पांच जून की याद …

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प्रेमकुमार मणि (लेखक और पूर्व विधान पार्षद )
पांच जून 1974 को जेपी ने बिहार के सम्यक बदलाव केलिए पटना में एक रैली की थी. उसके इक्यावन साल हो रहे हैं. आज भी बिहार पिछड़ापन के आख़िरी पायदान पर है. आज इस पर एक विहंगम नजर डालना बुरा नहीं होगा.
बिहार के बारे में कुछ मिथ हैं, जैसे कि –
१. बिहार आरम्भ से ही एक पिछड़ा सूबा रहा है.
२. बिहार लालू राज में पिछड़ गया.
३. लालू प्रसाद ने दलित-पिछड़ों का सामाजिक सशक्तिकरण किया.
४. नीतीश राज में बिहार विकसित हो गया.
ये चारों बिन्दु केवल और केवल मिथ हैं, सच्चाई नहीं है. इन्हें अपने-अपने लाभ केलिए सुनियोजित तरीके से प्रचारित किया गया है. बिहार में इस वर्ष विधानसभा के चुनाव हैं.अतएव इन सब पर बिहार वासियों को विस्तार से जानना चाहिए. सबसे पहले हम बिहार के पिछड़ेपन को लें. बिहार हमेशा से पिछड़ा हुआ इलाका नहीं रहा. ढाई हजार वर्ष पूर्व मगध का क्षेत्र ज्ञान का केंद्र हुआ करता था. सिद्धार्थ जब ज्ञान की खोज में थे, तब वह मगध आए थे. कोई साठ उल्लेखनीय विचारकों का वास उस समय वहाँ था. इन सब के विचारों से निमज्जित हो कर ही सिद्धार्थ उरुवेला गए और फिर बुद्ध हुए. उनके समय में वैशाली का विकसित गणराज्य था, जो बुद्ध को आकर्षित करता था. बुद्धपूर्व के उपनिषद काल में मिथिला जनक और याज्ञवल्क जैसे विचारकों का केंद्र था. चिन्तन का केंद्र कोई क्षेत्र यूँ ही नहीं बन जाता. इसके लिए भौतिक विकास आवश्यक होता है. बिहार में तब लोहे का आविष्कार और उत्पादन शुरू हो गया था. इस धातु-क्रांति ने इस इलाके को कांसे के युग से एक नए लौह युग में ला दिया. लोहे के हल ने कृषि-उत्पादन को एकबारगी बढ़ा दिया. ब्रीहि अर्थात चावल की फसल इफरात होने लगी. इस अतिरिक्त उत्पादन के फलस्वरूप आबादी बढ़ी और कुछ लोगों का बैठे-बिठाए भोजन उपलब्ध कराना भी संभव हुआ. इसी से यह चिन्तन का क्षेत्र बन सका. भिक्खुओं का पेट भरने लायक आर्थिक आधार भी तो होना जरूरी होता है. तक्षशिला के बाद विक्रमशिला और नालंदा जैसे शिक्षा के केंद्र इसी इलाके में अकारण नहीं उभर गए थे. इसके भौतिक आधार यही समृद्ध कृषि उत्पादन थे.
राजनीतिक तौर पर नंदों, मौर्यों, गुप्तों और सब से बढ़ कर पाल राजाओं के शासन काल उल्लेखनीय रहे. पाल शासकों का तो कोई जवाब नहीं था. इस पर विस्तार से लिखने का यह मंच नहीं है. मैं बस इशारे कर रहा हूँ. आधुनिक ज़माने में बिहार बंगाल प्रेसीडेंसी के तहत था. कोलकाता में अंग्रेज सब से पहले जमे. यूरोपीय रेनेसां और प्रबोधन काल के विचार वहाँ किसी न किसी रूप में आए. भारतीय भद्र वर्ग का एक हिस्सा इससे किसी न किसी रूप में प्रभावित हुआ. विवियन डेरोजियो और राजा राममोहन राय जैसे विचारक वहाँ उभरे. लेकिन उस समय तक भी पटना शिक्षा का उल्लेखनीय केंद्र था. राय अरबी और फारसी की पढाई के लिए पटना आए थे.
उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक बिहार बहुत पीछे नहीं था. कोलकाता के आसपास के जिलों से जरूर पीछे रहा, लेकिन इतना पीछे पूर्वी बंगाल के इलाके भी रहे जो आज बंग्लादेश है. सामंती-ज़मींदारी ढाँचे में विकास और समृद्धि प्रश्रयप्राप्त तबके में सिमटी हुई थी. नगरीय विकास एक तरफ था तो गाँवों का पिछड़ापन दूसरी तरफ. गाँवों में भी जमींदार असरफ तबका एक तरफ था तो रैयत-रेयान तबका दूसरी तरफ.
इसीलिए बिहार में समाजवादी आंदोलन घनीभूत हुआ. स्वामी सहजानंद का किसान आंदोलन और जेएनपी मेहता प्रणीत त्रिवेणी संघ का जोर 1930 के दशक में था. प्रवासी बंगालियों ने कम्युनिस्ट पार्टी संगठित की थी. सच्चिदानंद सिन्हा ने नगरीय जीवन और नवजागरण पर जोर दिया था. पटना का खड्गविलास प्रेस पूरे उत्तरभारत में चर्चित था. चतुर्दिक उत्साह का वातावरण था.
अगस्त 1942 में पटना की सडकों पर जब राष्ट्रीय आंदोलन ने अंगड़ाई ली तब ब्रिटिश हुकूमत हिल गई. अंग्रेजी राज का नाश हो, यदि आंदोलन का पहला नारा था, तो दूसरा था किसान राज कायम हो. यह अकारण नहीं था कि बिहार ज़मींदारी उन्मूलन करने वाला पहला प्रान्त बना. हालांकि ज़मींदारी प्रथा का एक नतीजा यह था जो किसी ब्रिटिश प्रतिनिधि मंडल को 1950 के दशक में दिखा था. वह था बिहार देश का सब से सुशासित राज्य है. दरअसल गाँवों के मामले ज़मींदारों के स्तर पर ही सुलझा दिए जाते थे. वे थाना या कोर्ट-कचहरी तक पहुँचते ही नहीं थे. लेकिन इतना सच था कि 1970 तक बिहार में शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा की स्थिति ठीक थी. पटना विश्वविद्यालय एक उल्लेखनीय शिक्षा केंद्र था और पीएमसीएच चिकित्सा का विश्वसनीय अस्पताल था.
इसलिए इस मिथ को हमेशा के लिए अपने दिमाग से बाहर कर देना चाहिए कि बिहार हमेशा पिछड़ा ही रहा है. अवध के पतन के जिन कारणों को प्रेमचन्द ने 1924 में अपनी कहानी शतरंज के खिलाड़ी में देखा था उससे बिहार मुक्त था. आज़ादी के समय भी यहाँ का चीनी उद्योग शानदार था,जो आज उछल कर महाराष्ट्र चला गया. टाटा, डालमियानगर, कटिहार आदि का उद्योग देश भर में जाना जाता था.
बिहार का पिछड़ापन 1960 के बाद क्रमिक तरीके से बढ़ता गया. 1975 के आसपास इसमें अचानक इजाफा हुआ और फिर धीरे-धीरे यह एक अभागा प्रदेश बनता चला गया. हालांकि जेपी आंदोलन इस पिछड़ेपन के खिलाफ ही नौजवानों की प्रतिक्रिया थी. आंदोलन आंतरिक तौर पर दो हिस्सों में विभाजित था. एक हिस्सा धुर दकियानूसी विचार का था. इसका जोर केवल इंदिरा विरोध पर था. लेकिन दूसरा हिस्सा रचनात्मक ऊर्जा से लबरेज था और गाँवों में जन सरकारों की स्थापना में दिलचस्पी ले रहा था. आपातकाल ने पहले हिस्से को रेखांकित कर दिया. इसके कारण आंदोलन का मूल उद्देश्य ही ख़त्म हो गया.
1980 तक एक नयी कांग्रेस उभर चुकी थी. यह संजय गांधी की कांग्रेस थी. उनकी विधवा और बेटा यूँ ही भाजपा में नहीं हैं. इसके आधार हैं. 1980 से 1990 मार्च तक बिहार में कांग्रेस की सरकार रही. पांच मुख्यमंत्री हुए. पाँचों केवल दो ऊँची जातियों से थे. कांग्रेस ने बिहार को एक नए जाति युद्ध की तरफ धकेल दिया था. दलित-पिछड़े वर्गों में इसकी तीव्रतर सामाजिक-राजनीतिक प्रतिक्रिया हुई. 1990 से बिहार में कांग्रेस जो पीछे हुई आज तक है.
