वोटर सूची संशोधन संबंधी सवालों का शीघ्र हो समाधान

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एसवाई कुरैशी (पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त)
जब भारत के चुनाव आयोग ने बिहार विधानसभा चुनाव से ऐन कुछ महीने पहले मतदाता सूचियों में विशेष गहन संशोधन (एसआईआर) किए जाने की घोषणा कर दी, तो इससे राजनीतिक हलकों में कई तरह की आशंकाएं पैदा हो गई। हालांकि चुनाव आयोग इस कवायद का बचाव संवैधानिक अनिवार्यता बताकर कर रहा है। संविधान के अनुच्छेद 326 में यह जरूरी है कि केवल 18 वर्ष या उससे अधिक आयु के भारतीय नागरिक ही मतदान के हकदार हैं। आयोग के मुताबिक, वर्तमान संशोधन का उद्देश्य सूचियों में सुधार करके यह प्रावधान यकीनी बनाना है। इस विशेष गहन संशोधन प्रक्रिया के तहत 2003 की मतदाता सूचियों में जिनका नाम शामिल था, उन्हें सत्यापित मतदाता माना जाएगा। अतीत में भी चुनाव आयोग उन जगहों पर गहन संशोधन करने का आदेश देता आया है, जहां उसे मतदान सूची की विश्वसनीयता संदिग्ध या पुरानी लगे।
हालांकि, जिन लोगों का नाम 2003 के बाद मतदाता सूची में शामिल हुआ है या जिन्होंने नाम कभी शामिल नहीं कराया- उन्हें अब नागरिकता की स्व-घोषणा और अन्य सहायक दस्तावेज जैसे जन्म प्रमाणपत्र या माता-पिता का प्रमाणपत्र जमा कराना होगा। इसके पीछे घोषित इरादा चुनावी डेटाबेस अपडेट व शुद्ध करना है। लेकिन, ईमानदार दिखने वाली अनेक अन्य प्रक्रियाओं की तरह यहां भी छिपी चतुराई विवरण में स्पष्ट हो जाती है। मतदाता सूचियों को संशोधित करने का विचार नया नहीं है। वास्तव में, 2003 की कवायद के तुरंत बाद चुनाव आयोग ने कई पूर्वोत्तर राज्यों और जम्मू एवं कश्मीर में बड़े पैमाने पर गहन संशोधन प्रक्रिया चलाई थी। हालांकि, तब इन संशोधनों को चुनावों से ऐन पहले नहीं करवाया गया था, न ही चुनिंदा मतदाता समूहों के लिए अतिरिक्त दस्तावेज़ों की आवश्यकता थी।
इससे पहले भी, बिहार सहित 20 अन्य राज्यों में चरणबद्ध तरीके से इसी किस्म की कवायद हुई थी। एसआईआर मतदाता पंजीकरण प्रक्रिया का आधारभूत अवयव हैं – विशेषतया बड़े पैमाने पर हुई कवायदों में जैसे परिसीमन, किसी क्षेत्र में उथल-पुथल उपरांत शांतिकाल या डिजिटलीकरण।
2003 व 2004 के बाद से वार्षिक सारांश संशोधन सामान्य प्रक्रिया बन गये। साल 2004 के बाद किसी भी राज्य को चुनाव आयोग के सचेत निर्णय चालित गहन संशोधन नहीं करना पड़ा, क्योंकि घर-घर सर्वेक्षण के अलावा वार्षिक सारांश रिपोर्ट पर्याप्त थी। स्थापित प्रथा से विचलन व जिस वक्त यह कवायद की जा रही है, वह बिहार में इसे विवादास्पद बनाता है। निस्संदेह, मतदाता सूचियों को नियमित अपडेट किया जाना चाहिए – लेकिन बिहार जैसे बाढ़-ग्रस्त, उच्च-प्रवासन वाले राज्य में मतदान से बमुश्किल चार महीने पहले ऐसा करना इसे बहुत मुश्किल काम बनाता है। चिंता वैधता की नहीं; बल्कि व्यावहारिकता व कार्यान्वयन से उपजने वाली राजनीतिक दृश्यावली को लेकर है।
मूलत:, यह संशोधन प्रमाण पेश करने का भार मतदाता पर डाल रहा है। जिन लोगों के नाम 2003 की मतदाता सूची में नहीं हैं, उन्हें अब दस्तावेज़ी साक्ष्यों के साथ अपनी प्रमाणिकता साबित करनी होगी। सैद्धांतिक रूप में भले यह उचित लगता हो, किंतु व्यावहारिक पटल पर इससे उन लोगों को मताधिकार से वंचित करने का खतरा बन जाता है, जिनकी सरकारी कागजात पूरा करने की दरकारों में फंसने की गुंजाइश सबसे अधिक है, मसलन, प्रवासी मज़दूर, दलित, आदिवासी, शहरी ग़रीब, अल्पसंख्यक, बुज़ुर्ग और महिलाएं- जिनमें से अधिकांश के पास जन्मप्रमाण पत्र या माता-पिता के दस्तावेज़ नहीं। ऐसे लोगों के लिए उनका नाम पिछली मतदाता सूची में होना पर्याप्त माना जाना चाहिए था, खासकर अब जबकि डिजिटलीकरण काफी उन्नत है। यहां पर असम की एनआरसी प्रक्रिया के साथ समानता करने से बच नहीं सकते। वहां भी, ऐतिहासिक दस्तावेज़ों की अनिवार्यता पूरी न किए जाने के कारण लगभग बीस लाख लोग मतदान सूची से बाहर हो चुके हैं, जिनमें से अधिकतर ग़रीब हैं। जबकि चुनाव आयोग का दावा है कि एसआईआर चुनावी प्रक्रिया है-न कि नागरिकता की पड़ताल।
