भोजपुरी नाटकों लोकगीतों के बेताज बादशाह भिखारी ठाकुर का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। भोजपुरी समाज ही नहीं नाट्य कला, नृत्य शैली और लोककला में रूचि रखने वाला हर कोई भिखारी ठाकुर को जनता है। कला-संस्कृति विषय का कोई भी काव्य भिखारी ठाकुर की रचनाओं के बिना अधूरा रह जाएगा। भिखारी ठकुर बहुआयामी प्रतिभा के व्यक्ति थे। वे कवि, गीतकार, नाटककार, नाट्य निर्देशक, लोक संगीतकार और अभिनेता सब थे। उनकी मातृभाषा भोजपुरी थी और उन्होंने भोजपुरी को ही अपने काव्य और नाटक की भाषा बनाई थी। 10 जुलाई 1971 को भोजपुरी के महान कलाकार ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया था , लेकिन स्वर्गवास के पांच दशक बाद भी लगता है भिखारी ठाकुर हमारे आस-पास ही हैं। 10 जुलाई को भिखारी ठाकुर की पुण्यतिथि पर प्रस्तुत है उनके जीवन की कहानी..
जीवन परिचय
भिखारी ठाकुर का जन्म 18 दिसंबर 1887 को बिहार के सारण (छपरा) जिले के कुतुबपुर (दियारा) में हुआ था। उनके पिता का नाम दल सिंगार ठाकुर और माता का नाम शिवकली देवी था। उनके पिता अपना पारंपरिक पेशा ही करते थे। लोगों की हजामत बनाना। पूजा-पाठ, शादी-ब्याह और जन्म-मृत्यु के अवसरों पर होने वाले कार्यक्रमों से भी उनकी गृहस्थी चलती थी। भिखारी ठाकुर की पढ़ाई लिखाई बहुत देर से शुरू हुई । जब वे 9 वर्ष की उम्र में पहुंचे तब पहली बार स्कूल गए, लेकिन अगले 1 वर्ष तक वो वर्णमाला का एक अक्षर भी नहीं सीख पाए। पढ़ाई में मन नहीं लगा तो विधिवत शिक्षा को त्याग कर गाय चराने के कार्य में लग गए। उम्र बढ़ी तो खानदानी पेशा शुरू कर दिया, यानी कि लोगों के हजामत बनाने लगे।
जीविकोपार्जन के लिए पलायन
भिखारी ठाकुर के नाटकों एवं गीतों में पलायन का दर्द झलकता है। कहना नहीं होगा कि जो दर्द उनके गीतों और रचनाओं में झलकता है वह उनके जीवन का हिस्सा था। किशोरावस्था में ही भिखारी ठाकुर को जीविकोपार्जन के लिये गांव छोड़कर खड़गपुर जाना पड़ा। बाहर जाकर भिखारी ठाकुर ने पैसा तो बहुत कमाया लेकिन उनको अपने काम में मन नहीं लग रहा था। उनका मन तो रामलीला में बस गया था। भिखारी ठाकुर जगन्नाथ पुरी चले गये। वहां उन्होंने रामलीली मंडली बनाई और उसका मंचन करने लगे। बाद में वे इसी में रच बस गए। फिर अचानक उन्होंने गांव लौटने का फैसला कर लिया। अपने गाँव आकर उन्होने एक नृत्य मण्डली बनायी और रामलीला खेलने लगे। इसके साथ ही वे गाना गाते एवं सामाजिक कार्यों से भी जुड़े। इसके साथ ही उन्होने नाटक, गीत एवं पुस्तकें लिखना भी आरम्भ कर दिया। उनकी पुस्तकों की भाषा बहुत सरल थी जिससे लोग बहुत आकृष्ट हुए। उनकी लिखी हुई किताबें वाराणसी, हावड़ा एवं छपरा से प्रकाशित हुईं।
रामलीला ने बदल दिया जीवन
