ले. जन. एसएस मेहता (अ.प्रा.) (पश्चिमी कमान के पूर्व कमांडर)
भारत की वीर परंपरा, किसी साम्राज्य द्वारा गढ़ी गयी नहीं, बल्कि इसे स्थाई शासकों और हमले रोकने वाले महानायकों द्वारा आकार दिया गया–कुछ वे जिन्होंने दशकों तक राज्यों का निर्माण किया, और वे भी जो थोड़े समय के लिए राजा रहे, लेकिन साहस और विवेक के अडिग प्रहरी बन खड़े रहे। रणनीतिक एकीकरण-कर्ता चंद्रगुप्त से लेकर गुरिल्ला युद्ध के महानायक शिवाजी; संत-सिपाही गुरु गोबिंद सिंह, रॉकेट तकनीक के अग्रणी टीपू सुल्तान, असम के प्रहरी लाचित बोरफुकन, वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई; सीमांत सिंह हरिसिंह नलवा, योद्धा राजा राणा सांगा, रणनीतिकार महाराजा सूरजमल, विद्रोही वीरपांड्या कट्टाबोमन, नैतिक परिवर्तनकर्ता अशोक, समन्वयवाद के अगुआ अकबर, त्वरित रणनीतिकार बाजी राव, दक्षिण के प्रहरी कृष्णदेवराय,वर्दीधारी देशभक्त नेताजी सुभाष चंद्र बोस तक।
ये नाम बानगीभर हैं – देश के सभी भागों से, धर्मों, भाषाओं और सदियों से आते हैं। ये काल्पनिक पात्र नहीं, चरित्रवान योद्धा थे– लूटने की बजाय सम्मान, अधीन करने की जगह न्याय देना, विरासत लूटना नहीं बल्कि बनाना उनका गुण था। भारत के योद्धा कभी भी धन से या विजयों से गढ़े हुए नहीं रहे। वे एक सभ्यतागत विरासत का उत्पाद हैं- साम्राज्यों से भी पुराना, सिद्धांत से भी गहरा, भाड़े के सैनिकों की सोच से इतर। जबकि अनेक उत्तर-औपनिवेशिक राष्ट्रों को शाही सेनाएं विरासत में मिलीं, भारतीय फौजी युद्ध के मैदान में कुछ और लेकर उतरता है : नाम (सम्मान), नमक (कर्तव्य) और निशान (ध्वज) की सेवा के प्रति असीम दायित्व का संकल्प। यह ब्रिटिश उपहार नहीं, हमारी विरासत है।
वह जो ब्रिटिश साम्राज्य जीत नहीं पाया : अंग्रेजों ने अपना झंडा भले फहराया हो। लेकिन वे हमारी आत्मा कभी नहीं जीत पाए। भारतीय सैनिक विदेशी झंडे के नीचे जरूर लड़े लेकिन साम्राज्य के लिए नहीं। वे पलटन, इज्जत और विरासत की खातिर लड़े। ईस्ट इंडिया कंपनी ने जबरदस्ती भर्ती तो कर ली, लेकिन आत्मसम्मान की ज्वाला बुझा नहीं पाए। विदेशी युद्धों में भी भारतीय सैनिक शाही आदेश का नहीं बल्कि आंतरिक संहिता का पालन करते थे। युद्ध सम्मान शाही पुरस्कार न होकर नैतिकता के प्रमाण थे। झंडा भले विदेशी रहा, निष्ठा सदा भारतीय रही।
1971-विवेकपूर्ण कमान : भारत ने लाभ की खातिर पूर्वी पाकिस्तान में प्रवेश नहीं किया। नरसंहार खत्म करने को सीमा पार की। केवल 13 दिनों में, भारतीय सेना ने एक राष्ट्र आजाद कराया – और वापस लौट आई। लूटपाट नहीं की, कठपुतली सरकार नहीं बनाई। कोई विलय नहीं। यह कुरुक्षेत्र की पुनरावृत्ति थी : संयम से लड़ा गया न्यायपूर्ण युद्ध। यह 20वीं सदी में दुनिया का सबसे नैतिकतापूर्ण सैन्य दखल था- अभियान जो सिर्फ रणनीति से नहीं, विवेक से संचालित हुआ।
कारगिल : एक संकल्प की पुष्टि :
कारगिल (1999) ने राजनीतिक और क्षेत्रीय संयम के तहत सामरिक प्रतिभा का प्रदर्शन किया –तीखी चढ़ाई की बाधाओं के खिलाफ लड़ते हुए, फिर भी नियंत्रण रेखा पार नहीं की। युवा अधिकारी और सैनिक बर्फीली चट्टानों पर चढ़ निकले, यह जानते हुए भी कि फिर कभी वापस नहीं लौट पाएंगे। वे पदकों या सुर्खियां बटोरने नहीं, पलटन व झंडे के लिए गए। जहां कुछ फौजी पूछेंगे :‘इसमें मेरे लिए क्या है’?, हमारे बहादुर युवा अधिकारी कह रहे थे :‘ये दिल मांगे मोर’।
ऑपरेशन सिंदूर- संयम ही बल है :
हाल में, जब भारत की खींची लक्ष्मण रेखाएं पार की गईं, तब जवाब दिया गया – आवेश में नहीं, बल्कि सावधानी भरी सटीकता से। ऑपरेशन सिंदूर ने भारत के रुख की पुष्टि की : सैनिक न तो छोटी बात पर भड़कता है और न ही व्यर्थ के उकसावे पर। यह लड़ाई, युद्ध से पहले ही जीत ली गई। यह क्रूर बल नहीं, क्रमिक विकास की ताकत है। उकसावे पर उद्देश्य को महत्त्व।
सैन्य साजो सामान और सम्मान में फर्क :
बजट, ड्रोन, एआई – इनमें से कोई भी परंपरा नामक बल-गुणक को नहीं माप सकता। सैनिक इनाम-उपहार के लिए नहीं बल्कि विरासत बनाए रखने के लिए जान की बाजी लगाता है। सुनिश्चित करने को कि सम्मान की कड़ी कभी न टूटे। वह सम्मान बनाए रखना चाहता है। इसके लिए, वह हमेशा तैयार रहता है। असीमित दायित्व कोई अस्थाई मद नहीं, नैतिक स्थिरांक है। वह ये नहीं पूछता, ‘मुझे क्या मिलेगा’? बल्कि पूछता है, ‘मुझे क्या देना होगा’?
