जब सपने में आए कबीर
प्रेमकुमार मणि
सपने में केवल प्रेमी-प्रेमिकाएं ही नहीं आते, बाज दफा महापुरुष भी आ जाते हैं। एक बार कबीर मेरे सपने में आये। धवल धज थी उनकी – सुफेद बाल-दाढ़ी और सुफेद ही कपडे। रंग था गेंहुआ –सांवलेपन की ओर झुका हुआ। सब मिला कर चित्ताकर्षक व्यक्तित्व – दिव्य का दर्ज़ा देने लायक।
कबीर से मुलाकात
संयोग ही था कि जब वह आये, मैं उनके पदों को ही पढ़-गुनगुना रहा था। जाड़ों की सुबह थी और मैं धूप में कुर्सी पर किताब लिए बैठा था। उन्हें परिचय देना नहीं पड़ा। मैं पहचान गया। साहेब बंदगी कर उन्हें साथ वाली कुर्सी पर बैठाया। वह विहँस रहे थे, मानो कज्जल तालाब में बड़ा-सा कँवल अभी-अभी खिला हो। उन्होंने अपनी चदरिया ठीक की, गो कि वह पहले से ही ठीक थी।
एक अनोखी याचना
मैं मुग्ध था, अभिभूत-सा। मेरे भीतर एक अनहद राग हिलोरें ले रहा था और दिल के दसों द्वार खुले थे। बात चदरिया से ही शुरू हुई। मैंने उनसे याचना की कि एक ऐसी ही चादर मेरे लिए भी बुन दें। वह मुस्कुराए, फिर धीरे-से कहा – सबको अपनी चदरिया खुद ही बुननी पड़ती है। जो दूसरों की बुनी चादर ओढ़ते हैं, उनसे अपुन की नहीं बनती। सबको अपनी कमाई की रोटी खानी चाहिए, अपनी बुनी चादर ही ओढ़नी चाहिए। हमारे अमर देश में ऐसा ही होता है।
अमर देश की नागरिकता
मैं चादर से कूदकर अमर देश पर आ गया। फिर याचना की, – कबीर, मुझे अपने अमर देश का नागरिक बना लीजिए न! फिर कबीर मुस्कुराए। कुछ समय तक मुस्कुराते ही रहे। लेकिन जब बोले तब वाणी में थोड़ी-सी तल्खी थी, मानो वह मेरे भीतर बैठे पांडे को झिड़क रहे हों – यह याचना का कुसंस्कार तज सको तो तजो साधो। सब कुछ मांगने पर ही तुम क्यों तुले रहते हो? यह हाय-हाय का भाव तुम्हे कहीं का नहीं छोड़ेगा। अमर देश की नागरिकता मांगी नहीं जाती, अर्जित की जाती है। जिस दिन अपनी कमाई रोटी खाने लगे और अपनी बुनी चदरिया ओढ़ने लगे, अमर देश के वासी बन जाओगे। कहीं दरखास्त देने की जरूरत नहीं। दूसरों की कमाई खाने वाले अमरदेश के नहीं, रामराज के वासी होते हैं।
कबीर का रूपांतरण
मैं कबीर से चाय के लिए पूछने वाला था कि देखा चदरिया हरकत में आई। कबीर का चेहरा पहले एक शिशु में बदला, फिर एक फूल में। अंततः वह भी गुम। बस चदरिया फड़फड़ाती रही। धीरे-धीरे वह ऊपर उठी और उड़ने लगी। मैंने उसे पकड़ने की कोशिश की; लेकिन इस कोशिश में मैं खुद सतह से उठ गया और उड़ने लगा। नींद टूटी, तब मेरे पास कुछ नहीं था, सिवा एक भीनी वास के। फूल उड़ गया था, वास रह गई थी और मैं उसका हिस्सा हुआ जा रहा था।