अंग्रेजों के खिलाफ आदिवासियों का प्रथम संघर्ष था हूल विद्रोह

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कुमार कृष्णन (वरिष्ठ पत्रकार )
संथाल विद्रोह या हूल विद्रोह ब्रिटिश औपनिवेशिक व्यवस्था के विरुद्ध प्रथम व्यापक सशस्त्र विद्रोह था जो ब्रिटिश शासन काल में जमींदारों तथा साहूकारों द्वारा किये जाने वाले अत्याचारों के ख़िलाफ़ किया गया था। इसने न केवल ब्रिटिश शासन के खिलाफ आदिवासी प्रतिरोध को उजागर किया, बल्कि आदिवासी अधिकारों और शोषण के खिलाफ संघर्ष के लिए एक प्रेरणा भी बना। यह विद्रोह आज भी प्रासंगिक है क्योंकि आदिवासी समुदायों को आज भी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। यह ब्रिटिश शासन के खिलाफ पहला संगठित आदिवासी विद्रोह था।
हुल का अर्थ होता है विद्रोह या क्रांति। यह शब्द संथाल आदिवासी समुदाय द्वारा उनके अधिकारों और स्वतंत्रता के लिए ब्रिटिश शासन के खिलाफ लडे गए, संघर्ष को दर्शाता है। इतिहासकार वाल्टर हॉउजर ने अपनी पुस्तक ‘आदिवासी एंड द राज: सोसियो एकोनोमिक ट्रांजिक्शन आफ द संथाल इन ईस्टर्न इंडिया’ में संथाल हूल विद्रोह या हुल विद्रोह को हक की लड़ाई और ब्रिटिश सरकार के नीतियों के खिलाफ संघर्ष के रूप में देखा। जब अंग्रेजी हुकूमत के आगमन के बाद, जमींदारी प्रथा ने संथालों की ज़मीनों पर कब्जा कर लिया। आदिवासी समुदाय को उनकी जमीनों से बेदखल कर दिया गया। अत्यधिक करों और उच्च ब्याज दरों पर ऋण लेने के लिए मजबूर किया गया। अगर कोई कर नहीं चुका पाता था तो उस पर मुकदमा चलाया जाता, उसे प्रताड़ित किया जाता था। अंग्रेजों द्वारा नियोजित कर-संग्रह करने वाले महाजन जमींदार बिचौलियों के रूप में अर्थव्यवस्था पर हावी हो गए। कर्ज चुकाने में असमर्थ आदिवासियों से उनकी जमीनें जबरन छीन ली जाती और उन्हें बंधुआ मजदूरी के लिए मजबूर कर दिया जाता ।
30 जून 1855 को लगभग 60,000 संथालों ने लामबंद होकर ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ विद्रोह कर दिया । विद्रोह का नेतृत्व चार मूर्मू भाइयों – सिद्धू, कान्हू, चांद और भैरव तथा दो जुड़वां मूर्मू बहनें – फूलो और झानो ने किया। झारखंड के वर्तमान साहेबगंज ज़िले के भोगनाडीह गांव से प्रारंभ हुए इस विद्रोह के मौके पर सिद्धू ने नारा दिया – अंग्रेज़ों हमारी माटी छोड़ो। यह नारा महात्मा गांधी के भारत छोड़ो आंदोलन से 57 साल पहले दिया गया था। भोगनाडीह गांव से शुरू हुआ विद्रोह उत्तर-पश्चिम में भागलपुर और दक्षिण में कोलकाता तक फैल गया । इस क्रांति ने एक मिसाल कायम की और इस क्षेत्र में भविष्य के विद्रोहों पर इसका प्रभाव पड़ा,जिसमें 19वीं सदी के उत्तरार्ध में मुंडा विद्रोह भी शामिल है। आदिवासियों के लिए हमलावर ‘दिकू’ था। जो उनके संसाधनों पर अतिक्रमण करता था। इसलिए, आदिवासियों का प्राथमिक संघर्ष हमेशा जमींदारों के खिलाफ होता था।
