पुष्प रंजन (वरिष्ठ पत्रकार )
इमरान ख़ान, अभी भी पाकिस्तान में सलाखों के पीछे हैं। कब बाहर आएंगे? कहना कठिन है। उनके कई समर्थक मानते हैं कि इमरान पर राजनीति प्रेरित आरोप लगाए गए हैं। उन्हें जनवरी, 2025 में 14 साल की जेल की सज़ा सुनाई गई थी, जिसके कारण उन्हें सुलह वार्ता छोड़नी पड़ी थी, जो वह और उनकी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ पार्टी (पीटीआई) उस समय सरकार के साथ कर रही थी। शाहबाज़ शरीफ के फंदे युद्ध के बाद मज़बूत हुए हैं। सेना से हुई डील ने शहबाज़ शरीफ की कुर्सी मज़बूत कर दी, यह पाकिस्तान में विपक्ष के लिए चिंता का सबब है।
अप्रैल, 2022 में संसदीय विश्वास मत में इमरान ख़ान को पद से हटा दिया गया था और उसके बाद अगस्त, 2023 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। अधिकारी उनके खिलाफ़ कई मामलों की जांच कर रहे हैं, जिनमें भ्रष्टाचार, सत्ता का दुरुपयोग और राज्य के खिलाफ़ हिंसा भड़काने के आरोप शामिल हैं। पीटीआई का दावा है कि खान के खिलाफ़ सभी मामले राजनीति से प्रेरित हैं। इमरान ख़ान ने खुद सैन्य नेताओं पर ‘विदेशी साजिश’ के बूते पद से हटाने का आरोप लगाया था। उन्होंने पाकिस्तान के शक्तिशाली जनरलों की खुलकर आलोचना की थी। खान के उस बयान पर सेना के टॉप ब्रास भड़के हुए थे। हालांकि, सेना के जनरल राजनीति में हस्तक्षेप करने से इनकार करते हैं। यों, शाहबाज़ शरीफ ने जिस बेशर्मी से सैनिक कार्रवाई की राजनीति अपने देश में शुरू की है, उसमें सेना के जनरलों की भी हामी है।
जनता के बीच शहबाज़ और जनरल असीम मुनीर की जो छवि बनाई जा रही है, उसके अनुसार, ‘पाकिस्तान की सेना ने भारत के मिसाइल और ड्रोन हमलों का पुरज़ोर जवाब दिया है।’ एक फ़र्जी सर्वेक्षण ‘गैलप पाकिस्तान’ द्वारा किया गया, जिसमें बताया गया कि संघर्ष के बाद, 93 फीसद उत्तरदाताओं का सेना के प्रति अधिक अनुकूल दृष्टिकोण रहा है। संक्षिप्त संघर्ष ने शहबाज शरीफ की सरकार को पाकिस्तान की सेना के प्रमुख और इमरान खान के कथित प्रतिद्वंद्वी जनरल आसीम मुनीर को पदोन्नत करने के लिए भी प्रेरित किया। मुनीर को ‘रणनीतिक प्रतिभा और साहसी नेतृत्व’ के एवज में फील्ड मार्शल नामित किया गया, जिसकी पटकथा पहले से लिख दी गई थी।
मशहूर पाकिस्तानी पत्रकार नजम सेठी बताते हैं, ‘खान का अल्पकालिक भविष्य अंधकारमय है। सैन्य नेतृत्व उन्हें ऐसी कोई व्यवस्था देने के लिए प्रेरित या बाध्य नहीं है, जो उनके सत्ता में लौटने का मार्ग प्रशस्त करे।’ इसके बरअक्स, पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ पार्टी (पीटीआई) के नेता शेख वकास अकरम बोलते हैं, ‘इमरान खान का भविष्य, किसी भी संदेह से परे, उज्ज्वल है। पाकिस्तान के 24 करोड़ लोगों को पाकिस्तान को बहुआयामी संकट से बाहर निकालने की नीतियों पर अपना अटूट विश्वास, और भरोसा है।’
लेकिन क्या इमरान ख़ान को इस मुसीबत से बाहर निकालने के वास्ते बैक डोर चैनल से कोई बातचीत भी हो रही है? ख़ान ने सरकार और सेना के साथ ऐसी किसी बातचीत से इनकार किया है। पिछले हफ़्ते इमरान ख़ान ने एक ऑनलाइन पोस्ट में इस बात से इनकार किया कि ऐसी किसी बातचीत के लिए उनसे संपर्क किया गया था। खान ने बातचीत की खबरों को ‘पूरी तरह से झूठा’ बताया। राजनीतिक टिप्पणीकार, आस्मा शिराजी के अनुसार, ‘खान का भविष्य मुख्यतः उनके अपने व्यवहार पर निर्भर करता है।’ आस्मा शिराजी ने कहा, ‘खान वर्तमान में अपनी रिहाई के लिए बातचीत करने की स्थिति में नहीं हैं, जैसा कि वे महीनों पहले थे।’
