छुआछूत और भेदभाव के मुखर विरोधी स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती – पुण्यतिथि पर विशेष: डॉ. ऐश्वर्या झा

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aishwarya jha
Aishwarya Jha

स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती जैसे युगपुरुष सदियों में एक-दो ही जन्म लेते हैं। अपने महान कार्यों से उन्होंने राष्ट्र एवं समाज पर अमिट छाप छोड़ी है। लेकिन क्या आज की पीढी वास्तव में स्वामी श्रद्धानन्द जी से परिचित है? स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती भारत के निर्भीक स्वतंत्रता सेनानी, महान शिक्षाविद, आर्य समाज के प्रचारक, समाज सुधारक एवं पत्रकार थे। वे ऐसे राष्ट्रभक्त थे जिन्होंने अपना सर्वस्व स्वदेश, स्वराज्य ,स्वधर्म,स्वभाषा एवं शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिए समर्पित कर दिया। स्वामी श्रद्धानन्द जी का जन्म 22 फरवरी 1856 को पंजाब प्रान्त के जालंधर जिले के तलवन नामक कस्बे में हुआ। 23 दिसंबर, 1926 को अब्दुल रशीद नाम के एक इस्लामी कट्टरपंथी ने स्वामी श्रद्धानंद जी की हत्या कर दी थी। स्वामी श्रद्धानंद जी के बलिदान दिवस पर हम सब उनकी महानता को जान कर ही उन्हें सच्ची स्मरणांजलि दे पाएंगे।

स्वामी श्रद्धानन्द जी का जन्म का नाम बृहस्पति था किन्तु परिवार में वह मुंशीराम के नाम से ही जाने गए। उनके तीन भाई और दो बहनें थीं। सबसे छोटे होने के कारण वे परिवार में सबके लाडले थे। उनके पिता नानकचंद विज पुलिस इंस्पेक्टर के पद पर कार्यरत थे। सुख- सुविधाएं तथा परिवार के प्यार से मुंशीराम का जीवन भोग -विलास में डूबता जा रहा था। इसी अस्थिर, निरंकुश जीवन में उनका विवाह शिवा देवी से हुआ। जीवन में स्थिरता दयानन्द सरस्वती से मिलने और पत्नी के पतिव्रत धर्म से बदलाव आया। किसी का जीवन अंधकार से प्रकाश की ओर किस प्रकार जाता है और उसे ‘कल्याण मार्ग का पथिक’ बना देता है, उसका सर्वोत्कृष्ट उदाहरण स्वामी श्रद्धानन्द जी का जीवन है।

स्वामी श्रद्धानन्द जी का मानना था कि शिक्षा सामाजिक परिवर्तन का एक शक्तिशाली साधन है। लाहौर में वकालत की पढ़ाई पूरी की थी। अंग्रेजी शिक्षा के कारण वे नास्तिक हो गए थे किंतु जब उन्होंने वाराणसी में महर्षि दयानंद के वेद प्रचार कार्यक्रम में हिस्सा लिया तो वह उनसे बहुत प्रभावित हुए।

कुछ इतिहासकार के मत के अनुसार स्वामी श्रद्धानन्द पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सबसे पहले गांधी को महात्मा कहकर बुलाया। गांधी जब दक्षिणी अफ्रीका में थे तब भी दोनों एक-दूसरे को चिट्ठियां लिखा करते थे। 1915 में जब वह भारत वापस आए तो वह पंडित मदन मोहन मालवीय के साथ स्वामी जी से मिलने गए। उसी सभा में पहली बार स्वामी श्रद्धानंद ने गांधी को महात्मा कहकर बुलाया था।

शिक्षा आश्रम (गुरुकुल) की स्थापना के लिए दान इकट्ठा करने के लिए वह लखनऊ से पेशावर तक तथा दक्षिण में मद्रास तक गए, तब जाकर 40 हजार रुपए इकट्ठे करके 21, 22, 23 और 24 मार्च 1902 को मुंशी अमन सिंह के दान दिए गए और गांव कांगड़ी में गुरुकुल की स्थापना की, वहीं से दिन-रात आर्य समाज के कार्य में लग गए। गुरुकुल कांगडी विश्वविद्यालय की स्थापना हरिद्वार में कर शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति की। वहां अपने बेटे हरीश्चंद्र और इंद्र को सबसे पहले प्रवेश करवाया। शिक्षा के क्षेत्र में आचारवान व्यक्ति की महती आवश्यकता है। चरित्रवान व्यक्तियों के अभाव में महान से महान व धनवान से धनवान राष्ट्र भी समाप्त हो जाते हैं। उन्होंने किसी भी प्रकार के भेदभाव का मुखर विरोध किया। उन्होंने समाज के हर वर्ग में जनचेतना जगाने का कार्य किया। उन्होंने प्रबल सामाजिक विरोधों के बावजूद अपनी बेटी अमृत कला, बेटे हरिश्चद्र व इंद्र का विवाह जातिगत समस्त बंधनों को तोड़ कर कराया। उनका विचार था कि छुआछूत ने इस देश में अनेक जटिलताओं को जन्म दिया है।

स्वामी श्रद्धानन्द का विचार था कि अज्ञान, स्वार्थ व प्रलोभन के कारण धर्मांतरण हो रहे हैं। उनका मानना था कि बिछुड़े स्वजनों की शुद्धि करना देश को मजबूत करने के लिए परम आवश्यक है। इसीलिए, स्वामी जी ने भारतीय हिन्दू शुद्धि सभा की स्थापना की और दो लाख से अधिक मलकानों को शुद्ध किया। 12 अप्रैल 1917 को मायापुर वाटिका कनखल में संन्यास ग्रहण कर उन्होंने अपना नाम स्वामी श्रद्धानंद रखवाया। वर्ष 1919 में जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद अमृतसर कांग्रेस अधिवेशन के स्वागत समिति के अध्यक्ष के रूप में अपने संबोधन में उन्होंने कहा था कि “सामाजिक भेदभाव के कारण आज हमारे करोड़ भाइयों के दिल टूटे हुए हैं, जातिवाद के कारण इन्हें काट कर फेंक दिया हैं, भारत मां के ये लाखों बच्चे विदेशी सरकार के जहाज का लंगर बन सकते है, लेकिन हमारे भाई नहीं क्यों?

