महेश खरे (वरिष्ठ पत्रकार)
भारत के स्वतंत्रता संग्राम और स्वदेशी आंदोलन का गहरा नाता है। महात्मा गांधी ने 1930 में जेल से स्वदेशी का नारा दिया था। यह नारा उस समय अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने का मजबूत हथियार बना। आज जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत के सामानों पर 50 फीसदी टैरिफ लागू करने का ऐलान कर दिया है। तब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी टैरिफ वार से निपटने के लिए जो मार्ग चुने हैं उनमें से एक ‘स्वदेशी मंत्र’ भी है। ‘वोकल फॉर लोकल’ नारा तो पहले से ही भारत की हवा में है। पीएम मोदी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि भारत अपने राष्ट्रीय हितों से कोई समझौता नहीं करेगा। स्वदेशी रंग में रंग जाने के आह्वान का असर भी हुआ। स्वदेशी के पक्ष में सियासी हलचल गति पकड़ने लगी है। व्यापारिक और औद्योगिक संगठनों ने भी स्वदेशी का शंखनाद करने के लिए 10 अगस्त की तारीख मुकर्रर कर दी। मतलब लोहा गर्म है और बस चोट का इंतजार है।
स्वदेशी की सोच ने आजादी के आंदोलन में भी गजब की भूमिका निभाई। मैनचेस्टर के सूती कपड़ों का बंगाल उस समय समृद्ध बाजार था। बंगाल में स्वदेशी आंदोलन ने अंग्रेजों के व्यापार पर करारी चोट की। 1905 के बंग-भंग आंदोलन का भी तब स्वदेशी आंदोलन को बहुत बल मिला। बंगाल के विभाजन के विरोध में शुरू किए गए इस आंदोलन की कमान अरविंद घोष, रवीन्द्र नाथ ठाकुर, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, और विपिन चंद्र पाल जैसे राष्ट्रवादी नेताओं ने संभाली।
बंगाल विभाजन की घोषणा 20 जुलाई 1905 को लॉर्ड कर्जन ने की थी। 16 अक्टूबर 1905 से इसे लागू कर दिया गया था। इसी के खिलाफ स्वदेशी आंदोलन शुरू हुआ। बंगाल के लोगों ने इस आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। स्वदेशी वस्तुओं को अपनाते हुए विदेशी सामानों का बहिष्कार हुआ। कहीं-कहीं होली भी जली। आंदोलन के दौरान, लोगों ने एकजुटता दिखाई और वंदे मातरम जैसे नारों के साथ विरोध प्रदर्शन निकाले। बंग भंग के विरोध में स्वदेशी आंदोलन पूरे भारत में फ़ैल गया। नतीजा यह हुआ कि भारत में बसे अंग्रेजों का जीना दूभर हो गया। गरीबों और मेहनतकश भारतीयों ने भी अंग्रेजों से असहयोग करना शुरू कर दिया। मोचियों ने अंग्रेजों के जूतों की मरम्मत बंद कर दी। धोबी घाट पर विदेशी कपड़े धुलना बंद हो गए। जगह-जगह विदेशी सामान बेचने वाली दुकानों पर धरने दिए गए। आंदोलनकारियों का बेरहमी से दमन भी हुआ। लेकिन, देश भर में एकता और देशभक्ति की भावना का संचार हुआ। लोगों ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ एकजुट होकर संघर्ष किया और स्वदेशी को अपनाया। नतीजतन छह साल बाद अंग्रेजी हुकूमत को बंगाल विभाजन का फरमान रद्द करना पड़ा। यह आंदोलन भारतीय जनमानस को राष्ट्रीय एकता की ताकत के महत्व को समझा गया। 1911 तक चला यह आंदोलन आगे चलकर महात्मा गांधी के स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन का केन्द्र बना। बापू स्वदेशी को ‘स्वराज की आत्मा’ कहा करते थे।
