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Ashok Bhatia

1950 के दशक के आखिर में तिब्बत को अपने में मिलाने के बाद चीन ने अक्साई चिन के 38000 वर्ग किलोमीटर इलाके पर कब्जा कर लिया था। यह इलाका लद्दाख से जुड़ा थे। यहां पर चीन ने नेशनल हाईवे 219 बनाया, जो उसके पूर्वी प्रांत शिनजियांग को जोड़ता है। भारत इसे चीन का अवैध कब्जा मानता है। वैसे तो चीन पूरे अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा ठोकता है, लेकिन उसकी खास दिलचस्पी तिब्बत और भूटान की सीमा से लगे हुए तवांग में सबसे ज्यादा है। कुछ समय पूर्व तवांग में चीनी सैनिक घुसने की कोशिश कर रहे थे, जिन्हें भारतीय सैनिकों ने खदेड़ दिया। लेकिन चीन की तवांग में क्या दिलचस्पी है? 1914 में ब्रिटेन, चीन और तिब्बत के बीच शिमला में एक कॉन्फ्रेंस हुआ। इसमें बॉर्डर से जुड़े अहम फैसले लिए गए। ब्रिटिश इंडिया और तिब्बत के बीच 890 किलोमीटर की सीमा खींची गई। इसके तहत तवांग (अरुणाचल प्रदेश) को भारत का हिस्सा माना गया। लेकिन इस कॉन्फ्रेंस का कोई लिखित रिकॉर्ड नहीं रखा गया। चीन के प्रतिनिधियों ने तत्काल वाले मैप पर तो साइन किए लेकिन बाद में डिटेल्ड मैप पर साइन नहीं किए। चीन इसके बाद से कहता है कि उसे धोखे और अंधेरे में रखते हुए मैकमहोन रेखा खींची गई। यही कारण है कि चीन मैकमहोन लाइन को मानने से इनकार करता रहता है।

चीन का कहना है कि भारत के साथ आधिकारिक तौर पर बॉर्डर कभी तय ही नहीं हुआ। उसका यह भी मानना है कि तिब्बत कोई संप्रभु देश नहीं है जो बॉर्डर को लेकर किसी एग्रीमेंट पर साइन करे। चीन पूरे अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा जताता है। उसे दक्षिणी तिब्बत बताता है। तवांग का सामरिक तौर पर बहुत अहम स्थान है। राजधानी ईटानगर से करीब 450 किलोमीटर दूर तवांग अरुणाचल प्रदेश का सबसे पश्चिमी जिला है। तवांग चीन के साथ ही भूटान के साथ भी बॉर्डर साझा करता है।

हिमालय के फुटहिल्स में स्थित भारत के इस क्षेत्र को पहले नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी कहते थे। यह ब्रिटिश इंडिया के राजनैतिक विभाजन में से एक थी। 1972 तक इसे इसी नाम से जाना जाता था। 20 जनवरी 1972 को इसे भारतीय गणराज्य के केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा प्राप्त हुआ और इसका नाम बदलकर अरुणाचल प्रदेश कर दिया गया। अरुणाचल प्रदेश को अंततः 20 फरवरी 1987 को भारत का 24वां राज्य घोषित किया गया। यह उत्तर में बर्फ से ढके पहाड़ों से लेकर दक्षिण में ब्रह्मपुत्र घाटी के मैदानी इलाकों तक फैला हुआ है। अरुणाचल प्रदेश पूरे नॉर्थ-ईस्ट रीजन में सबसे बड़ा राज्य है। इसके साथ ही भौगोलिक क्षेत्र का अधिकांश भाग भूमि है, जो 98 प्रतिशत जंगल और 2 प्रतिशत पानी से घिरा हुआ है। यह राज्य भूटान, तिब्बत और म्यांमार के साथ सीमा साझा करता है।

