प्रेमकुमार मणि (साहित्यकार)
आरएसएस के एक जिम्मेदार नेता ने मांग की है कि भारतीय संविधान से समाजवाद और पंथनिरपेक्षता शब्द को हटाया जाना चाहिए। मैं चाहूंगा इसे लेकर एक सार्वजनिक विमर्श हो। संविधान को लेकर अनेक लोग व्याकुल हो रहे हैं। कभी प्रधानमंत्री उस पर मत्था टेकते हैं तो नेता प्रतिपक्ष उसे बचाने की गुहार लगाते हैं। कोई उसे बदलने की बात करता है।
संविधान के बारे में कुछ मूलभूत बिंदुओं से हमें अवगत होना चाहिए। भारत का मौजूदा संविधान गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट 1935 का संशोधित-परिवर्द्धित रूप है। कांग्रेस इससे असहमत थी, क्योंकि यह वयस्क मताधिकार को नहीं स्वीकार करती थी। 1946 में जब संविधान सभा बनी तब भी वह केवल ग्यारह फीसद लोगों का प्रतिनिधित्व कर रही थी। इसी कारण इसकी प्रथम बैठक में ही जवाहरलाल नेहरू ने इसका विरोध किया था। उनका मानना था कि हम वयस्क मताधिकार के आधार पर वास्तविक संविधान का निर्माण करेंगे। यह कभी नहीं हुआ। उसी संविधान को कुछ उदार बनाने की कोशिश जरूर हुई। संविधान पर बोलते हुए डॉ आंबेडकर ने 25 नवम्बर 1949 को इसकी निस्सारता को जोरदार ढंग से रेखांकित किया था। उनके अनुसार यह संविधान राजनीतिक आज़ादी तो देता है, लेकिन सामाजिक और आर्थिक आज़ादी नहीं देता। और भी मूल्यवान बातें थीं। उसे देखा जाना चाहिए।
लेकिन अभी हम आरएसएस द्वारा उठाए मुद्दे पर आना चाहेंगे। इस सन्दर्भ में वस्तुस्थिति यह है कि भारतीय संविधान की उद्देशिका में समाजवाद और पंथनिरपेक्षता शब्द 26 नवम्बर 1949 को नहीं थे, जब इसे संविधान सभा ने स्वीकार किया था। संविधान की उद्देशिका में 42 वे संशोधन अधिनियम 1976 द्वारा 3 जनवरी 1977 के प्रभाव से ‘ प्रभुत्व संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य ‘ की जगह ‘ सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी, पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य ‘ और ‘ राष्ट्र की एकता ‘ की जगह ‘ राष्ट्र की एकता और अखंडता ‘ किया गया. इसे अच्छी तरह समझने के लिए उस दौर की राजनीतिक स्थितियों का आकलन किया जा सकता है।
उस दौर में भारतीय मध्य वर्ग और जन सामान्य भी समाजवाद के प्रति तीव्र आकर्षण अनुभव करता था। 1970 के आसपास देश का समाजवादी आंदोलन सुस्त पड़ गया था. कम्युनिस्ट बंट गए थे। समाजवादी दलों की स्थिति अधिक दयनीय थी. लोहिया की मृत्यु हो चुकी थी और जेपी सर्वोदयी हो गए थे. इस बीच कांग्रेस में दक्षिणपंथी ताकतों का जमावड़ा मजबूत हो गया था। इंदिरा गांधी जब जनवरी 1966 में प्रधानमंत्री बनीं तब कई वर्षों तक गूंगी गुड़िया बनी रहीं। इस बीच उनके सचिव पीएन हक्सर (प्रभुनारायण हक्सर) बने। हक्सर समाजवाद से अनुप्राणित थे। सोवियत प्रभाव में उन्होंने ही तत्कालीन सरकार को लाया।
जुलाई 1970 में कांग्रेस वर्किंग कमिटी की बंगलूर बैठक में राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार के नाम का चयन होना था. राष्ट्रपति ज़ाकिर हुसैन की अकस्मात मौत से यह स्थिति आयी थी। इंदिरा गांधी ने जगजीवन राम का नाम प्रस्तावित किया। इसके जवाब में कांग्रेस की बूढ़ी मंडली ने नीलम संजीव रेड्डी का नाम लाया. वोटिंग हुई और इंदिरा गाँधी की बात गिर गई। यानी कांग्रेस में इंदिरा गांधी ने बहुमत खो दिया। प्रधानमंत्री जब अपने ही दल में अल्पमत में आ जाए तब राजनीतिक कोहराम स्वाभाविक था। स्थितियां बिगड़ती गईं और अंततः कांग्रेस दो टुकड़ों में बंट गई। अपनी राजनीतिक स्थिति दुरुस्त करने के लिए इंदिरा गांधी ने उस दौर के लोकप्रिय राजनीतिक फलसफे समाजवाद का परचम थामा। कुछ बड़े बैंकों के राष्ट्रीयकरण किए गए, रजवाड़ी संततियों को मिलने वाले प्रिवी पर्स को खत्म किया गया और कुछ दूसरे काम किए गए। इससे उनकी लोकप्रियता में इज़ाफ़ा हुआ और उन्होंने कई चुनाव जीते।
