आज शारदीय नवरात्र का पहला दिन है और हम इस दिन मां दुर्गा के प्रथम स्वरुप मां शैलपुत्री की पूजा करते हैं. नवरात्रि नौ दिनों का होता है और हर दिन हम मां दुर्गा की अलग-अलग स्वरुपों की पूजा करते हैं.
हर एक दिन देवी के एक अलग रूप की उपासना करने से भक्त को अलग-अलग देवी के रूपों से आशीर्वाद प्राप्त करने का मौका मिलता है. ऐसी मान्यता है कि नवरात्र में देवी की उपासना करने से भक्त को शक्तियों की प्राप्ति होती है. जो भी सच्चे मन से मां दुर्गा की अराधना करता है मां उसे मनचाहा फल देती है. सच्चे मन से पूजा करने वालों की हर मनोकामनाए मां पूरी करती हैं और घर-परिवार में शुभता लाती हैं.
आइए यहां हम आपको बताते हैं नवरात्रि पूजा विधि, शुभ मुहूर्त और कलश स्थापना की विधि…
किस दिन होगी मां दुर्गा की कौन सी स्वरुप की पूजा….
17 अक्टूबर- मां शैलपुत्री पूजा घटस्थापना
18 अक्टूबर- मां ब्रह्मचारिणी पूजा
19 अक्टूबर- मां चंद्रघंटा पूजा
20 अक्टूबर- मां कुष्मांडा पूजा
21 अक्टूबर- मां स्कंदमाता पूजा
22 अक्टूबर- षष्ठी मां कात्यायनी पूजा
23 अक्टूबर- मां कालरात्रि पूजा
24 अक्टूबर- मां महागौरी दुर्गा पूजा
25 अक्टूबर- मां सिद्धिदात्री पूजा
कैसे करें पूजा…
- ब्रहम मुहूर्त में उठकर स्नान करें.
2.पूजा वाली जगह पर स्वच्छ मिटटी से वेदी बनाएं.
3.वेदी में जौ और गेहूं दोनों को मिलाकर बोएं.
4.वेदी के पास धरती मां का पूजन कर वहां कलश स्थापित करें.
- सबसे पहले प्रथमपूज्य श्रीगणेश की पूजा करें.
6.वैदिक मंत्रोच्चार के बीच लाल आसन पर देवी मां की प्रतिमा स्थापित करें और कुंकुम, चावल, पुष्प, इत्र से विधि पूर्वक पूजा करें.
नवरात्र के प्रथम दिन हम मां शैलपुत्री की पूजा करते हैं. पर्वतराज हिमालय की पुत्री होने के कारण इनका नाम शैलपुत्री पड़ा. अपने पूर्व जन्म में ये प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थीं तब इनका नाम सती था. इनका विवाह भगवान शंकर जी से हुआ था. एक बार प्रजापति दक्ष ने बहुत बड़ा यज्ञ किया जिसमें उन्होंने सारे देवताओं को अपना-अपना यज्ञ भाग प्राप्त करने के लिए निमंत्रित किया किन्तु शंकर जी को उन्होंने इस यज्ञ में आमंत्रित नहीं किया. जब सती ने यह बात सुनी की उनके पिता यज्ञ कर रहे हैं तो वह भगवान शिव को वहां जाने की बात कही. भगवान शिव ने कहा-”प्रजापति दक्ष किसी कारणवश हमसे रुष्ट हैं,अपने यज्ञ में उन्होंने सारे देवताओं को निमंत्रित किया है किन्तु हमें जान-बूझकर नहीं बुलाया है. ऐसी स्थिति में तुम्हारा वहां जाना किसी प्रकार भी श्रेयस्कर नहीं होगा.” शंकर जी के इस उपदेश से देवी सती का मन बहुत दुखी हुआ. पिता का यज्ञ देखने वहां जाकर माता और बहनों से मिलने की उनकी हालत को देखते हुए भगवान शिव ने उन्हें जाने के लिए कह दिया. जब सती अपने पिता के घर पहुंची को देखा कि कोई उनसे पहले की भांति वर्ताव नहीं कर रहा है. सिर्फ मां ने ही उन्हें गले लगाया.उन्होंने यह भी देखा कि वहां भगवान शिव के प्रति तिरस्कार का भाव भरा हुआ है,दक्ष ने उनके प्रति कुछ अपमानजनक वचन भी कहे. वह शिव का अपमान नहीं सहन कर सकीं और खुद को योगाग्नि से जलाकर भस्म कर लिया. इसकी जानकारी मिलती ही भगवान शिव ने क्रुद्ध हो अपने गणों को भेजकर दक्ष के उस यज्ञ का पूर्णतः विध्वंस करा दिया. इसके बाद उनका जन्म पर्वतराज हिमालय की पुत्री के रुप में हुआ.