लेकिन, इमरान ख़ान की पार्टी, ‘पीटीआई’ में सूचना सचिव के रूप में काम करने वाले अकरम सॉफ्ट रुख़ अख्तियार करते हुए बताते हैं कि पाकिस्तान के सशस्त्र बल संविधान के तहत गैर-पक्षपाती और गैर-राजनीतिक हैं। इस बयान से यही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि पीटीआई बैकफुट पर चल रही है। उनके समर्थक सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा दमन के डर से सड़कों पर सार्थक विरोध प्रदर्शन शुरू करने और उसे जारी रखने में असमर्थ दिख रहे हैं। पीटीआई पार्टी में सूचना सचिव अकरम के अनुसार, ‘भारत के साथ हाल ही में हुए संघर्ष के बाद सेना की लोकप्रियता को चेयरमैन इमरान खान की अवैध कैद से रिहाई को जोड़ना, हमारे विचार से तालमेल नहीं रखता है।’
दरअसल, पीटीआई इस समय नेतृत्व संकट का सामना कर रही है। पूर्व प्रधानमंत्री के जेल में होने के कारण पीटीआई के भीतर दरारें तेजी से दिखाई देने लगी हैं। पार्टी के भीतर गुट बना चुके नेता, परस्पर विरोधी एजेंडे पर काम कर रहे हैं। कई रिपोर्टों में पीटीआई के शीर्ष नेताओं, जिनमें असद क़ैसर, शिबली फ़राज़, उमर अयूब, गौहर अली और शेर अफ़ज़ल शामिल हैं, के बीच मतभेदों को उजागर किया गया है। पीटीआई के भीतर एक करिश्माई और मुखर व्यक्ति शेर अफ़ज़ल ने पार्टी नेतृत्व की नीतियों पर अपनी आपत्ति दर्ज़ की है। पीटीआई के मुखर नेता शेर अफ़ज़ल मारवात एक अलग गुट के साथ अपनी ताक़त का ख़म ठोक रहे हैं। पीटीआई जिस तरह अंदरूनी विवाद की शिकार है, उसमें कहीं न कहीं पीएम शहबाज़ शरीफ के राजनीतिक स्लीपर सेल की भूमिका है।
25 से 30 मई तक प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ तुर्की, ईरान, अजरबैजान और ताजिकिस्तान के दौरे पर हैं। यह दिलचस्प है कि शहबाज़ शरीफ चार ऐसे प्रमुख इस्लामी देशों से संपर्क कर रहे हैं, जो गैर-अरब देश भी हैं। तुर्की नाटो का सदस्य है, जबकि ईरान खुद को एक पश्चिमी विरोधी देश के रूप में पेश करता है। डोलमाबाचे पैलेस में शहबाज़ शरीफ और एर्दोआन की मुलाक़ात पर तुर्की के दैनिक सबा ने कहा, ‘बातचीत दोनों देशों के बीच रणनीतिक साझेदारी को मजबूत करने पर केंद्रित थी।’ यह दिलचस्प है, दोनों नेताओं ने ‘आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई’ पर भी चर्चा की, हालांकि जब वे ‘आतंकवाद’ कहते हैं तो उनका मतलब कुछ और होता है। अंकारा, ‘कुर्दिश पीकेके’ को ‘आतंकवादी’ बताता है, हालांकि वह समूह अब भंग हो चुका है। इस्लामाबाद, बलूच अलगाववादियों के प्रयासों को ‘आतंकवाद’ के नुक्ते-नज़र से देखता है।
तुर्की की यात्रा के बाद, पाकिस्तानी नेता ईरान गए। ईरान में शहबाज़ शरीफ का स्वागत सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खामेनेई ने किया। यह प्रतीकात्मक बैठक थी, जिसमें ईरानी राष्ट्रपति ने भाग लिया। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ, अज़रबैजान और ताजिकिस्तान भी जायेंगे। ईरान के पास ताजिकिस्तान में एक ड्रोन फैक्टरी है, जो उसके सेंट्रल एशिया तक विस्तारित पहुंच वाली मंशा को दर्शाता है। क्या भारत को अपनी रणनीति में कुछ बदलाव करना चाहिए? भारत सांपनाथ (इमरान ख़ान) को चुने, या नागनाथ (शहबाज़ शरीफ) को? इस सवाल पर विचार ज़रूरी है।