“भारत की राजनीति में वंशवाद की जंजीरें: शशि थरूर का साहसिक लेख बना आत्मचिंतन की शुरुआत | 7 बड़ी बातें”

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कांग्रेस नेता शशि थरूर का लेख भारतीय राजनीति में वंशवाद पर बहस छेड़ता हुआ
Highlights
  • • शशि थरूर ने वंशवाद पर सवाल उठाते हुए योग्यता आधारित राजनीति की वकालत की। • कांग्रेस नेताओं प्रमोद तिवारी, रशीद अलवी और उदित राज ने दी प्रतिक्रिया। • भाजपा ने कहा — थरूर की टिप्पणी राहुल और तेजस्वी पर अप्रत्यक्ष हमला। • थरूर और कांग्रेस नेतृत्व के बीच संबंध पहले से तनावपूर्ण। • वंशवाद अब हर दल में जड़ जमा चुका है — कांग्रेस से लेकर एनसीपी, डीएमके तक। • परिवारवाद लोकतंत्र में अवसर-समानता को कमजोर करता है। • थरूर का संदेश — नेतृत्व जन्म नहीं, कर्म से तय होना चाहिए।

भारत की राजनीति में वंशवाद पर शशि थरूर का प्रहार

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और सांसद डॉ. शशि थरूर ने अपने हालिया लेख में भारतीय राजनीति के सबसे ज्वलंत मुद्दे — परिवारवाद — पर तीखी टिप्पणी की है। थरूर ने लिखा कि अब वक्त आ गया है जब भारतीय राजनीति को वंशानुगत नेतृत्व से निकलकर योग्यता आधारित लोकतंत्र की दिशा में बढ़ना चाहिए।
उनकी यह टिप्पणी न केवल सत्तारूढ़ भाजपा बल्कि स्वयं कांग्रेस पार्टी के भीतर भी गहरी हलचल पैदा कर गई है।

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कांग्रेस में उठी प्रतिक्रिया: परिवारवाद पर भीतर ही भीतर मंथन

थरूर के विचारों से सबसे पहले असहमति जताई कांग्रेस के वरिष्ठ नेता प्रमोद तिवारी ने। उन्होंने कहा कि नेहरू परिवार ने भारत के लिए जो बलिदान और समर्पण दिखाया है, उसकी तुलना किसी अन्य परिवार से नहीं की जा सकती। तिवारी ने यह सवाल भी उठाया कि क्या भाजपा में कोई ऐसा परिवार है जिसने देश के लिए अपना जीवन न्योछावर किया हो?
उनके अनुसार, पंडित नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने अपनी योग्यता, समर्पण और राष्ट्रसेवा से लोकतंत्र की जड़ें मज़बूत की हैं।

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रशीद अलवी और उदित राज ने दिया जवाब

कांग्रेस नेता रशीद अलवी ने कहा कि लोकतंत्र में अंतिम निर्णय जनता का होता है — कोई यह तय नहीं कर सकता कि किसी व्यक्ति को सिर्फ इसलिए चुनाव न लड़ने दिया जाए क्योंकि उसके पिता सांसद थे।
वहीं उदित राज ने इस बहस को व्यापक करते हुए कहा कि परिवारवाद केवल राजनीति तक सीमित नहीं है।

“डॉक्टर का बेटा डॉक्टर बनता है, व्यापारी का बेटा व्यापारी बनता है, तो फिर राजनीतिज्ञ का पुत्र राजनीतिज्ञ क्यों नहीं बन सकता?”
उन्होंने यह भी माना कि भारतीय राजनीति में टिकट वितरण जातीय और पारिवारिक आधार पर होता है, जिससे अवसर-समानता प्रभावित होती है।

भाजपा ने थरूर की टिप्पणी का उठाया राजनीतिक लाभ

इस पूरे विवाद पर भाजपा प्रवक्ता शहज़ाद पूनावाला ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि थरूर का लेख भारत की राजनीति में जमे “परिवार-व्यवसाय” पर एक सटीक टिप्पणी है। उन्होंने इसे राहुल गांधी और तेजस्वी यादव जैसे नेताओं पर अप्रत्यक्ष प्रहार बताया। भाजपा इसे अपने राजनीतिक नैरेटिव के समर्थन में उपयोग कर रही है कि विपक्षी दलों में नेतृत्व योग्यता से नहीं, बल्कि वंश से तय होता है।