मैं आप सभी भाइयों और बहनों से यह अपील करता हूं कि इस राष्ट्रीय मंदिर में मातृभूमि के प्रेम के पानी के साथ अपने दिलों को शुद्ध करें और वादा करें कि ये लाखों-करोड़ों अब हमारे लिए अछूत नहीं रहेंगे, बल्कि भाई-बहन बनेंगे। अब उनके बेटे और बेटियां हमारे स्कूलों में पढ़ेंगे, उनके पुरुष और महिलाएं हमारे समाजों में भाग लेंगे।

आजादी की हमारी लड़ाई में वे हमारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होंगे और हम सभी अपने राष्ट्र की पूर्णता का एहसास करने के लिए हाथ मिलाएंगे।” दलितों को धार्मिक स्थलों में प्रवेश नहीं दिए जाने से वह बहुत आहत थे। मनुष्य का मनुष्य से ऐसा बरताव उन्हें कचोटता था। स्वामीजी ने दलितों के साथ हो रहे छुआछूत का मुखर विरोध किया और हवन यज्ञ में साथ बिठाकर सदियों से चली रही असमानता को खत्म करने का काम किया। उस समय कट्टरवादियों ने उनका विरोध भी किया लेकिन वह सामाजिक असमानता के खिलाफ लड़ाई लड़ते रहे। आज के दलित वोट बैंक राजनीति के विपरीत उन्होंने दलित शिक्षा एवं छूआछूत का मुखर विरोध किया।

स्वामी श्रद्धानन्द का मानना था कि राष्ट्र धर्म को बढ़ाने के लिए, प्रत्येक नगर में एक हिन्दू-राष्ट्र मंदिर होना चाहिए, जिसमें 25 हजार व्यक्ति एक साथ बैठ सकें। वहां वेद, उपनिषद, गीता, रामायण, महाभारत आदि का निरंतर पाठ हो। मंदिरों में व्यायामशाला भी हों जहां, व्यायाम द्वारा शारीरिक शक्ति भी बढ़ाई जाए। गायत्री मन्त्र की शक्ति पर उन्हें अटूट विश्वास था। स्वामी जी के विशाल व्यक्तित्व में साम्प्रदायिकता कहीं नहीं थी। अगर ऐसा होता तो जामा मस्जिद में बुला कर उनका प्रवचन नहीं करवाया जाता। गुरुकुल के प्रांगण में उन्होंने अपने मुसलमान मित्रों को नमाज के लिए यज्ञशाला में अनुमति नहीं दी होती। उनके लिए सभी बराबर थे और जीवन भर उन्होंने इस सिद्धांत का पालन किया।

अब्दुल रशीद नामक धार्मिक उन्मादी ने उन्हें गोली मारी। स्वामी जी के पुत्र प्रो. इंद्र विद्यावाचस्पति ने लिखा है कि यह भाग्य का चक्र है कि एक मुसलमान ने उन्हें मारा जबकि एक मुसलमान डॉ अंसारी ने उन्हें न्यूमोनिया होने पर मौत के मुंह से बचाया था। परमात्मा की अद्भुत लीला ऐसे ही रूपों में अपने को प्रगट किया करती है। डॉ अंसारी और अब्दुल रशीद मनुष्य जाति के रोशन और स्याह पहलुओं के दो नमूने हैं। स्वामी श्रद्धानंद जी ने राष्ट्र निर्माण एवं सामाजिक समरसता के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। उन्होंने अछूतोद्धार एवं शुद्धि आंदोलन से राष्ट्र की अमूल्य सेवा की। राष्ट्र, धर्म, संस्कृति पर नि:स्वार्थ से बलिदान देने वालों में स्वामी श्रद्धानंद का नाम अविस्मरणीय है। स्वराज्य ,वैदिक संस्कृति की समरसता के प्रसारर्थ स्वामी श्रद्धानंद जीवन भर प्रयत्नशील रहे।

देश ,धर्म ,संस्कृति ,सभ्यता ,राष्ट्रबोध ,शिक्षा आदि समग्र क्षेत्रों में स्वामी जी प्रतीक स्वरूप थे भारतीय संस्कृति के मुख्य तत्व वीरता ,अदम्य उत्साह,दीन दुखियों के प्रति दया की भावना उनके व्यक्तित्व में समाहित थे।उनका जीवन सदैव भावी पीढ़ियों के लिए पथप्रदर्शक का काम करता रहेगा। भारतीय संस्कृति के पुंज ,निर्भीकता ,साहस ,सच्चाई ,संयमी ,स्वाभिमानी ,स्वदेशाभिमान की प्रतिमूर्ति, राष्ट्रीयता की अलख जगाने वाले क्रांतिकारी संन्यासी स्वामी श्रद्धानन्द जी को उनकी पुण्यतिथि पर कोटिशः नमन।

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