Samajvad: “समाजवाद से शाही ठाठ तक: एक पीढ़ी का टूटा हुआ सपना”

6 Min Read
समाजवाद की सोच से शाही ठाठ तक पहुंची भारतीय राजनीति

जब किशोर उम्र में छोटी-छोटी विचार पुस्तिकाएं पढ़ी जाती थीं, तब केवल किताबें नहीं बदली जाती थीं, बल्कि सोच गढ़ी जाती थी। राहुल सांकृत्यायन, यशपाल, डॉ. भीमराव आंबेडकर और भदन्त आनंद कौशल्यायन जैसे विचारकों की रचनाएं केवल साहित्य नहीं थीं, बल्कि वे सामाजिक परिवर्तन की मशाल थीं। उस दौर में “साम्यवाद ही क्यों”, “तुम्हारी क्षय”, “रामराज और मार्क्सवाद”, “चक्कर क्लब”, “पिंजड़े की उड़ान” और “जातिवाद का विनाश” जैसी किताबें दिमाग का नक्शा बदल देती थीं। यही वे विचार थे, जिनसे समाजवाद, लोकतंत्र और सामाजिक न्याय की नींव मजबूत होती थी।

Samajvad: विचारों से निकली लेखनी और युवा चेतना

इन्हीं विचारों के प्रभाव में लेखक ने भी “मनुस्मृति: एक प्रतिक्रिया” नामक पुस्तिका लिखी, जिसकी भूमिका बौद्ध गुरु भिक्षु जगदीश कश्यप ने लिखी थी। इसका प्रकाशन 1973 में बहुजन कल्याण प्रकाशन, लखनऊ से हुआ। उस समय लेखक की उम्र मात्र 20 वर्ष थी। उस दौर में अन्याय, शोषण और असमानता के खिलाफ खड़े होना केवल विचार नहीं, बल्कि जीवन का उद्देश्य हुआ करता था। नेता आदर्श होते थे, उनके चरित्र पर चर्चा होती थी और समाज का भविष्य बेहतर बनाने के सपने बुने जाते थे।

Samajvad: इक्कीसवीं सदी को लेकर एक टूटा हुआ सपना

1976 में प्रकाशित एक लेख में लेखक ने इक्कीसवीं सदी को जाति और वर्ग मुक्त समाज के रूप में देखने का पूर्वानुमान किया था। उस समय दुनिया भर में तीसरी दुनिया के देशों में मुक्ति संघर्ष चल रहा था। नक्सलबाड़ी आंदोलन युवाओं की नसों में दौड़ता था। साहित्य में मुक्तिबोध और निराला जैसे कवि युवाओं की चेतना को दिशा देते थे। “आज अमीरों की हवेली, गरीबों की होगी पाठशाला” जैसे नारे केवल कविता नहीं, बल्कि सामाजिक सपना थे।

उस दौर में अमीरी दिखाना शर्म की बात मानी जाती थी। अरबों-खरबों की शानो-शौकत का प्रदर्शन सामाजिक अपराध समझा जाता था। जमीन की सीमा तय थी। ज़मींदारी खत्म हो चुकी थी। अगर कोई कार रैली निकालता था तो समाजवादी युवा काले झंडे दिखाकर उसका विरोध करते थे।

यह भी पढ़े : https://livebihar.com/supreme-court-vote-bank-politics-terror-debate/

आज की हकीकत: सपनों के उलट समाज

आज जब इक्कीसवीं सदी का एक चौथाई हिस्सा बीत चुका है, तो वह सपना पूरी तरह टूट चुका है। न जातिवाद मिटा, न आर्थिक असमानता कम हुई। बल्कि दोनों बेतहाशा बढ़ीं। पहले पूंजीपति टाटा-बिरला तक सीमित थे, आज अंबानी-अडानी शीर्ष पर हैं। महलनुमा घर, हजारों करोड़ के विवाह, बेहिसाब अमीरी—अब न केवल सामान्य हो गए हैं, बल्कि समाज में स्वीकार भी कर लिए गए हैं। हैरानी की बात यह है कि अब इन पर न गुस्सा आता है, न विरोध होता है।

Samajvad: राजनीति की बदलती शक्ल और सादगी का अंत

पहले कर्पूरी ठाकुर जैसे नेता सादगी के प्रतीक थे। आज वही सादगी राजनीति से गायब हो चुकी है। राजनेताओं को अब महल, शाही कपड़े और चमक-दमक चाहिए। एक समय आधी बांह का साधारण कुर्ता ही राजनीति की पहचान हुआ करता था, लेकिन आज वही राजनीति शाही ठाठ-बाट में बदल चुकी है। सत्ता के साथ वैभव जुड़ गया है।

भ्रष्टाचार और सत्ता का गठजोड़

आज किसी को राजनेताओं का भ्रष्टाचार दिखाई नहीं देता। मुलायम सिंह यादव, मायावती और अब बिहार में लालू प्रसाद यादव के नए महलनुमा आवास जैसे उदाहरण सामने हैं। सैकड़ों करोड़ की लागत से बने इन भवनों को लेकर कोई सवाल नहीं करता। न कोई यह पूछता है कि यह धन कहां से आया? न कोई मांग करता है कि ऐसे धन से गरीबों की पाठशाला या अस्पताल बनें।

नक्सलबाड़ी से सत्ता के गलियारों तक

जो पीढ़ी कभी नक्सलबाड़ी के नाम पर सत्ता से भिड़ती थी, वही आज सत्ता के दरबार में तुरही बजाती नज़र आती है। समाजवादी पहचान अब सत्ता सुख की पहचान में बदल चुकी है। कभी लाल झंडा हाथ में लेकर अन्याय का विरोध किया जाता था, आज वही झंडा सत्ता की बालकनी में सजावटी वस्तु बन गया है।

Do Follow us. : https://www.facebook.com/share/1CWTaAHLaw/?mibextid=wwXIfr

असहमति की आवाज़ और डर का माहौल

आज हालत यह है कि कोई गायिका अगर प्रधानमंत्री पर टिप्पणी कर दे, तो उसे तलाशने के लिए पूरी व्यवस्था सक्रिय हो जाती है। असहमति अब लोकतंत्र का हिस्सा नहीं, बल्कि अपराध की तरह देखी जाती है। यह बदलाव केवल राजनीति का नहीं है, बल्कि समाज की पूरी सोच का बदलाव है।

संघर्ष की पीढ़ी बनाम सुविधा की पीढ़ी

जिस पीढ़ी ने इमरजेंसी का विरोध किया, सत्ता को चुनौती दी और बदलाव के लिए लड़ाई लड़ी, वही आज यह देखकर हैरान है कि समाज कहां से कहां पहुंच गया। कभी सामाजिक न्याय सर्वोच्च मूल्य था, आज व्यक्तिगत वैभव सर्वोच्च लक्ष्य बन गया है।

Samajvad: हम कहां से कहां आ गए हैं

यह पूरा लेख केवल स्मृतियों का सिलसिला नहीं, बल्कि एक सवाल है—हम कहां से चले थे और कहां पहुंच गए? जिस समाज में अमीरों की हवेली गरीबों की पाठशाला बनने का सपना देखा गया था, आज उस समाज में गरीबों की उम्मीदें अमीरों की दीवारों के नीचे दम तोड़ रही हैं। विचारों की जगह दिखावा और संघर्ष की जगह सुविधा ने ले ली है।

Do Follow us. : https://www.youtube.com/results?search_query=livebihar

Share This Article