30 जून 1855 को ‘हुल! हुल!’ के नारे के साथ कान्हू और सिद्धो ने 10,000 संथाल युवकों के एक समूह का नेतृत्व किया और भोगनाडीह के स्थानीय बाजार में व्यापारियों और महाजनों पर हमला किया। करीब एक दर्जन लोग मारे गए। एक हफ्ते बाद, 7 जुलाई को सिद्धो ने दरोगा महेश लाल दत्ता की हत्या कर दी। सिद्धो बीर सिंह की मौत का बदला ले रहा था। अगले दिन, मुर्मू भाइयों के नेतृत्व में संथाल पाकुड़ पहुंचे, जो जमींदारों का गढ़ था। यहां, चारों भाई सबसे अमीर जमींदार गोड़े मदन मोहन के घर में घुस गए। चांद और भैरव के नेतृत्व में संथालों का एक समूह मुर्शिदाबाद की ओर बढ़ा, जहाँ उन्होंने 14 जुलाई को नील कारखाने पर हमला किया। विद्रोहियों ने रेलवे के बंगलों को जलाना शुरू कर दिया ।दो अंग्रेज़ महिलाों समेत अनेक लोग मरे गए।
जब ​​सिद्धो को इस बात का पता चला, तो उसने इस कृत्य की निंदा की और अपने छोटे भाइयों को फटकार लगाई। उनकी राय थी कि लड़ाई में एक निश्चित आचार संहिता का पालन किया जाना चाहिए। उनलोगों की हत्या की मनाही की गई जिन्होंने संथालों का शोषण नहीं किया था। अब तक हुल को किसी भी गंभीर प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा था। क्योंकि आस-पास के इलाके में कोई भी ब्रिटिश सैनिक मौजूद नहीं था, जो उपद्रव के इलाके में जल्दी से पहुँचकर विद्रोह को दबा सके। सरकार को यह उम्मीद नहीं थी कि शांतिप्रिय संथाल इतने उग्र हो जाएँगे कि वे उन पर धनुष-बाण तान देंगे। इस नासमझी के कारण अंग्रेजों को बहुत देर से एहसास हुआ। इस बीच संथालों ने बुरहैत पर कब्ज़ा कर लिया था, जो उनका मुख्यालय बन गया। मुर्मू भाइयों को पालकी में बिठाकर घुमाया गया, मानो वे ज़मीन के नए मालिक बन गए हों।
इसके साथ ही भागलपुर के कमिश्नर डी.एफ. ब्राउन ने मेजर एफ.डब्लू. बरोज़ के नेतृत्व में हिल रेंजर्स की एक टुकड़ी को स्थिति से निपटने के लिए भेजा। पीरपैंती में चांद और भैरव के नेतृत्व में संथालों ने सैनिकों पर भीषण हमला कर 16 जुलाई को उन्हें पराजित कर दिया । इससे बेहद शर्मिंदा और हैरान कमिश्नर ने दीनापुर में तैनात मेजर जनरल लॉयड से और अधिक सैनिकों की मांग की। करीब एक हफ्ते बाद 25 जुलाई को उन्होंने मार्शल लॉ लगाने का भी आग्रह किया। पांच दिन बाद फोर्ट विलियम ने कमिश्नर के अनुरोध को अवैध करार देते हुए अपना आदेश वापस ले लिया। इस बीच हूल की आवाज बीरभूम और हजारीबाग तक पहुंच गई, जहां लड़ाकों ने जेल पर धावा बोल दिया और उसे आग के हवाले कर दिया।
अगस्त 1855 की शुरुआत में, नादिया के कमिश्नर ए.सी. बिडवेल को विद्रोह को दबाने के लिए एक विशेष कमिश्नर के रूप में नियुक्त किया गया था। उन्होंने संथालों से आत्मसमर्पण करने और नेताओं को छोड़कर सभी को माफ़ी देने का आश्वासन देते हुए एक घोषणा जारी की। सिद्धो कान्हू – द्वारा बुलाई गई एक बैठक में, इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया गया। इसके बाद, महिलाओं और बच्चों सहित लगभग 30,000 संथाल गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी को अपनी याचिका प्रस्तुत करने के लिए कलकत्ता की ओर कूच करने लगे। अपनी यात्रा के दौरान, उन्होंने अपनी नज़र में आने वाले हर महाजन का शिकार किया। विद्रोही कलकत्ता के करीब पहुँच चुके थे। उन्होंने रस्ते में पड़नेवाले टेलीग्राफ, डाक और रेलवे संचालन को नष्ट कर दिया।
