PM modi with Yogi Adityanath
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mahesh khare
महेश खरे की तस्वीर

भाजपा की सियासी हांडी में क्या पक रहा है? यह जानने और समझने के लिए हमें कुछ माह पहले की हलचल पर नजर घुमानी होगी। कहने का तात्पर्य यह कि उत्तर प्रदेश को लेकर सियासत में अंदरूनी टकराव और शक्ति परीक्षण की पटकथा लोकसभा चुनाव से पहले ही लिखी जा चुकी थी। तब यह मान कर चला जा रहा था कि एनडीए भले ही 400 पार नहीं जा पाए भाजपा 370 के पार तो हो ही जाएगी। अति आत्मविश्वास के साथ भाजपा चुनावी महासमर में उतरी। बाकी जगह तो ठीक रहा लेकिन महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में भाजपा को ऐसे करारे झटके लगे कि वह 272 के जादुई आंकड़े को भी छू नहीं पाई। 293 के संख्या बल ने एनडीए को सत्ता की चाबी तो थमा दी लेकिन मोदी की गारंटी की जगह एनडीए ने ले ली। इतना ही नहीं दस साल बाद मजबूत विपक्ष के साथ लोकसभा में प्रतिपक्ष का नेता भी जनता से जुड़े मुद्दों पर सत्तापक्ष को घेरते हुए दिखा।

भाजपा को सबसे करारा झटका यूपी में मिला। यहां बाजी सपा के हाथ रही। एक दशक से संख्या बल को लेकर इतराने वाली भाजपा दूसरे नंबर पर अटकी रह गई। अगर भाजपा यहां 70+ सीटें पा जाती तो आज वह अपने बूते सत्ता में होती। अब नतीजों पर मंथन हो रहा है। दरअसल सवालों के जवाब जाने पहचाने हैं। यूपी की हार के कारण और अंतर्कलह छुपे हुए नहीं हैं। ना दिल्ली से और ना ही लखनऊ से। बस सवाल यही है- सत्य का गरल गटके कौन?

यूपी के नेतृत्व से छल मतदाता की नजरों से भी छुपा नहीं रह पाया। मीडिया रिपोर्ट को सही मानें तो चुनाव प्रचार के दौरान डबल इंजन के फायदे गिनाए जा रहे थे। लेकिन, पोस्टरों और बैनरों से एक इंजन गायब था। रणनीति स्वाभाविक रूप से दिल्ली में ही बन रही थी। टिकट बंटवारे में योगी की उपेक्षा हुई। सीएम का एक भी चहेता टिकट नहीं पा सका। यही नहीं 35 नेताओं को रिपीट नहीं करने की योगी की सलाह को दरकिनार कर दिया गया। नतीजतन उनमें से 27 चुनाव हार गए। जीत का विश्वास (अहंकार) सिर चढ़ कर बोल रहा था। भाजपा के टिकट को जीत की गारंटी माना जा रहा था। हवा ही कुछ ऐसी थी जो सियासी मन को बौराए जा रही थी।

समीक्षा बैठक में योगी ने बड़ी साफगोई से अतिआत्मविश्वास को पराजय का बड़ा कारण बताया। डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य ने संगठन और कार्यकर्ता के दर्द के बहाने अपना दर्द सुनाया। मोदी-योगी की जोड़ी काम कर जाती। नतीजे भी अनुकूल आते अगर इसमें ईमानदारी के दर्शन होते। अखिलेश पोस्टरों में एक इंजन गायब होने की बात नहीं उठाते तो शायद योगी का चेहरा बाद के पोस्टरों में भी नहीं आ पाता। यूपी के बुलडोजर बाबा भाजपा के स्टार चेहरे हैं। लेकिन, उन्हें अपने ही राज्य में ‘असहाय’ कर दिया गया। नारे लग रहे थे। लेकिन सबका साथ… कार्यकर्ता को अपनी पार्टी में ही ढूंढना पड़ रहा था। जेपी नड्डा के बयान ने तो रही सही कसर ही पूरी कर दी। यह बयान संघ के स्वयंसेवकों के रोष और चुनाव में उदासीनता का बड़ा कारण बना।

राहुल -अखिलेश की बातों ने बड़ा असर किया। मतदाता के मन में यह डर समा गया कि चुनाव बाद संविधान बदलने के साथ साथ यूपी में सीएम का चेहरा भी बदल दिया जाएगा। यूपी के नेताओं की दिल्ली दौड़ सत्ता की चूलें हिलने का एहसास कराती रही। जो अपने थे वे ही विपक्ष का किरदार निभाते दिखे। नतीजतन प्रशासन भी असमंजस और उहापोह में वक्त का इंतजार करता रहा। जनता के जरूरी काम भी अटक गए। बिचौलिए सक्रिय और प्रशासन निष्क्रिय होने से जनता की मुसीबतें बढ़ीं। कार्यकर्ता का असली दर्द यह था और समीक्षा बैठकों में न जाने किस दर्द की दवा खोजी जा रही थी।

भाजपा के अंत:पुर में उमड़ घुमड़ रहे अंतर्विरोध की कहानी कुछ ऐसी ही है। वैसे भी सियासत में जो दिखाई देता है…होता उसके विपरीत है। सियासत को गौर से देखना और समझना पड़ता है। लोकसभा चुनाव के बाद से योगी आदित्यनाथ को हटाने की चर्चा बाहर से कम अंदर से ज्यादा उठ रही है। हालांकि चुनाव प्रचार के समय ही योगी की विदाई कर दिए जाने का दावा अरविंद केजरीवाल कर चुके हैं। उनका दावा था केन्द्र में भाजपा सत्ता में आई तो दो महीने के भीतर यूपी में योगी की विदाई तय है। आश्चर्य इस बात का है कि अभी तक पार्टी की ओर से इन दावों अथवा अटकलों का खंडन तक नहीं किया गया। इसके विपरीत केशव प्रसाद मौर्य और भूपेंद्र चौधरी दिल्ली दरबार में हाजिरी लगा आए हैं। सत्ता के दावेदार ‘छींका’ टूटने के इंतजार में हैं। जिनके नाम लिए जा रहे हैं वे भी झूठे मुंह यह नहीं कह रहे कि सत्ता की रेस में हम नहीं हैं।

यह मानकर चलिए कि फिलहाल योगी को किनारे करना दूर की कौड़ी है। उपचुनावों को देखते हुए तो बिल्कुल नहीं। आरएसएस योगी के पीछे खड़ा है। योगी उत्तर प्रदेश क्या समूचे देश में हिन्दुत्व के इकलौते चेहरे हैं। फिर यूपी विधानसभा की दस सीटों पर उपचुनाव में भी एकजुट दिखना भाजपा नेतृत्व की चुनावी मजबूरी है। ये उपचुनाव इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं कि तीन चार महीनों के भीतर महाराष्ट्र, झारखंड, हरियाणा और जम्मू-कश्मीर विधानसभा के चुनाव होंगे। भाजपा महाराष्ट्र और हरियाणा की सत्ता बरकरार रखने की मशक्कत में जुटी हुई है। पिछड़ों और ओबीसी का दांव कितना कारगर होगा। यह आने वाला समय बताएगा। लोकसभा के नतीजे तो दोनों राज्यों में भाजपा के लिए उत्साह जनक नहीं रहे। झारखंड की सत्ता पर काबिज होना भाजपा का पुराना सपना है। हेमंत सोरेन के जमानत पर बाहर आने के बाद झारखंड का चुनावी माहौल फिलहाल भाजपा के लिए और कठिन हो गया है।

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