1990 में लालू प्रसाद आए. समाजवादी लोग जाति-विमर्श के हिमायती जरूर थे, लेकिन जातिवाद के सबसे बड़े विरोधी भी हिंदी पट्टी में वही थे. वे लोग जाति सूचक सरनेम हटाने, उसके जनेऊ और चोटी जैसे प्रतीकों को हटाने के लिए जाने जाते थे. लालूप्रसाद ने इसकी धारा बदल दी. लालू जनता पार्टी और लोकदल जमाने के सोशलिस्ट थे. उनके नाम में जाति सूचक सरनेम नहीं था. उन्होंने यादव जोड़ा. हालाकि किसी जाति सम्मेलन में वह कभी शामिल नहीं हुए, लेकिन सोशलिस्ट राजनीति को जातिवादी राजनीति का पर्याय उन्होने ही बनाया. यह केवल मिथ है कि लालू ने पिछड़े वर्ग का सशक्तिकरण किया. सच्चाई यह है कि पिछड़े वर्ग ने लालू प्रसाद का सशक्तिकरण किया. पिछड़ों का सशक्तिकरण कर्पूरी ठाकुर, उसके पूर्व जगदेव प्रसाद और बाद में नक्सलवादी तेवर के कम्युनिस्टों ने किया था. सबसे अधिक सामंती उत्पीड़न वाले इलाकों में नक्सलवाद का जोर बढ़ा. इसने ग्रामीण इलाकों के सामंतवादी ठिकानों पर हल्ला बोला. इन नक्सलियों के खात्मे केलिए तीन सेनाएं खड़ी हुईं – भूमिहारों की रणवीर सेना, असरफ कुर्मियों की भूमि सेना और असरफ यादवों की लोरिक सेना. लालूराज में असरफ यादव और कुर्मी सीधे ट्रेजरी लूट में जुट गए और यह सिलसिला आज तक चल रहा है.
संक्षेप में यह कि लालूराज में कांग्रेसराज के ट्रेजरी लूट की प्रवृत्ति ने एक माफिया चरित्र ग्रहण कर लिया. इसके साथ ही अपहरण, रंगदारी और हिंसा की घटनाएं बढ़ने लगीं. इसके कुछ जिले तो सीधे माफियाओं के अड्डे बन गए. मसलन सीवान बिहार का सिसली बन गया. अपहरण, लूट, बलात्कार जैसी चीजें आम होती चली गईं. अगले दस वर्षों में इसकी प्रतिक्रिया दलितों और अति पिछड़े वर्गों में हुई, जिनके सामूहिक हितों की अवहेलना हुई थी.
इसकी प्रतिक्रिया में नीतीश कुमार का आना हुआ. इनके आरंभिक नारों पर ध्यान दीजिए- न्याय के साथ विकास. अर्थात यह समझा जा रहा था कि केवल विकास पर्याप्त नहीं है, न्याय के साथ यह होना चाहिए. इस न्याय में सामाजिक न्याय भी अन्तर्निहित था. एक टर्म नीतीश का बेहतर रहा. लेकिन फिर उनमें लालू प्रसाद बनने की इच्छा दिखने लगी और अंततः वह हो गए. कहा जाता है लालू प्रसाद की आंतरिक इच्छा रामलखन यादव बनने की थी और नीतीश कुमार की लालू प्रसाद बनने की. दोनों इच्छानुकूल बन गए.
आज बिहार की स्थिति यह है कि वह बर्फ में आग तलाश रहा है, जैसा कि अमेरिकी कथाकार जैक लंडन की एक कहानी फायर इन आइस में वर्णित है. बर्फीले प्रदेशों में तापमान जब शून्य डिग्री से नीचे जाता है तब वहाँ के जानवर, खास कर कुत्ते गर्मी की तलाश में बर्फ में घुस जाते हैं. बर्फ जीरो डिग्री से नीचे के तापमान पर नहीं जाता,. इसलिए अपेक्षाकृत गर्म होता है. नीतीश राज चूँकि लालू प्रसाद के माफियराज से बेहतर है, इसलिए तमाम पिछड़ेपन के बावजूद नीतीश कुमार की प्रासंगिकता बनी हुई है. बिहार के पॉलिटिक्स की गुत्थी यही है.आज सवाल यह है कि बिहार की पॉलिटिक्स को फासिस्ट और माफिया के भंवर से निकाला कैसे जाय. अब इस सवाल के साथ ही बिहार में चुनाव होने चाहिए.

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