राकेश सैन
वर्तमान युग लोकतंत्र का है, इस प्रणाली की लाख खामियों के बावजूद आधुनिक दुनिया अपने आप को लोकतांत्रिक व्यवस्था कहलवाना पसंद करती है। यहां तक कि मजहबी राजनीतिक व्यवस्था वाले देश भी अपने नाम में किसी न किसी तरह लोकतंत्र शब्द को शामिल करके स्वयं को प्रगतिशील साबित करने का प्रयास करते हैं। कम्युनिस्ट शासन वाले चीन की जनता ने आज से चार दशक पहले लोकतंत्र के पक्ष में आवाज उठाई तो उसे टैंकों ने रौंद दिया गया था।
4 जून, 1989 में चीन के बीजिंग का तियानमेन चौक बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों का केन्द्र बन गया था, जिसे कम्युनिस्ट शासकों ने बुरी तरह कुचल दिया।
आज लोकतांत्रिक वैश्विक समाज उस घटना को भूल गया है।
1980 के दशक में चीन बड़े बदलावों से गुजर रहा था। सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी ने कुछ निजी कंपनियों और विदेशी निवेश को अनुमति देना शुरू कर दिया। चीनी नेता डेंग जियाओपिंग को इससे अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलने और लोगों का जीवन स्तर ऊपर उठने की आशा थी। इस कदम से राजनीतिक खुलेपन की उम्मीद भी जगी, लेकिन उस समय कम्युनिस्ट पार्टी दो भागों में बंट गई। एक वर्ग वो जो तीव्र परिवर्तन की मांग कर रहा था, तथा दूसरा वो कठोर राज्य नियंत्रण बनाए रखना चाहता था। इस दौरान छात्रों के नेतृत्व में विरोध प्रदर्शन शुरू हुए। इसमें भाग लेने वालों में वे लोग शामिल थे जो विदेश में रह चुके थे और नए विचारों तथा उच्च जीवन स्तर से परिचित थे।
1989 में अधिक राजनीतिक स्वतंत्रता की मांग के साथ विरोध प्रदर्शन बढ़ गये। प्रदर्शनकारियों को एक प्रमुख राजनीतिज्ञ हू याओबांग से प्रोत्साहन मिला, जिन्होंने कुछ आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तनों की देखरेख की। दो वर्ष पहले राजनीतिक विरोधियों ने उन्हें पार्टी के शीर्ष पद से हटा दिया था। अप्रैल में हू की मौत हो गई, उनके अंतिम संस्कार के दिन हजारों लोग एकत्रित हुए और उन्होंने अधिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा कम सेंसरशिप की मांग की। अगले सप्ताहों में, प्रदर्शनकारी तियानमेन चौक पर एकत्र हुए, जिनकी अनुमानित संख्या दस लाख तक थी। 3-4 जून की रात, चीन की जनमुक्ति सेना ने बख्तरबंद टैंकों और हथियारों से छात्रों पर हमला किया। हजारों की संख्या में निर्दोष लोगों की हत्या कर दी गई। यह भयावह घटना इतिहास में चार जून की घटना या तियानमेन नरसंहार के नाम से दर्ज है जो आज भी चीन में एक वर्जित विषय बना हुआ है।
घटना वाले दिन बीजिंग की सडक़ों पर वह भयावह मंजर शुरू हुआ। चीनी सेना ने राजधानी में प्रवेश कर गोलीबारी शुरू कर दी, जिससे प्रारंभिक रिपोर्टों के अनुसार 35-36 लोग मारे गए। लेकिन यह तो केवल शुरुआत थी। 4 जून की सुबह करीब 4 बजे, जब तियानमेन चौक पर हजारों की संख्या में निहत्थे छात्र, नागरिक, बच्चे और बुजुर्ग शांतिपूर्वक लोकतंत्र और पारदर्शिता की मांग को लेकर एकत्र थे, तब कम्युनिस्ट सरकार ने क्रूरतम रूप का प्रदर्शन किया। सरकार ने न सिर्फ टैंक और हथियारबंद जवानों को तियानमेन चौक पर भेजा, बल्कि लड़ाकू विमानों तक की तैनाती की। बिना किसी चेतावनी के गोलियां बरसाई गईं। निर्दोष लोगों को कुचला गया, दौड़ते बच्चों को निशाना बनाया गया, और चौक को रक्तरंजित कर दिया गया। यह कार्रवाई सिर्फ एक नरसंहार नहीं बल्कि लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मानवाधिकारों की भावना