अखबारों को ऐसे मिली राजीव गांधी की हत्या की खबर…

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शम्भुनाथ शुक्ला (वरिष्ठ पत्रकार )
21 मई सन् 1991 की रात साढ़े 12 बजे दिल्ली के आश्रम चौक के आगे सिद्धार्थ इनक्लेव में भारी जाम लगा था। उन दिनों इतनी रात को जाम लगने की वजह नहीं थी। एक पुलिस वाले को बुलाकर पूछा तो उसने बताया कि कोई बड़ा नेता मार दिया गया है। कुछ समझ नहीं आ रहा था। मोबाइल तब था नहीं कि फटाफट आफिस फोनकर पता किया जाए। हमने पुलिस वाले को रिक्वेस्ट की और किसी तरह उसने हमारी मारुति कार जाम से निकलवा दी। आईटीओ स्थित अपने दफ्तर पहुंचा तो देखा प्रभाष जी डेस्क पर बैठे हैं। अब पूछताछ की हिम्मत नहीं पड़ी। मैं भी चुपचाप डेस्क पर बैठ गया और पीटीआई के तार देखने लगा। पहले ही तार में अटेंशन था- एक्स प्राइम मिनिस्टर राजीव गांधी एसिसनियेटेड। इसके बाद तो फटाफट तार देखने शुरू कर दिए और बड़ी चिंता तो शहर की थी कि कहीं 84 न दोहरा जाए पर तब प्रधानमंत्री चंद्रशेखर थे और उन्होंने सख्ती से मोर्चा लिया था। कहीं भी किसी साउथ इंडियन के साथ हाथापाई तो दूर किसी को उनको देखने की हिम्मत नहीं पड़ी थी।
राजीव गांधी को सिर्फ फोटो में ही देखा था। उनसे रूबरू होने का एक मौका मिला था पर मैं जा नहीं पाया। आज दिल्ली में भाजपा की एक बड़ी नेत्री तब हमारे पड़ोस में रहती थीं और राजनीति में आने को उतावली थीं लेकिन कोई प्लेटफार्म नहीं मिल पा रहा था। राजीव गांधी से वे उसी साल 14 जनवरी को मिलकर आईं थीं और चिंहुकते हुए बताया करती थीं कि राजीव गांधी के गाल जैसे कश्मीरी सेब। मेरे मन में भी राजीव गांधी के प्रति यही धारणा घर कर गई थी कि राजीव गांधी जैसा सुंदर व्यक्ति शायद और कोई राजनेता नहीं होगा। उनकी हत्या पर दुख हुआ। इसके बीस साल बाद मैं व पत्नी चेन्नई से कांची कामकोटि जा रहे थे। करीब 40 किमी चलने के बाद हमें श्रीपेरंबुदूर दिखा। हमने गाड़ी रुकवाई और उनका स्मारक देखा। उनके स्मारक को नमन किया। फिर लगा कि राजीव को मार कर उनके हत्यारों को भला क्या मिला?
राजीव की विदेश नीति दुखदायी रही। उनके ऊपर एक सिंघली सिपाही ने हमला किया जब वे कोलंबो में सरकारी मेहमान थे औए परेड की सलामी ले रहे थे। और अपने देश में श्रीलंका के तमिल टाइगर्स ने उनकी हत्या कर दी। क्योंकि उन्होंने श्रीलंका में इंडियन पीस कीपिंग फोर्स भेजी थी। मुझे लगता है उनके सलाहकार ही उन्हें ले बैठे। बाद में दिल्ली में जब उनकी अंत्येष्टि हुई तो मैंने स्वयं देखा कि आम लोग तो फूट-फूट कर रो रहे थे. पर उन्हीं के द्वारा पाले-पोसे गए कांग्रेसियों ने वीरभूमि पर उनके शव के जल जाने का भी इंतजार नहीं किया और ज्यादातर गम गलत करने के लिए फरीदाबाद भाग गए। क्योंकि दिल्ली में उस दिन निषेध था।

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