थरूर और कांग्रेस नेतृत्व के बीच पुराना तनाव

यह कोई पहला मौका नहीं है जब शशि थरूर ने पार्टी लाइन से अलग स्वर उठाया हो।
उनका कांग्रेस नेतृत्व से संबंध पहले से ही तनावपूर्ण रहा है — खासतौर पर जब उन्होंने मल्लिकार्जुन खड़गे के खिलाफ पार्टी अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ा था।
उनका यह नया लेख कांग्रेस की नीतिगत असहजता और आंतरिक विचार-विभाजन को एक बार फिर सामने ले आया है।

भारतीय राजनीति का ‘वंश मॉडल’: हर दल में फैली परंपरा

थरूर ने अपने लेख में कहा कि जब राजनीतिक शक्ति वंश के आधार पर तय होती है, तब शासन की गुणवत्ता गिर जाती है।
दरअसल, नेहरू-गांधी परिवार का प्रभुत्व आजादी के बाद से ही कांग्रेस का केंद्र रहा है, लेकिन अब हर दल में यह प्रवृत्ति दिखाई देती है —
• समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह यादव परिवार,
• एनसीपी में शरद पवार परिवार,
• डीएमके में करुणानिधि परिवार,
• अकाली दल में बादल परिवार।

सत्ता की यह विरासत अब एक तरह से राजनीतिक उत्तराधिकार बन चुकी है।

परिवारवाद के पक्ष और विपक्ष की दलीलें

समर्थक तर्क देते हैं कि यह अनुभव की निरंतरता और जनप्रियता की विरासत है।
लेकिन आलोचक कहते हैं कि जब कोई बच्चा सत्ता और संसाधनों के दायरे में पलता है, तो उसे राजनीति में स्वाभाविक लाभ मिलता है, जिससे समान अवसर की अवधारणा कमजोर होती है।

थरूर की यह चिंता लोकतंत्र की आत्मा से जुड़ी है — जब राजनीति लोकसेवा के बजाय पारिवारिक पेशा बन जाती है, तो लोकतंत्र गणतंत्र से कुलीनतंत्र की ओर बढ़ने लगता है।

कांग्रेस के लिए आत्ममंथन का मौका

थरूर का संदेश यह नहीं कि नेहरू-गांधी परिवार का योगदान नकारा जाए, बल्कि यह कि उस ऐतिहासिक वैधता को लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व में बदलना आवश्यक है।
उनका आग्रह है कि कांग्रेस यदि वास्तव में पुनर्जीवित होना चाहती है, तो उसे वंशवाद से बाहर निकलकर योग्यता और जनसेवा आधारित नेतृत्व को प्राथमिकता देनी होगी।

यह संदेश अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा और अन्य दलों के लिए भी चुनौती है, क्योंकि परिवारवाद का असर हर राजनीतिक संगठन में मौजूद है।

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लोकतंत्र के लिए चेतावनी की घंटी

थरूर का लेख एक राजनीतिक चेतावनी की तरह है —
अगर परिवारवाद को चुनौती नहीं दी गई तो लोकतंत्र “जनता का शासन” से “परिवार का शासन” बन जाएगा।
उनकी यह आवाज़ भले ही कांग्रेस में असुविधा पैदा करे, मगर यह भारतीय राजनीति के लिए आवश्यक आत्मसंवाद की शुरुआत है।

निष्कर्ष: कर्म से तय हो नेतृत्व, जन्म से नहीं

थरूर का यह लेख सिर्फ आलोचना नहीं, बल्कि नए राजनीतिक नैरेटिव की नींव है —
एक ऐसा भारत जहाँ नेतृत्व का निर्धारण कर्म से हो, जन्म से नहीं।
उनकी अपील है कि भारतीय लोकतंत्र को वंशवाद की जंजीरों से मुक्त कर एक नए, योग्यता-आधारित भविष्य की ओर बढ़ना होगा।

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