पटना पुस्तक मेला: बस एक मुठ्ठी चावल, एक प्याला पानी, बच जाएगी विलुप्त होती ‘गौरैया’ – शैलेश कुमार सिंह

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shailesh singh

पटना पुस्तक मेले में घूमते हुए मेरी नजर एक गैलरी पर ठिठक गयी। उस गैलरी में एक ही तरह की चिड़िया की असंख्य तस्वीरे लगी हुई थी। चिड़िया कुछ जानी पहचानी लगी। अरे! ये तो हमारी प्यारी ‘गौरैया’ है। बचपन की पहली दोस्त। अक्सर आ के पास बैठ जाती थी। फुदक फुदक के उड़ती थी। चहचहाती थी और मैं उसकी आवाज की नकल करने की कोशिश करता था। ना जाने मेरे जैसे कितने बच्चों की पहली सहपाठी रही होगी ये ‘गौरैया’। उसके साथ खेलते देख मां हिदायद देती थी। उसे ज्यादा परेशान मत करना। उसके घोसले में मत झांकना। उसके बच्चों को मत छूना। मां मुठी भर दाना और एक छोटे कटोरे में पानी अक्सर उसके घोसले के पास रख दिया करती थी। कहती थी कि जिस घर मे गौरैया ने घोसला बना लिया वहां उसकी दुआ से सुख समृद्धि आती है।

स्मृतियों में विस्मृत था तभी मेरी नजर एक पोस्टर पर पड़ी लिखा था, जी नमस्ते! मैं हूं आपकी छुटकी, छोटी सी चिरैया….गौरैया! हम देखते देखते विलुप्ति के कगार पर आ गए हैं। आप इंटरनेट पर मेरी फ़ोटो देखते है लेकिन आपको याद दिला दूं मैं अभी जिंदा हूं और अपने अस्तित्व से लड़ रही हूं। आप पहल करेंगे तो मै बच जाऊंगी। आग्रह करती हूं, मेरे लिए झुरमुट वाले पेड़ लगाएं। घरों में मेरे घोसले के लिए जगह बनाएं। वादा करती हूं आपका घर, आंगन चहचहाहट से भर दूंगी—आपकी अपनी गौरैया।

मैं सोचने लगा क्या सचमुच अगली पीढ़ी को ‘गौरैया’ देखने को नही मिलेगी। कहा जाता है कि मनुष्य के शुरुआती दिनो से ही गौरैया उसके साथ है। एशिया, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका जहां भी मनुष्य ने घरौंदा बनाया, गौरैया भी घोसला बना के उसके साथ रही। कोई चार लाख साल से वो मनुष्य के साथ रहती आई है। दुनिया भर में गौरैया की आमतौर पे 6 प्रजातियों को देखा गया है। जिनके नाम हैं, ‘हाउस स्पैरो, ‘डेड सी स्पैरो’, ट्री स्पैरो’ स्पेनिश स्पैरो, सीड स्पैरो और रसेट स्पैरो। मैं जिसकी चर्चा कर रहा हूं वो ‘हाउस स्पैरो’ है जिसे ‘गौरैया’ कहा जाता है। बिहार के मिथिला में इसे ‘बागड़ा’ अंगिका में ‘बगरो’ और मगही में ‘खुदबुदी’ भी कहा जाता है। इस छोटी सी चिड़िया की उम्र करीब तीन साल होती है और ये 46 किलोमीटर प्रति घण्टे की रफ्तार से उड़ सकती है।

अब सवाल है हमारी प्यारी ‘गौरैया’ कैसे अस्तित्व के संकट में आ गयी। दरअसल पुराने खपरैल के घरों की जगह पक्के मकान बनने लगे। शुरू में तो इसमें ऊपर रोशनदान होते थे जहां अक्सर “गौरैया’ अपने घोसले बनाती थी लेकिन बाद में लोगों ने घरों को वातानुकूलित बनाने के चक्कर मे उपर के रोशनदान भी बंद कर दिए। बहुत से लोगो को तो चिड़िया का घर मे रहना पसंद भी नही था। उन्होंने लगे हुए घोसले उजाड़ दिए। गौरैया धान, चावल, घास के बीज और कीड़े खाती है। चावल के दाने लोगो ने रखने छोड़ दिये और घरों में ‘पेस्ट कंट्रोल’, के कारण कीड़े खत्म हो गए। ‘गौरैया’ भुखमरी की शिकार हो गयी। रही सही कसर कुओं और तालाबो की घटती संख्या ने पूरी की। उसके प्यास बुझाने के साधन भी नही रहे। खराब वातावरण और प्रदूषण ने भी उसका जीना हराम कर दिया। धीरे धीरे उसकी प्रजाति विलुप्त होने लगी। मनुष्य भूलने लगा है कि ये संसार उसके साथ पशु पक्षियों का भी है।

मानव इतिहास की इस प्राचीन साथी को बचाने के लिए 2013 में बिहार सरकार ने ‘गौरैया’ को राजकीय पक्षी घोषित किया लेकिन ये पक्षी तभी बचेगी जब मनुष्य उसे बचाने की वास्तविक पहल करेगा। समझेगा कि पशु, पक्षी हमारे जीवन बैलेंस के लिए भी आवश्यक है। कभी चीन में इन्ही कारणों से ‘गौरैया’ पूर्णतया विलुप्त हो गयी थी और उसके बाद वहां तरह तरह की व्याधियों में जन्म लिया था। बहुत थोड़े में गुजरा करती है उड़ती, फुदकती ‘गौरैया’। बस ‘एक मुठी अनाज, एक प्याला पानी और एक छोटा सा घोसला, बचा लेगा हमारे बच्चों की इस नन्ही साथी को। गैलरी के फोटो पर्यारण प्रेमी संजय कुमार के सौजन्य से लगाये गए हैं।

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