लेकिन इसी बीच चाहे-अनचाहे सर्वोदयी संत जेपी से वह उलझ गयीं। राजनीतिक स्थितियां बिगड़ती गईं और एक पड़ाव पर आकर उन्होंने देश पर इमरजेंसी थोप दी. इसे किसी ने पसंद नहीं किया। अन्तत: इंदिरा गांधी ने भी नहीं। अन्यथा इसके लिए वह सार्वजनिक मुआफी नहीं मांगतीं। इस इमरजेंसी में संविधान में कई उलट-फेर हुए। धारा सभाओं के कार्यकाल को पांच की जगह छह साल का किया गया। समाजवाद और पंथनिरपेक्षता को संविधान की उद्देशिका से जोड़ा गया।
लोकसभा का चुनाव दरअसल मार्च 1976 में ही हो जाना चाहिए था क्योंकि 1971 मार्च में चुनाव हुए थे। लेकिन संविधान संशोधन के आलोक में इसे छह साल पूरे होने पर 1977 में कराया गया। कुछ अनाड़ी लोग आज भी इस बात की दुहाई देते हैं कि इंदिरा गांधी ने 1977 में चुनाव करा कर देश पर अहसान किया था. ऐसा नहीं था. अब चुनाव रोकने का एक ही उपाय था फ़ौजी शासन। इंदिरा गांधी ने इसकी संभावनाएं भी तलाशी थीं. सेना प्रमुख टी एन रैना को बुलाया गया। उनकी पत्नी फ्रेंच (मेरी अंतोईनेत फलोरेंस कुर्तजी) थीं। इंदिरा गांधी ने जब सैनिक शासन की संभावनाओं पर चर्चा की। तब उन्होंने विचार करने के लिए समय माँगा। उन्होंने पत्नी से विमर्श किया। पत्नी ने देश के संविधान के प्रति जिम्मेदार होने का सुझाव दिया और सेना प्रमुख ने इंदिरा गांधी को बता दिया कि वह संविधान के प्रति जिम्मेदार होंगे। ऐसी स्थिति में चुनाव कराने ही थे। हुए और इंदिरा गांधी धराशायी हो गयीं। यह पूरा विवरण डॉ धीरेन्द्र शर्मा के संपादन में प्रकाशित फिलोसॉफी एंड सोशल एक्शन के एक विशेषांक जनता स्ट्रगल में आया था। इसे जेएनयू के पुस्तकालय में होना चाहिए।
इसी विशेषांक में यह भी था कि किस तरह आरएसएस प्रमुख देवरस ने इंदिरा गांधी को बिना शर्त समर्थन का पत्र लिखा था। लगभग सभी अर्द्ध धार्मिक नेताओं से इंदिरा गांधी को समर्थन मिल चुका था। इसमें बाला साहेब ठाकरे से लेकर विनोबा, रजनीश सब थे. चरण सिंह भी समझौता चाहते थे। हाँ, समाजवादी जत्था जिस में जार्ज, लिमये और दूसरे युवजन थे संघर्ष करने के लिए तैयार थे। ये लोग जेपी से किसी भी स्थिति में नहीं झुकने की अपील जैसे-तैसे उन तक पहुंचा रहे थे। जेपी इमरजेंसी के आखिरी दौर में अकेले हो जाते यदि समाजवादी उनके साथ नहीं होते। यह संयोग ही है कि महात्मा गाँधी के आख़िरी दौर में भी केवल समाजवादी ही उनके हिमायती थे।
जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद इमरजेंसी दौर में किए गए संविधान के अनेक संशोधनों को निरस्त किया गया। लेकिन उद्देशिका में किए गए इस संशोधन को नहीं निरस्त किया गया। इसका अर्थ यही है कि जनता पार्टी के बीच भी इसे बहुलांश का समर्थन था। यह बहुलांश समाजवादियों का ही रहा होगा.
और अब जब आरएसएस इस पर सवालिया निशान लगा रहा है, तब इसका अर्थ है कि देश में वैचारिक संघर्ष छिड़ने वाला है। इस पर देशव्यापी विमर्श हो यह अच्छी बात है। आरएसएस ने कभी इस संविधान के प्रति निष्ठा नहीं प्रदर्शित की। उसके हिंदुत्व और हिन्दू राष्ट्र के फलसफे में मनुस्मृति की सामाजिक संहिता अधिक अनुकूल होगी। जैसे ईरान और पाकिस्तान जैसे मुस्लिम लोकतंत्र में शरीअत को अहमियत दी जाती है। आरएसएस और कुछ नहीं इस्लाम की कट्टरता से प्रभावित एक ऐसा संघटन है जिसे वैज्ञानिक परिदृष्टि का लोकतंत्र नहीं सुहाता।
आरएसएस आम्बेडकर की मूर्ती पर माला पहनाने को उतावली रहती है। लेकिन क्या वह उनके संविधान सम्बन्धी विचारों को स्वीकार करना चाहेगी राजनीतिक लोकतंत्र के साथ सामाजिक और आर्थिक बराबरी सुनिश्चित करने के लिए क्या वह तैयार होगी ? यदि ऐसा है तो मैं उनके इस प्रस्ताव का समर्थन करना चाहूंगा।
बात-बात में बात संविधान की