आदिवासियों द्वारा अंग्रेज़ों के विरुद्ध किये गए इस विद्रोह को ‘हूल क्रान्ति दिवस’ के रूप में जाना जाता है। अंग्रेज़ों से लड़ते हुए लगभग 20 हज़ार आदिवासियों ने अपनी जान दी।1856 ई. में बनाया गया मार्टिलो टावर आज भी संथाल विद्रोह की याद ताजा करता है। तत्कालीन अनुमंडल पदाधिकारी सर मार्टिन ने उक्त टावर का निर्माण कराया था।
उस समय संथालों को बताया गया कि सिद्धू को स्वप्न में बोंगा, जिनके हाथों में बीस अंगुलियां थीं, ने बताया है कि ‘जुमीदार, महाजन, पुलिस राजदेन आमला को गुजुकमाड़’, अर्थात ‘जमींदार, महाजन, पुलिस और सरकारी अमलों का नाश हो।’ ‘बोंगा’ की ही संथाल लोग पूजा-अर्चना किया करते थे। इस संदेश को डुगडुगी पिटवाकर स्थानीय मोहल्लों तथा ग्रामों तक पहुंचाया गया। इस दौरान लोगों ने साल वृक्ष की टहनी को लेकर गाँव-गाँव की यात्राएँ की। आंदोलन को कार्यरूप देने के लिए परंपरागत शास्त्रों से लैस होकर 30 जून, सन 1855 ई. को 400 गाँवों के लगभग 50,000 आदिवासी लोग भोगनाडीह पहुंचे और आंदोलन का सूत्रपात हुआ। इसी सभा में यह घोषणा कर दी गई कि वे अब मालगुज़ारी नहीं देंगे। इसके बाद अंग्रेज़ों ने, सिद्धू, कान्हू, चांद तथा भैरव- इन चारों भाइयों को गिरफ़्तार करने के लिए जिस पुलिस दरोगा को वहाँ भेजा गया था, संथालियों ने उसकी गर्दन काट ली ।
इस क्रांति के कारण संथाल में अंग्रेज़ों का शासन लगभग समाप्त हो गया था। अंग्रेज़ों द्वारा इस आंदोलन को दबाने के लिए इस क्षेत्र में सेना भेज दी गई और जमकर आदिवासियों की गिरफ़्तारियाँ की गईं। विद्रोहियों पर गोलियां बरसने लगीं। आंदोलनकारियों को नियंत्रित करने के लिए मार्शल लॉ लगा दिया गया। आंदोलनकारियों की गिरफ़्तारी के लिए अंग्रेज़ सरकार द्वारा पुरस्कारों की भी घोषणा की गई। लड़ाई में चांद और भैरव शहीद हो गए। प्रसिद्ध अंग्रेज़ इतिहासकार हंटर ने अपनी पुस्तक ‘एनल्स ऑफ़ रूलर बंगाल’ में लिखा है कि संथालों को आत्मसमर्पण की जानकारी नहीं थी, जिस कारण डुगडुगी बजती रही और लोग लड़ते रहे।
जब तक एक भी आंदोलनकारी जिंदा रहा, वह लड़ता रहा। विश्वस्त साथियों को पैसे का लालच देकर सिद्धू और कान्हू को भी गिरफ़्तार कर लिया गया और फिर 26 जुलाई को दोनों भाइयों को भगनाडीह ग्राम में खुलेआम एक पेड़ पर टांगकर फ़ाँसी की सज़ा दी गयी। संथाल विद्रोह के परिणामस्वरूप, ब्रिटिश सरकार ने 1876 में संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम पारित किया, जिससे आदिवासियों को सुरक्षा प्रदान की गई। इसके अलावा, 1856 में भूमि राजस्व सुधार और नया सर्वेक्षण किया गया। संथाल शिकायतों को दूर करने के लिए संथाल परगना सिविल नियमों का कार्यान्वयन किया गया।

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