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सपनों में क्यों बसा है वीआईपी कल्चर?
महेश खरे

Mahesh khare
Mahesh Khare

चैतन्य मन में बड़ा होने का सपना बचपन से ही हिलोरें लेने लगता है। बच्चे से पूछिए-बेटा बड़ा होकर क्या बनेगा? चाय वाले का बेटा होगा तब भी जवाब होगा प्रधानमंत्री। कोई डॉक्टर, इंजीनियर तो कोई कलेक्टर, कमिश्नर बनना चाहेगा। अब किसान का बेटा भी किसान नहीं बनना चाहता। कारण, कीचड़ -कादो में हाथ गंदा करना किसी को नहीं भाता। फिर पैसा, कौड़ी भी उतनी नहीं मिलती, जितनी मेहनत लगती है। आंदोलन करो तो सरकार का कोप भाजन बनो। आंसू गैस, गोली, फिर भी आगे बढ़ो तो सड़क पर कीलें ठुकी मिलेंगी।

VIP बनने की चाह

वीआईपी होते तो पुलिस रास्ता बनाती। सलामी ठोकती। इसीलिए आईएएस के बेटे-बेटी आईएएस ही बनना चाहते हैं। शान और शौकत कौन नहीं चाहता? सांसद मंत्री और मंत्री पीएम के सपने कल भी देखते थे, आज भी देखते हैं और कल भी देखेंगे। साहब को सलामी हर जगह मिलती है।

राज नारायण का वीआईपी कल्चर विरोध

सलामी से याद आया आपात काल के बाद बनी जनता सरकार में स्वास्थ्य मंत्री राज नारायण भी वीआईपी कल्चर के खिलाफ थे। मंत्रियों को सुबह-सुबह पुलिस गारद की सलामी की परंपरा तब भी थी। बंगले पर हों या सर्किट हाउस पर। मंत्री जी ग्वालियर के दौरे पर थे। वक्त पर सलामी लेने के बाद वे गार्ड के पास पहुंचे। हवलदार के गले में हाथ डालकर समझाने लगे। तुम देश के रखवाले हो। नेताओं को सलामी मत दिया करो।

पुलिस प्रोटोकॉल और जनता की असुविधा

पुलिस तो प्रोटोकॉल से बंधी होती है। चौधरी चरणसिंह का खुद को हनुमान बताने वाले राज नारायण की सीख काम नहीं आई। अलबत्ता मंत्रीजी अखबारों की सुर्खियां जरूर बने। इसके बाद तो और भी बहुत से मंत्रियों ने राजनारायण की तरह जवानों को सीख देना शुरू कर दी। सीख भी चलती रही और सलामी भी।

नीली-लाल बत्ती का आकर्षण

नीली-लाल बत्ती का अपना खास आकर्षण होता है। बहुत कोशिशें हुईं। गाड़ियों के हूटर कुछ कालखंड के लिए थम तो गए…पूरी तरह शांत नहीं हो पाए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी स्वयं वीआईपी कल्चर के खिलाफ हैं। मोदी-01 में वीआईपी मूवमेंट को लेकर आमजन को हुई परेशानी का प्रश्न 11 सितंबर 2015 को चंडीगढ़ में उठा था। पीएम का दौरा था। लोगों को हुई असुविधा के लिए तब पीएम ने खेद भी जताया। मोदी कैबिनेट ने 1 मई 2017 से सरकारी वाहनों पर लाल बत्ती नहीं लगाने का निर्णय लिया। खुद पीएम मोदी ने कहा था कि हर भारतीय वीआईपी है। इस आदेश के तहत एंबुलेंस और अग्निशमन जैसी सेवाओं में तैनात वाहनों को छोड़ राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों सहित सभी वीआईपी वाहनों से लालबत्ती हटा दी गई। यही नहीं रिपब्लिक डे समारोह में सेंट्रल विस्टा का निर्माण करने वाले श्रमिकों और कामगारों को विशेष अतिथि बनाया गया। ऐसे और भी बहुत उदाहरण हैं। लेकिन, ‘टाइगर जिंदा है’ की तरह वीआईपी कल्चर जिंदा ही रहा।

वीआईपी कल्चर और जनमानस

अब फिर उत्तर प्रदेश में प्रैशर हॉर्न और हूटर लगी गाड़ियों के चालान कट रहे हैं। महानगरों से ज्यादा वीआईपी का रौब और रुतबा गांव, कस्बों में होता है। वहां कोई देखने वाला नहीं। सैंया भए कोतवाल तो डर किस बात का।

मंदिरों में वीआईपी का रुतबा

मंदिरों में वीआईपी परिवार की हैसियत के अलग ही दर्शन होते हैं। तीर्थक्षेत्रों में वीआईपी पास वालों का अलग ही रुतवा होता है। कृष्ण को तो दरिद्र नारायण कहा जाता है। ऐसे सखा जो गरीब ब्राह्मण सुदामा के आने की खबर पाकर राजसिंहासन छोड़कर नंगे पांव मिलने दौड़ गए थे। लेकिन मंदिरों में धन और हैसियत का बड़ा प्रभाव रहता है। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव महाकाल की नगरी का प्रतिनिधित्व करते हैं। महाकाल मंदिर में 1500 और 250 रुपए के वीआईपी दर्शन की पर्ची कटती है। भारत में शायद ही कोई ऐसा तीर्थ क्षेत्र हो जहां अमीर गरीब, जनता नेता एक ही कतार में लगकर दर्शन पाते हों।

असम की पहल

असम में जरूर वीआईपी कल्चर के खिलाफ 1 जुलाई से सार्थक पहल होने जा रही है। मुख्यमंत्री हिमंता विश्व सरमा ने वीआईपी बंगलों के बिजली बिल सरकारी खजाने से भरना बंद करने का आदेश जारी कर दिया। असम के वीआईपी अब अपनी जेब से ही बिल भरेंगे। सरकार उनका बिल नहीं भरेगी।

सांसद और विधायकों की स्थिति

सांसद और विधायक भी तो वीआईपी हैं। इनके सभी बिल सरकार ही भरती है। इस पर विचार कब होगा? निर्वाचित जनसेवकों के लिए बना यह कल्चर सरकारी खजाने पर भारी बोझ बढ़ाता है।

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