अंग्रेज तो भारत से चले गए लेकिन अपने पीछे अंग्रेजियत को छोड़ गए। यह अंग्रेजियत भारत को लॉर्ड मैकाले की देन है। उस समय दक्षिण के कुछ हिस्सों को छोड़कर शेष भारत को हिन्दी ने एक सूत्र में बांध रखा था। उस समय शिक्षा की दशा बहुत खराब थी। तब नई शिक्षा नीति बनाने के लिए मैकाले के नेतृत्व में समिति बनी। समिति ने भारतीय स्कूलों में शिक्षा की भाषा अंग्रेजी करने के साथ-साथ पाठ्यक्रम भी पश्चिमी मूल्यों और विचारों पर आधारित किए जाने की सिफारिश की। नई शिक्षा नीति ‘डाउनवर्ड फिल्ट्रेशन थ्योरी’ पर आधारित थी। अर्थात् ऊपर से नीचे की ओर शिक्षा का प्रसार। सिफारिश के अनुसार उच्च वर्ग को शिक्षित किया जाने लगा। अंग्रेजों का मानना था कि उच्च वर्ग के लोगों को शिक्षित करने से शिक्षा का लाभ एक न एक दिन समाज के अंतिम आदमी तक पहुंचेगा। दरअसल मैकाले ने नई नीति के बहाने से भारत के उच्च तथा मध्यम वर्ग के एक छोटे से हिस्से को अंग्रेजियत के रंग में रंगने का फुल प्रूफ प्लान तैयार किया। इस वर्ग को अंग्रेजी की शिक्षा दी गई। नतीजतन एक ऐसा वर्ग तैयार होने लगा जो रंग और खून से तो भारतीय था लेकिन, विचारों और संस्कारों में अंग्रेजियत के रंग में रंगा हिन्दुस्तानी था। कालांतर में इसी नए वर्ग को सरकार और आम हिन्दुस्तानियों के बीच ‘समन्वय’ का जिम्मा सौंपा गया। मैकाले तो भारत में नई शिक्षा नीति के जनक के रूप में भारतीय इतिहास में दर्ज हो गए। लेकिन उस दौर में भारतीयों के बीच दो वर्ग तैयार हो गए। एक वह वर्ग जो अंग्रेजियत के रंग से सराबोर अंग्रेजी का प्रबल पक्षधर था। दूसरा, वह जो हिन्दी पाठशाला से निकला हीन भावना से ग्रसित वर्ग था। आजाद भारत में इस वैचारिक असंतुलन को सुधारने में बड़ी मशक्कत करनी पड़ी। हम इसमें कामयाब हुए या नहीं, कहना मुश्किल है। भारतीय भाषाओं, खास तौर से हिन्दी को हीन समझने वालों की कमी आज भी नहीं है। शायद इसीलिए भी स्वदेशी के मूल मंत्र में भारतीय भाषाओं को शामिल करना सामाजिक एवं सांस्कृतिक एकता के लिए जरूरी समझा गया। त्रिभाषा फार्मूला संभवतः इसी विचार और भावना की उपज के रूप में देश के सामने है।
आजादी के संग्राम में क्षेत्रीयता का भाव भरने की कोशिशें तो उस समय भी बहुत की गईं। तरह-तरह के हथकंडे अपनाए गए। मगर प्रलोभन और प्रताड़ना के तरीके बहुत कारगर साबित नहीं हुए। उस समय अंग्रेजों ने ‘बांटो और राज करो’ की नीति ही अपनायी। अंग्रेज जानते थे कि भारतीयों को बांट करके और एक-दूसरे से लड़ाकर ही उन पर राज किया जा सकता है। जनता को रंग भेद, ऊंच नीच और ‘तेरी भाषा मेरी भाषा’ के संघर्ष में उलझा देने की उस समय साजिशें रची भी गईं।
सवाल यह है कि आजादी के संग्राम में स्वदेशी जितना असरदार रहा आजादी के बाद वह केवल नारा बनकर क्यों रह गया? स्वदेशी के सब्जबाग दिखाने वालों ने ही स्वदेशी को नहीं अपनाया। स्वदेशी का गुणगान करने वाले अनेक नेता ही विदेशी रंग में रंगे रहे। देश को जब जरूरत पड़ती है तब स्वदेशी मंत्र उभर कर सामने आ जाता है। या रख दिया जाता है। आज भी जब ट्रंप भारत पर टैरिफ को लेकर आक्रमक हैं। तब टैरिफ बम को डिफ्यूज करने के लिए आजादी के संग्राम में इस्तेमाल की गई ‘स्वदेशी मिसाइल’ का सहारा लिया जा रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं कि स्वदेशी का मार्ग नए भारत की ताकत बन कर उभर सकता है। भले ही आर्टीफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) दस्तक दे रहा हो तब भी स्वदेशी की सोच सार्थक और समीचीन है। यह भरोसे के साथ कहा जा सकता है। बशर्ते स्वदेशी को ‘टाइम बीइंग’ नहीं स्थायी भाव में अपनाया जाए।
स्वराज, स्वदेशी और सवाल
