक — देश के 30 मुख्यमंत्रियों में से 40% ने अपने खिलाफ आपराधिक मामलों की जानकारी खुद दी है। ये आरोप मामूली नहीं, बल्कि हत्या, बलात्कार और अपहरण जैसे गंभीर अपराधों से जुड़े हैं।

ऐसे में यह सवाल बार-बार उठता है कि आखिर राजनीति में अपराध को इतना संरक्षण क्यों मिलता है? जब जनता जानती है कि उनके नेता पर गंभीर आरोप हैं, फिर भी वही नेता चुनाव जीत जाते हैं, तो क्या दोष सिर्फ नेताओं का है या मतदाताओं का भी?

251 सांसदों पर आपराधिक केस – संसद के अंदर अपराध की दस्तक

चौंकाने वाला सच यह है कि लोकसभा के 543 सांसदों में से 251 सांसदों पर आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। इनमें से 25 से अधिक को अदालतें दोषी भी ठहरा चुकी हैं।

राजनीति का अपराधीकरण किसी एक राज्य या दल तक सीमित नहीं — यह पूरे देश का चेहरा बन चुका है।

• हरियाणा के 10 सांसदों में से कई पर गंभीर आरोप हैं।

• केरल में 20 में से 19 सांसदों पर केस दर्ज हैं।

• तमिलनाडु में 39 में से 36 सांसद आरोपी हैं।

• ओडिशा में 21 में से 16 सांसद,

• तेलंगाना में 17 में से 14 सांसद,

• मध्यप्रदेश में 29 में से 9 सांसदों ने खुद माना है कि उनके खिलाफ केस चल रहे हैं।

यह आंकड़े सिर्फ रिपोर्ट नहीं, बल्कि लोकतंत्र की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न हैं।

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भाजपा, कांग्रेस और अन्य दल – सबके दामन पर दाग

राजनीति में अपराध किसी एक पार्टी का मसला नहीं है।

भाजपा के 240 में से 94 सांसदों पर केस हैं।

कांग्रेस के 99 में से 49 सांसदों पर आरोप हैं।

समाजवादी पार्टी के 37 में से 21,

टीएमसी के 29 में से 13,

द्रमुक के 22 में से 13,

शिवसेना के 7 में से 5 सांसदों पर केस दर्ज हैं।

ये आंकड़े साफ करते हैं कि सभी दलों ने “दागियों” को टिकट देने में कोई परहेज नहीं किया। राजनीति अब चरित्र की जगह ताकत और धन पर आधारित होती जा रही है।

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अपराधी नेता और मौन मतदाता – लोकतंत्र की सबसे बड़ी विफलता

सवाल उठता है कि आखिर इन नेताओं को जनता का समर्थन कैसे मिल जाता है?

क्या जनता विवश है या उदासीन? 1952 से अब तक लगभग 75 वर्षों में मतदाता बार-बार उन्हीं चेहरों को चुनते आ रहे हैं, जिनके खिलाफ अपराध के गंभीर आरोप हैं।

अदालतें अपराध साबित करने में सालों लगा देती हैं, लेकिन मतदाता हर पांच साल में अपने विवेक से फैसला कर सकता है।

सच यह है कि राजनीति में अपराध तभी तक जीवित रहेगा, जब तक मतदाता “ईमानदार राजनीति” की मांग नहीं करेगा।

समाधान – अदालतों से पहले जनता को करना होगा निर्णय

कानून अपना काम करता रहेगा, लेकिन देश में बदलाव तब होगा जब जनता अपनी सोच बदलेगी।

अदालत अपराध साबित कर सकती है, लेकिन अपराधियों को राजनीति से बाहर करने की असली ताकत जनता के वोट में है।

अब जरूरत इस बात की है कि मतदाता अपने विवेक का उपयोग करे — ताकि राजनीति फिर से “सेवा” का माध्यम बने, न कि “सत्ता का सौदा”।

राजनीति में अपराध का अंत मतदाता के विवेक से ही संभव

लालू परिवार का मामला एक चेतावनी है कि भारतीय राजनीति को आत्ममंथन करना होगा।

राजनीति में अपराध कोई नई बात नहीं, लेकिन इसे सामान्य मान लेना लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है।

जब तक जनता भ्रष्ट और दागी नेताओं को नकारना नहीं सीखेगी, तब तक अदालतों के फैसले भी राजनीति की धूल में दबे रहेंगे।

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