गांव से काम की तलाश में भिखारी ठाकुर पहले खड़गपुर गए उसके बाद वे मेदिनीपुर चले गए। मेदिनीपुर में ही भिखारी ठाकुर के जीवन की सबसे प्रमुख घटना रही। वहां उन्होंने रामलीला देखा और उनके भीतर का कलाकार धीरे-धीरे उन पर हावी होना शुरू हो गया। हाथ से उस्तरे छूटते गए और मुंह से कविताओं का प्रवाह फूटना शुरू हो गया। भिखारी ठाकुर वापस अपने गांव आ गए और गांव में ही रामलीला का मंचन करना शुरू कर दिया। लोगों ने उनकी रामलीला की काफी सराहना की। अब भिखारी ठाकुर को ये समझ आ गया कि इसी क्षेत्र में उनका भविष्य है। हालांकि भिखारी ठाकुर के परिजन उनके काम से खुश नहीं थे। घर में उनके का मका भारी विरोध हुआ लेकिन उन्हें तो कला के क्षेत्र में नई छाप छोड़नी थी। धीरे-धीरे सिंगार ठाकुर का बेटा बिहारी ठाकुर के नाम से जाना जाने लगा।
भोजपुरी के शेक्सपियर कहे गए भिखारी ठाकुर
भिखारी ठाकुर भोजपुरी के समर्थ लोक कलाकार, रंगकर्मी लोक जागरण के सन्देश वाहक, नारी विमर्श एवं दलित विमर्श के उद्घोषक, लोक गीत तथा भजन-कीर्तन के अनन्य साधक थे। भिखारी ठाकुर बहुआयामी प्रतिभा के व्यक्ति थे। भिखारी ठाकुर का रचनात्मक संसार बेहद सरल है- देशज और सरल। इसमें विषमताएँ, सामंती हिंसा, मनुष्य के छल-प्रपंच- ये सब कुछ भरे हुए हैं भिखारी ठाकुर की मातृभाषा भोजपुरी थी और उन्होंने भोजपुरी को ही अपने काव्य और नाटक की भाषा बनाया। भिखारी ठाकुर की रचनाओं का ऊपरी स्वरूप जितना सरल दिखाई देता है, भीतर से वह उतना ही जटिल है और हाहाकार से भरा हुआ है। वे अपने पाठक और दर्शक पर जो प्रभाव डालते हैं, वह इतना गहरा होता है कि इससे पाठक और दर्शक का अंतर जगत उलट-पलट जाता। उस जमाने के महान विद्वान राहुल सांकृत्यायन ने उनको ‘अनगढ़ हीरा’ कहा था तो जगदीशचंद्र माथुर ने ‘भरत मुनि की परंपरा का कलाकार’। उनको ‘भोजपुरी का शेक्सपीयर’ भी कहा गया।
भिखारी ठाकुर की प्रसिद्ध रचनाएं
उनकी प्रसिद्ध रचनाओं में बिदेसिया, भाई-बिरोध, बेटी-बियोग या बेटि-बेचवा, कलयुग प्रेम, गबरघिचोर, गंगा असनान, बिधवा-बिलाप, पुत्रबध, ननद-भौजाई, बहरा बहार आदि शामिल हैं. भिखारी ठाकुर का कथा संसार किसी किताबी विमर्श के आधार पर कल्पनालोक के चित्रण पर आधारित नहीं था. किताबी ज्ञान के नाम पर भिखारी ठाकुर बिल्कुल भिखारी रह गए थे. उनकी लेखनी के पात्र और घटनाओं में उनका खुद का भोग और देखा समझ यथार्थ था. भिखारी ने शब्द ज्ञान से लेकर चिंतन के असीमित क्षेत्र का ज्ञान तक लोकजीवन से ग्रहण किया था और यही उनकी रचनाओं की सबसे बड़ी उपलब्धि भी रही.
भिखारी ठाकुर की रचनाएं समाज का दर्पण
खुद किताबों से दूर रहे, बमुश्किल अक्षर ज्ञान प्राप्त कर पाने वाले भिखारी ठाकुर पर अब तक सैकड़ों किताबें लिखी जा चुकी हैं। कई विश्वविद्यालयों में उन पर शोध कार्य हो रहे हैं। उनकी रचनाएं इतनी विस्तृत हैं कि तत्कालीन बिहार का पूरा सामाजिक विवरण उनके कुछ नाटकों के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता है।उनके नाटकों में समाज की जिन समस्याओं पर प्रहार किया गया वे तमाम समस्याएं आज भी मौजूद हैं। , पलायन, विस्थापन , स्त्री चेतना, वृद्धों, विधवाओं आदि पर लिखे गए बिहारी साहित्य की आवश्यकता आज के समाज को भी उतनी ही है जितनी पहले थी।