इस मुद्दे को और जटिल बनाता है,व्यापक परामर्श का अभाव।
विपक्षी दलों का आरोप है कि विशेष गहन संशोधन को बिना किसी पूर्व सूचना के या उनसे चर्चा किए बिना शुरू कर दिया गया है। चुनाव आयोग ने 2002-03 में 20 राज्यों में एसआईआर और पूर्वोत्तर राज्यों और जम्मू-कश्मीर में 2004 के संशोधन करने के दौरान, राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय दलों के साथ पहले मशविरा किया था। ऐसी कवायद जल्दबाजी में नहीं बल्कि अक्सर चुनावों से कई साल पहले की जाती थी, जिससे फीडबैक, जन जागरूकता मुहिम और पार्टियों की भागीदारी के लिए पर्याप्त समय मिल सके। विगत में चुनाव आयोग ने 2003 की मतदाता सूची को ऑनलाइन प्रकाशित किया और घर-घर जाकर सत्यापन में मदद करने के लिए करीब एक लाख बूथ-स्तरीय अधिकारियों और इतने ही वालंटियर तैनात किये। सबसे महत्वपूर्ण यह कि इसने स्पष्ट किया है कि 2003 की सूचियों में पहले से शामिल 4.96 करोड़ मतदाताओं को दस्तावेज देने की जरूरत नहीं। वर्तमान में भले ही चुनाव आयोग ने दावों-आपत्तियों की प्रक्रिया खोल दी व राजनीतिक दलों से बूथ स्तर पर एजेंट नियुक्त करने को भी कहा है। ये सभी कदम स्वागत योग्य हैं, लेकिन संशोधन प्रक्रिया की चिंताओं का निवारण करने में पर्याप्त नहीं।
बेशक विशेष गहन संशोधन का कानूनी आधार मजबूत है। अनुच्छेद 324 ,अनुच्छेद 326, मतदाता पंजीकरण नियम, 1960 का नियम 25 और जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 की धारा 21, मतदान सूचियों को वक्त मुताबिक संशोधित करने का समर्थन करती है। सुप्रीम कोर्ट के फैसलों ने भी इन मामलों में आयोग की स्वायत्तता की पुष्टि की है। लेकिन लोकतंत्र में कानूनी अवयव एकमात्र पैमाने नहीं होते बल्कि नैतिक वैधता व जनता का भरोसा उतने ही मायने रखता है।
चुनाव आयोग को न केवल निष्पक्ष रूप से काम करना चाहिए – बल्कि उसे निष्पक्षता से काम करते हुए दिखना भी चाहिए। गहराते राजनीतिक ध्रुवीकरण और संस्थानों के प्रति अविश्वास के बढ़ते माहौल के बीच सहानुभूति और स्पष्टता की कमी होने पर नेकनीयत कार्यों को भी गलत समझा जा सकता है। आयोग को दस्तावेज़ीकरण के लिए समय सीमा बढ़ाने पर विचार करना चाहिए। साथ ही इसको पहले उन राज्यों में शुरू करने पर विचार करना चाहिए, जहां चुनाव 2-3 साल बाद होने हैं।
ऐसे वक्त में, संस्थान यह वास्ता देकर कि वह तो सिर्फ कानून का पालन करवा रहा है, अपनी विश्वनीयता खो सकते हैं। बाकियों की तरह, बिहार के मतदाता भी,स्वच्छ मतदाता सूची के हकदार हैं – लेकिन बड़ी संख्या में लोगों के बाहर छूट जाने की एवज पर नहीं। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के संरक्षक के रूप में, चुनाव आयोग को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि प्रत्येक नागरिक का वोट देने का अधिकार न केवल सुरक्षित रहे बल्कि वह सम्मानित भी महसूस करे। जब मतदान का अधिकार संवैधानिक गारंटी के बजाय विशेषाधिकार की तरह लगने लगे, तो लोकतंत्र की भावना अपने आप सिकुड़ जाएगी।

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