पर एक संगठित, राज्य-प्रायोजित प्रहार था। बीजिंग की सडक़ों पर मानव रक्त की नदियाँ बह रही थीं। यह कोई युद्ध का मैदान नहीं था, बल्कि एक शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक प्रदर्शन के खिलाफ राज्य द्वारा चलाया गया सुनियोजित नरसंहार था। चीन की कम्युनिस्ट सरकार ने छात्रों और नागरिकों की शांतिपूर्ण मांगों का उत्तर टैंकों और गोलियों से दिया। रात के अंधेरे में बीजिंग की सडक़ों पर टैंक गर्जना करने लगे और कुछ ही घंटों में लगभग 10,000 निर्दोष लोगों की जानें चली गईं। चीनी सरकार अनुसार, दो सौ लोग मरे और तीन हजार घायल हुए।
चीन में तत्कालीन ब्रिटिश राजदूत एलन डॉनल्ड ने 1989 में लंदन भेजे अपने एक गोपनीय टेलीग्राम में स्पष्ट रूप से कहा था कि इस सैन्य कार्रवाई में कम से कम 10,000 लोगों की मृत्यु हुई। यह टेलीग्राम घटना के 28 वर्षों बाद सार्वजनिक हुआ। हांगकांग बैप्टिस्ट विश्वविद्यालय में चीनी इतिहास, भाषा और संस्कृति के विशेषज्ञ ज्यां पिए कबेस्टन ने भी इस टेलीग्राम पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि ‘ब्रिटिश राजनयिकों द्वारा भेजे गए आँकड़े हैं और इन्हें खारिज नहीं किया जा सकता।’
इस घटना के बाद भी चीनी सरकार ने दमनात्मक रवैया छोड़ा नहीं बल्कि अत्याचारों की सारी सीमाएं लांघ दी। 6 जून को नरसंहार के तुरंत बाद चीन में स्थित विदेशी दूतावासों ने अपने-अपने नागरिकों को सुरक्षा कारणों से देश छोडऩे के निर्देश जारी किए ताकि इस घटना पर पर्दा डाला जा सके। 16 जून को आंदोलन का नेतृत्व करने वाले छात्र नेताओं की व्यापक गिरफ्तारी शुरू हुई। विभिन्न विश्वविद्यालयों से जुड़े 1000 से अधिक छात्र नेताओं को चिन्हित कर हिरासत में लिया गया। अगले दिन 17 जून बीजिंग में 8 नागरिकों को मृत्युदंड दिया गया। 20 जून को चीन ने सभी ट्रैवल वीजा पर रोक लगा दी। यह निर्णय इसलिए लिया गया ताकि कोई भी आंदोलनकारी देश छोडक़र बहार न जा सके। विरोध की आवाज भीतर ही दबा दिया जाए।
वामपंथी अधिनायकवाद का पूरा इतिहास ऐसे ही संविधान-विरोधी अत्याचारों और दमन की घटनाओं से अटा पड़ा है। लेनिन के नेतृत्व में ‘बोल्शेविक क्रांति’ के बाद लाखों विरोधियों का दमन, स्टालिन के ‘ग्रेट पर्ज’ के दौरान अनुमानित दो करोड़ से अधिक लोगों की हत्या, और माओत्से तुंग के ‘ग्रेट लीप फारवर्ड’ और ‘कल्चरल रेवेल्यूशन’ में करोड़ों लोगों की मौतें, यह दिखाती हैं कि वामपंथी शासन अक्सर आलोचना और विरोध को कुचलने के लिए नरसंहार और दमन को ही नीति का रूप दे देता है। यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि भारत के वामपंथी विचारक और संगठन भी उन्हीं वैश्विक व्यक्तित्वों लेनिन, माओ और स्टालिन से वैचारिक प्रेरणा लेते रहे हैं, जिनकी नीतियाँ अत्याचार, दमन और हिंसा से जुड़ी रही हैं। चाहे वह बंगाल और केरल की वामशासित सरकारों में राजनीतिक हिंसा का इतिहास हो, या फिर नक्सलवाद और अर्बन नक्सलिज्म के माध्यम से राज्यविरोधी हिंसक गतिविधियाँ, इन सबमें वामपंथी विचारधारा की भूमिका बार-बार सामने आती रही है।
भारत-चीन युद्ध के दौरान जैसे भारत के कम्युनिस्टों ने दुश्मन देश का समर्थन कर अपने चरित्र का प्रमाण दिया उसी तरह तियानमेन चौक नरसंहार पर भी उन्होंने चीन को मूक समर्थन दिया। दु:खद बात है कि लोकतंत्र के पक्ष में उठी एक शक्तिशाली आवाज और चीनी लोगों के जनतंत्र के लिए दिए गए उस बलिदान को दुनिया ने भुला कैसे दिया?
वैश्विक विस्मृति के शिकार तियान मेन चौक के शहीद