जिम्मेदारी :
सैनिक परंपरा का दूसरा पहलू : लेकिन यह एकतरफा संकल्प नहीं। सैनिक को भी वर्दी की इज्जत बनाए रखनी चाहिए। जब वह अपनी सुरक्षा के बदले चुप्पी, सत्य की बजाय फायदा चुने या नौकरी बचाने की खातिर कर्तव्य का सौदा करे – तो वह हारने से कहीं अधिक कर बैठता है। नैतिक मूल्य खंडित कर देता है। सैनिक की महानता केवल युद्ध लड़ने में नहीं, बल्कि क्षरण का विरोध करने में है –साहस, विवेक और स्पष्टता का ह्रास होता देखकर। युद्ध सीमा पर खत्म नहीं होता, निर्णयों, फाइलों और सच्चाई में जारी रहता है।
हर और मचता शोर :
हर युद्ध के बाद शोर मचता है : ‘टैंकों का दौर चला गया। मानव चालित विमान पुराने पड़ गए। अब राज ड्रोन का है। विमान वाहक पोत का जमाना लद गया। तोपखाने का क्या काम, साइबर ही सब कुछ है।’ लेकिन सच्चाई कायम रहेगी : सैनिक जिंदा है। युद्ध के तौर-तरीके वक्त के साथ विकसित होते रहते हैं। सैन्य उपकरण व एल्गोरिद्म विफल हो सकता है। लेकिन सैनिक कायम रहेगा- एकमात्र हथियार प्रणाली जो खुद सोच सके,खुद को ढाल सकता है, नेतृत्व कर सके और बड़े उद्देश्य के लिए जान दे सकता है। बाकी सब कुछ नष्ट होने की संभावना है। सैनिक का कोई तोड़ नहीं।
कोहिमा संदेश :
‘जब तुम घर जाओगे, उन्हें हमारे बारे में बताना और संदेश देना : तुम्हारे कल के लिए, हमने अपना आज दिया।’ यह संदेश मृतकों के लिए नहीं,जीवितों के लिए है। इसमें यदि आगे जोड़ा जाए-‘और याद रखो: एक राष्ट्र की आत्मा फाइलों में नहीं होती, बल्कि उन लोगों द्वारा धारण की जाती है, जो दूसरों के मुंह फेर लेने के बाद आग में होम होना चुनते हैं’। एक जीते-जागते लोकतंत्र में, सैनिक की असली शक्ति संयम में है। उसका मौन समर्पण नहीं बल्कि शक्ति है। अराजनीतिक बने रहना उदासीनता नहीं, अनुशासन है। भारतीय सैनिक विचारधारा को नहीं, संविधान को सलाम करता है। ऐसा करके वह राष्ट्र को याद दिलाता है कि लोकतंत्र की बेहतरीन रक्षा पक्षपात से नहीं, सिद्धांतों से होती है। हर वह युद्ध जो भारत को लड़ने पर मजबूर किया गया, उसमें न केवल वह हावी रहा –बल्कि लोकतंत्र ने सैन्य शासन को परास्त किया, भारतीय सैनिक की मानवता ने पाकिस्तानी बर्बरता को मात दी। 1971 से लेकर कारगिल और ऑपरेशन सिंदूर तक, भारतीय सैनिक ने दिखाया कि जब शक्ति प्रदर्शन लोगों की खातिर होता है, तो वह बेजोड़ होता है।
अब दशकों बाद, ब्रिटिश लोग स्वीकार कर रहे हैं कि द्वितीय विश्व युद्ध में उनका बेहतरीन सैन्य अभियान यूरोप या उत्तरी अफ्रीका में नहीं – बल्कि बर्मा में था। यूके के राष्ट्रीय सेना संग्रहालय द्वारा 2013 में किए गए एक सर्वेक्षण में, इम्फाल और कोहिमा की लड़ाइयों को डी-डे (जिस रोज जर्मनी पर निर्णायक संयुक्त हमला किया) और वाटरलू युद्ध से पूर्व ब्रिटेन की महानतम लड़ाइयों के रूप में चुना गया। इम्फाल और कोहिमा में – कीचड़, मलेरिया और भुखमरी के बीच- भारत के सैनिक अपनी लीक पर कायम रहे और रुख मोड़ दिया। ये लड़ाइयां, जिन्हें ब्रितानी साम्राज्य के युद्ध विजय खाते से बाहर रखा गया था, आज इन युद्धों को धीरज, अनुशासन और बलिदान के महाकाव्यों के रूप में फिर पढ़ा जा रहा है – वे गुण जो साम्राज्य के नहीं, बल्कि उन लोगों के हैं, जिन्होंने साम्राज्य को उसका अंतिम नैतिक आधार दिया।