1914 के शिमला समझौते ने ईस्टर्न सेक्टर में एलएसी के साथ अलाइन करते हुए मैकमोहन लाइन को ब्रिटिश इंडिया और तिब्बत के बीच नई सीमा के रूप में परिभाषित कर दिया था। यह नाम ब्रिटिश इंडिया के फॉरेन सेक्रेटरी सर हेनरी मैकमोहन के नाम पर रखा गया था। सर हेनरी मैकमोहन ने 1914 में ग्रेट ब्रिटेन, चाइना और तिब्बत के बीच हुए शिमला कन्वेंशन के तहत ब्रिटिश इंडिया और तिब्बत के बीच सीमा के रूप में 890 किलोमीटर की एक रेखा खींच दी थी। हालांकि अंत में चाइना ने इस लाइन को स्वीकार नहीं किया और यह समझौता ब्रिटिश इंडिया और तिब्बत के बीच साइन किया गया था। चूंकि तिब्बत तब चाइना से अलग हुआ करता था, इस संधि के लिए चाइना के रिप्रेजेंटेशन की तब कोई जरूरत नहीं थी और इस संधि के द्वारा तिब्बत ने तवांग सहित अपने दक्षिण के कुछ क्षेत्रों को ब्रिटिशर्स को सौंप दिया था।

यदि हम भौगोलिक निकटता से देखें तो तवांग एक लैंड लॉक्ड रीजन भी है। इसके नॉर्थ में तिब्बत ऑटोनोमस रीजन, साउथ वेस्ट में भूटान और ईस्ट में अरुणाचल प्रदेश के वेस्ट कमिंग जिला से अलग हुई सेला पास है और इस प्रकार यहां एक ट्राई जंक्शन बनता है। तवांग पर कब्जा करने के लिए चाइनीज सोल्जर्स को सेला पास तक पहुंचना होगा। सेला पास आने के लिए उन्हें तवांग में स्थित येंगजी क्षेत्र से होकर आगे आना होगा। इसके अलावा येंगजी में 17000 फीट ऊंची एक चोटी है, यह शिखर वर्तमान में भारत के नियंत्रण में आता है, जो बॉर्डर के दोनों तरफ एक शानदार दृश्य प्रदान करता है और इसीलिए भारत फायदे की स्थिति में रहा है।

तवांग में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा तिब्बती बौद्ध मठ है। तिब्बत की राजधानी ल्हासा के बाद सबसे बड़ा। इसे मठ को बेहद पवित्र माना जाता है। एक्सपर्ट्स बताते हैं कि यह मठ चीनी शासन से दूर रहने के कारण अब तक अपने शुद्ध रूप में है। तवांग तिब्बती संस्कृति के अंतिम बचे केंद्रों में से एक है। जब चीनी सैनिक तिब्बत को तबाह कर रहे थे तो इस मठ ने कई अमूल्य पांडुलिप और पुराने शास्त्रों को बचाया है। तवांग मठ देवता पालदेन ल्हामो और याद्री देवी को समर्पित है, जिन्हें तिब्बत का प्रमुख संरक्षक माना जाता है। मान्यता है कि यदि यह मठ गिर जाता है तो तिब्बत और तिब्बती बौद्ध धर्म हमेशा के लिए समाप्त हो जाएंगे। तवांग तिब्बती बौद्ध केंद्र का आख़िरी सबसे बड़ा गढ़ है जिसे चीन सालों से नष्ट करना चाहता है। इस मठ की विरासत बीजिंग और नई दिल्ली के बीच टकराव का केंद्र रही है।

