क्यों बन रहीं हैं हिंदू धर्म का मजाक उड़ाने वाली फिल्मों
आर.के. सिन्हा
आपको न जाने कितनी इस तरह की फिल्में मिल जाएंगी जिनमें हिंदू धर्म के देवी-देवताओं को अपमानित होते हुए या गलत तरीके से पेश किये जाते हुए दिखाया गया है। यह किनके इशारे पर हो रहा है I समझ नहीं आता कि अब हमारे यहां सार्थक फिल्में क्यों नहीं बनती? इसी तरह से बच्चों की पृष्ठभूमि पर फिल्में बनाना क्यों फिल्मकारों ने छोड़ दिया है? कुछ फिल्म वाले हिंदू धर्म और हिंदू धर्म के आराध्य देवी-देवताओं के साथ बार-बार खिलवाड़ करके पता नहीं क्या साबित करना चाहते हैं ? राम भारत की आत्मा में है। भारत की राम के बिना कल्पना तक भी नहीं की जा सकती। नवजात शिशु के कान में पहला शब्द राम ही बोला जाता है और शवयात्रा में “रामनाम सत्य है “ ही कहकर मृतात्मा को अंतिम विदाई डी जाती है I उन्हीं राम और रामायण को लेकर एक बेसिर पैर की फिल्म ‘आदिपुरुष’ बना दी जाती है और सहिष्णु हिन्दू चुपचाप बैठे रहते हैं । उस पर तगड़ा बवाल भी हुआ। सवाल ये है कि क्या सेंसर बोर्ड में खासमखास ओहदों पर बैठे ज्ञानियों ने ‘आदि पुरुष’ को देखा नहीं था? उन्होंने उसे प्रदर्शन की इजाजत कैसे दे दी? इसके संवाद एक दम घटिया हैं। अब आमिर खान की फिल्म ‘पीके’ को ही लें। इसमें भगवान शंकर के वेश में एक युवक को सड़कों पर बेताहशा दौड़ते हुए दिखाया गया था। क्या आमिर खान को यह दिखाना चाहिए था ? अब लीना मनिमेकलाई की फिल्म ‘काली‘ की बात कर लें। इसके पोस्टर में मां काली को सिगरेट पीते दिखाया गया है। क्या इससे हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को ठेस नहीं पहुंची? हिंदू धर्म और हिंदू देवी-देवताओं का अपमान करना एक तरह से फैशन होता जा रहा है। यह सिर्फ हिन्दू समाज की सहिष्णुता की वजह से हो रहा है I जिस दिन हिन्दू भी “ईश निंदा” के मसले पर गंभीर हो जायेगा, तब हिन्दुओं का मजाक उड़ाने वालों का क्या होगा, यह सोचने की बात है I
जरा सोचिए कि जिस देश में 80 फीसद से अधिक हिंदू रहते हैं वहां पर ये गटर छाप फिल्में दिखाई जाती हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि कंट्रोवर्सी खड़ी करने के लिए जानबूझकर फिल्मों के कंटेट को हिंदू विरोधी बनाया जाता है। कुछ साल पहले अहमदाबाद के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट यानी आईआईएम ने एक अध्ययन किया था। उन्होंने दावा किया था कि बॉलीवुड की फिल्में हिंदू धर्म के खिलाफ लोगों के दिमाग में धीमा ज़हर घोल रही हैं। फिल्मों के शैदाइयों को कई अन्य फिल्में भी याद आ जाएंगी जिनमें कला की स्वतंत्रता के नाम पर करोड़ों हिंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचाई जाती रही।
मैं यहां सलमान खान की फिल्म ‘टाइगर जिंदा हैं’ की खासतौर पर चर्चा करना जरूरी मानता हूं। इस फिल्म में पाकिस्तान की भारत विरोधी खुफिया एजेंसी इंटर सर्विस इंटेलीजेंस (आईएसआई) को भारत की हमदर्द एजेंसी के रूप में पेश किया गया था। तो क्या कुख्यात आईएसआई का हृदय परिवर्तन हो गया? क्या वह भारत की दोस्त और शुभचिंतक बन गई है? ‘टाइगर जिंदा है’ की संक्षेप में कहानी का सार यह है इराक में भारत की नर्से कट्टरवादी इस्लामिक संगठन आईएसआईएस के कब्जे में आ गई हैं। उन्हें मुक्त करवाने के अभियान में भारत की सक्षम