सुप्रीम कोर्ट के सवालों से ममता बनर्जी एकदम घिर गई है।सवाल तब भी गहरे थे जब ममता बनर्जी के राज में संदेशखाली की लपटें धधकती रहीं,जब चुनावी हिंसा में बेगुनाह ममता विरोधियों के घर बार उजड़ते रहे,जब सीबीआई और ईडी के अधिकारियों को पीटा जाता रहा,जब राजभवन पर भी बदनामी के फंदे कसे जाते रहे और जब अराजक हालात सिर चढ़कर बोलते रहे।अब गनीमत है कि सुप्रीम कोर्ट ने डॉक्टर रेप मर्डर केस में स्वत: संज्ञान लिया और राजनीतिक हलकों में चर्चित दीदी की सरकार की घिग्घी बंधने लगी।इस एक मामले ने इतना तूल पकड़ा न होता तो शायद यह भी किसी कोने में दम तोड़ चुका होता, जैसे संदेशखाली के पीड़ितों की कहानी सुनहरे आसमान में उड़ती चली गई और जैसे चुनाव बाद हिंसा में टीएमसी विरोधियों पर ढाए गए जुल्मों सितम की कहानी यूं ही दम तोड़ गई। ये तो डॉक्टरों की हड़ताल से देश भर में चिकित्सा व्यवस्था ठप नहीं होती और देश भर के डॉक्टर सड़कों पर नहीं उतरे होते तो यह संभव था कि यह मामला भी नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह जाती।
स्वत:संज्ञान लेने का ही असर यह देखिए कि कोलकाता हाईकोर्ट में ममता सरकार की पैरवी करने वाले स्वनामधन्य वकील और कांग्रेस के जाने माने नेता कपिल सिब्बल इस संज्ञान लेने की तारीफ करते नजर आए। कोर्ट के सवालों पर अनेक बार बंगाल सरकार की पैरोकारी कर रहे सिब्बल निरुत्तर नजर आए। अदालत ने साफ कहा कि अब तक ऐसा होते कभी नहीं देखा। अदालत ने विसंगतियों पर सवाल उठाए। पोस्टमार्टम होने के बाद अप्राकृतिक मौत की प्रविष्टि दर्ज करना हैरान करने वाला है।एफआईआर दर्ज करने में देरी से लेकर पुलिस की ढीली कार्रवाई, राज्य सरकार की लापरवाही और मामले को रफा-दफा करने के कोशिश खुद सच उजागर कर देती है। दरिंदगी की शिकार डॉक्टर के माता-पिता को गुमराह किया जाना और शव दिखाने में देरी करना तथा इसे आत्महत्या बताने की कोशिशें गुनाह से कम तो नहीं है।एफआईआर भी पिता के जोर देने पर दायर की गई। पूर्व प्रिंसिपल डॉ संदीप घोष के बारे में जो सच्चाई सामने आ रही है वो बेहद शर्मनाक है।फिर भी ममता सरकार ने उन पर कार्रवाई नहीं की बल्कि दूसरे अस्पताल में पदस्थापित कर दिया।
पशु प्रवृत्ति जैसी यौन विकृति से ग्रस्त शख्स संजय राय की सिविल पुलिस वोलंटियर के रूप में अस्पताल में तैनाती एक अलग कहानी है। सिविल पुलिस वोलंटियर के रूप में ऐसे न जाने कितने सिरफिरों की तैनाती जगह जगह की गई होगी। भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद डॉ संदीप घोष की तैनाती इस बात को उजागर करने के लिए काफी है कि ममता बनर्जी का राजपाट कैसे चल रहा है। लेकिन इन सवालों पर देश के लिबरल बुद्धिजीवियों की जमात एकदम मौन है।यह वाकया वास्तव में यदि उन प्रांतों में हुआ होता जहां भाजपा की सरकारें हैं, तो इस बिरादरी का शोर और आसमान सिर पर उठा लेना देखते बनता।आखिर इस जमात की चुप्पी यह तो बता ही जाती है कि देश में बर्बरता और हिंसा के लिए अलग अलग परिभाषाएं और आलोचना तथा विरोध के भी अलग अलग मापदंड हैं।
बंगाल में हिंदुओं पर और टीएमसी विरोधियों पर ज़ुल्म होते रहते हैं तब केंद्र की मोदी सरकार समेत सभी न्यायवादी संस्थाएं मूकदर्शक बनी रही।शायद इसी मानसिकता ने भाजपा को इस बार लोकसभा चुनावों में पहले के बनिस्पत पीछे धकेल दिया। जनता आखिर कब तक सहन करती रहेगी। किसी के विरोध में लोग उमड़कर सड़कों पर आकर मार खाते रहें और कोई उनके साथ खड़ा तक नहीं रहना चाहे तो यह कब तक चलेगा? भाजपा के समर्थन के चलते जिस आबादी की दुर्दशा बंगाल में होती रही उनके साथ केंद्र सरकार भी खड़ी नहीं हो सकी तो स्वाभाविक है कि मार खाए लोग पस्त पड़ जाएंगे। बंगाल में ममता बनर्जी के राजपाट के दौरान विरोधियों पर जिस माफिक अत्याचार किए जाते रहे उन पर किसी ने संज्ञान लिया होता तो शायद ऐसे हालात नहीं बनते। ऐसी ही मनमर्जी से शासन करने और मनमाफिक संदेशखाली के संदेशों को कुचलने वाली प्रवृत्ति शासक को कभी न कभी भुगतनी तो पड़ेगी ही।
बर्बरता और पक्षपातपूर्ण हमलों की घटनाओं पर भी स्वत:संज्ञान लिया गया होता तो संस्कारों का धनी बंगाल ऐसी बर्बरता के लिए कभी सूर्खियों में नहीं आता।यह सब इसलिए संभव हो पाया कि बंगाल ने देश भर के डॉक्टरों को सड़क पर ला खड़ा किया। देश के अस्पतालों की चिकित्सा व्यवस्था ठप पड़ गई। यह इससे सर्वोच्च न्यायालय पर स्वत:संज्ञान लेने का दबाव बना। इसके बाद ही ममता बनर्जी सरकार और बंगाल पुलिस प्रशासन का विद्रूप और बिगड़ैल चेहरा सामने आ सका। बंगाल में चुनाव के बाद हिंसा से लेकर केंद्रीय एजेंसियों पर हमलों को भी गंभीरता से लेने की जरूरत थी। बेगुनाहों पर ज़ुल्म और बहू बेटियों से पाशविकता की क्रूर घटनाओं पर भी समय रहते संज्ञान लेने से बात बनती और बंगाल को सामूहिक दुष्कर्म की ऐसी घटना न देखनी पड़ती।