एक्सपर्ट्स मानते हैं कि चीन जानबूझकर तवांग सेक्टर में झड़पों को अंजाम देकर भारत की सैन्य तैयारियों की जांच करता है। लद्दाख और अरुणाचल में चीन आज भी लगातार भारत को उकसाने वाली हरकतें करने से बाज नहीं आ रहा क्योंकि वह चाहता है कि उकसाने में आकर भारत कोई ऐसी कार्रवाई करे, जिसका फायदा वो उठा सके। चीन का अरुणाचल के बड़े हिस्सों पर अपना दावा जताना कोई नई बात नहीं। वह पहले भी हमारे कई नेताओं तक की अरुणाचल यात्रा पर कई बार विरोध कर चुका है। पिछले तीन दशक में पूर्व में स्थित अनजान से लेकर राज्य के पश्चिम में स्थित तवांग तक ‘लाइन आफ एकचुअल कंट्रोल’ के आसपास 1126 किलोमीटर के इलाके के पास चीन की गतिविधियों के निरंतर बढ़ते रहने की बात सामने आने लगी। 1986 में भारतीय सेना ने अरुणाचल प्रदेश के तवांग के पास चीनी सेना की बनाई स्थाई इमारतें देखीं तब पहली बार इस क्षेत्र में भारतीय सेना सक्रिय हुई। उसने हाथुंगला पर अपनी तैनाती को मजबूत कर लिया। तब दोनों देशों में युद्ध की स्थिति पैदा हो गई थी। मामला तब शांत हुआ था जब तत्कालीन विदेश मंत्री नारायण दत्त तिवारी बीजिंग पहुंचे। लेकिन बाद के सालों में चीन ने बहुत आक्रामकता दिखाई। उसने दिवगंत घाटी में पोस्टर लगाकर उस पूरे इलाके को ही चीन के अधीन बता दिया था।

भारत-चीन सीमा विवाद पर बैठकों के लम्बे दौर के दौरान चीन ने अरुणाचल को लेकर भ्रम की स्थिति पैदा करने की कोशिश की। उसने अरुणाचल के लोगों को भावनात्मक स्तर पर भारत से तोड़ना चाहा। उसने स्पष्ट संदेश दिया कि अरुणाचल के लोग चीन के ही नागिरक हैं। उसने अरुणाचल के युवाओं को बिना वीजा चीन में प्रवेश देकर यह संदेश दिया था की जब आप चीन के ही नागरिक हैं तो फिर वीजा की क्या जरूरत है। चीन की नजरें अरुणाचल के तवाऊं शहर में तवांग मठ पर हैं। 15वें दलाई लामा का जन्म यहीं हुआ था। चीन तवांग को लेकर तिब्बत की तरह प्रमुख बौद्ध स्थलों पर मजबूत पकड़ बनाना चाहता है। 1962 के युद्ध में चीन ने तवांग मठ पर भी कब्जा कर लिया था लेकिन बाद में उसे यहां से वापिस लौटना पड़ा था। तब से ही उसकी नजरें तवांग पर अटकी हुई हैं। तवांग भारत के लिए सामरिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है।

चीन भी जानता है कि भारत की सैन्य ताकत अब कमजोर नहीं है। भारत पहले से कहीं अधिक मजबूत है। अब सवाल यह है कि अगर चीन अरुणाचल पर कब्जा करना चाहता था तो फिर1962 की लड़ाई में वो इससे पीछे क्यों हट गया? जबकि 62 युद्ध के समय भारत काफी कमजोर था। चीन यह जानता है कि अरुणाचल के लोग कभी उसके समर्थन में नहीं खड़े हुए। चीन ने भारत के वास्तविक नियंत्रण सीमा के 4.-5 किलोमीटर अंदर एक गांव भी बसा लिया है। इसके जवाब में भारत की तरफ से भी सीमा पर इंफ्रास्ट्रक्चर बढ़ाया जा रहा है। इस बीच उसने धूर्त्तता और चतुराई के साथ भारत के साथ व्यापार बढ़ाया और भारतीय बाजारों का खूब फायदा उठाया। भारत को अपनी सामरिक शक्ति को और बढ़ाना होगा ताकि हम किसी भी साजिश का मुंह तोड़ जवाब दे सकें।अभी हमारे देश में त्योहारों का सीजन है , हम चीनी मालों का पूर्ण बहिष्कार कर ड्रेगन के व्यापार की चेन तोड़ सकते है और उसे सबक सीखा सकते हैं।

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