खुफिया एजेंसी रॉ का आईएसआई सहयोग करती है। इससे अधिक झूठ कुछ नहीं हो सकता। दिन को रात कहना कहां तक सही माना जाए? ‘टाइगर जिंदा है’ को दर्शकों ने बहुत पसंद किया था। फिल्म हिट हुई थी। उसने तगड़ा बिजनेस भी किया था। पर सवाल वही है कि क्या आप क्रिएटिव फ्रीडम की आड़ में कुछ भी दर्शकों को पेश कर देंगे? क्या सेंसर बोर्ड सोया हुआ था, जिसने ‘टाइगर जिंदा है’ को प्रदर्शन की अनुमति दे दी? कैसे इस फिल्म में आईएसआई को भारत के मित्र के रूप में दिखा दिया गया। आईएसआई का सारा इतिहास भारत में गड़बड़ और अस्थिरता फैलाने के उदाहरणों से अटा पड़ा है। पाकिस्तान को मालूम है कि वह सीधे युद्ध में भारत के सामने टिक नहीं सकता। कौन नहीं जानता कि मुंबई में 2008 में हुए खूनी आतंकवादी हमले और काबुल में भारतीय दूतावास को निशाना बनाकर किए गए विस्फोट के पीछे आईएसआई का ही हाथ था। ये दावा बीबीसी ने भी दो हिस्सों में प्रसारित अपने एक कार्यक्रम में किया था। इसे ‘सीक्रेट पाकिस्तान‘ नाम दिया गया था। पर हम उसे अपने यहां एक मानवीय एजेंसी के रूप में खड़ा कर रहे हैं। भारत में जाली करेंसी का धंधा करवाने की भी फिराक में हमेशा आईएसआई रहती है। नोटबंदी के कारण 500 और एक हजार के नोट बंद करने के ऐलान ने आईएसआई की नींद उड़ा दी थी।
भारत में करोड़ों लोग मनोरंजन के लिए फिल्में देखते हैं। क्या उन्हें ‘पीके’, ‘टाइगर जिंदा है’, ‘काली’, ‘आदिपुरुष’ जैसी फिल्में दिखाई जानी चाहिए? सेंसर बोर्ड को अधिक सजग होने की जरूरत है ताकि कोई कचरा फिल्म प्रदर्शित ना हो। फिल्में इस तरह की भी बने जो अंध विश्वास पर हल्ला बोलें और दर्शकों का स्वस्थ मनोरंजन करें। हमारी फिल्मों में फूहड़ता भरी होती है। उनमें से अधिकतर में कुछ संदेश नहीं होता। साफ है कि इस तरह की फिल्मों से कोई फायदा नहीं होने वाल। हमें श्याम बेनेगल जैसे दर्जनों फिल्मकार चाहिए जो सार्थक सिनेमा के प्रति प्रतिबद्ध हों। श्याम बेनेगल की आरम्भिक फ़िल्में ‘अंकुर‘, ‘निशांत‘ और ‘मंथन‘ थीं। मनोरंजन और सामाजिक सरोकार के बीच संतुलन बनाए रखने की कोशिश में बेनेगल ने अपनी बाद की फ़िल्मों ‘कलयुग‘ , ‘जुनून‘ , ‘त्रिकाल‘ और ‘मंडी‘ से ग्रामीण पृष्ठभूमि को छोड़कर नाटकीय और शहरी विषय-वस्तुओं पर फ़िल्में बनानी शुरू कीं। शेयाम बेनेगल जैसे कई और भी हमारे यहां फिल्मकार हैं। पर उनकी संख्या बहुत कम है।
अब भी बुजुर्ग हो रहे हिन्दुस्तानियों को ‘बूट पॉलिश’, ‘अब दिल्ली दूर नहीं’ और ‘जागृति’ जैसी महान बाल फिल्में याद होंगी। ये सब कालजयी फिल्में थीं। पर अब कहां बनती है इस तरह की अमर फिल्में। मैंने ‘बूट पालिश’ पटना में देखी थी। मुझे इतने बरस गुजर जाने के बाद भी ‘बूट पालिश’ की कथा और किरदार याद हैं। ‘बूट पालिश’ को राज कपूर ने बनाया था। संयोग देखिए कि उन्होंने ही ‘जागृति’ और ‘अब दिल्ली दूर नहीं’ बनाई। 1957 में ‘ अब दिल्ली दूर नहीं’ फिल्म रीलिज हुई थी। उसकी कहानी लिखी थी मशहूर साहित्यकार राजेन्द्र सिंह बेदी ने। उसमें बाल कलाकार की भूमिका में अजमद खान भी थे। वे आगे चलकर गब्बर सिंह के किरदार में बहुत मकबूल हुए। यकीन मानिए कि कभी-कभी मन बहुत उदास हो जाता है कि हमारे यहां अब स्वस्थ और श्रेष्ठ फिल्में बननी लगभग बंद हो गईं हैं।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)