ज्योति मल्होत्रा (प्रधान संपादक ‘द ट्रिब्यून’ )

भारत की विदेश नीति के खाते में फरवरी का महीना सबसे नागवार बनता जा रहा है (इन शब्दों के लिए टी.एस. इलियट से क्षमा याचना सहित)। पूर्व में देखें तो, बांग्लादेश के उद्दंड युवा, जिन्हें न तो किसी यादगार से लगाव है और न ही इतिहास याद रखने की इच्छा, ढाका में बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान के घर को जलाने के दौरान वे एक बॉलीवुड फिल्म के गाने, ‘मुन्नी बदनाम हुई…’ पर नाच रहे थे। दोनों देशों के लोगों के जीवन में एक वक्त जो गौरवशाली अध्याय था, उस पर हथौड़ों की मार का दृश्य विस्मित भारतीयों ने देखा और वे खुद से यह पूछे बिना नहीं रह सके, अब आगे क्या?
और बात पश्चिम की करें तो, ऐसे में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राष्ट्रपति ट्रंप से मिलने के लिए अमेरिका जाने की तैयारी हो रही है, और कुछ दिन पहले ही 104 भारतीय नागरिकों को बेड़ियों- हथकड़ियों में जकड़ कर वापस स्वदेश भेजा गया है, और 487 अन्य लोग भी उसी राह पर हैं, कई सवाल खड़े हो रहे हैं, परेशानी बनी हुई है कि क्या इन परिस्थितियों में प्रधानमंत्री का अमेरिका जाने का फैसला सही है। कई लोग कहेंगे, हां बिल्कुल। हमारी विदेश नीति में भारत-अमेरिका संबंध सबसे महत्वपूर्ण बने हुए हैं, इसके बावजूद कि रूस ने कोविड के बाद के वर्षों में तेल की कीमत में कटौती करके काफी राहत पहुंचाई थी। इस तर्क का समर्थन करने वालों का मानना है, प्रधानमंत्री के दौरे के समय व्यापार संबंधी एक मार्गदर्शिका तैयार होने की संभावना है, भारत द्वारा अमेरिकी रक्षा उपकरण अधिक मात्रा में खरीदने की चर्चा जोर पकड़ रही है, साथ ही भारत द्वारा असैन्य परमाणु क्षेत्र (17 वर्षों के बाद) खोलने की संभावित घोषणा भी हो सकती है।
यही कारण है कि विदेश मंत्री एस़ जयशंकर पिछले चार महीनों, सितंबर, दिसंबर और जनवरी, में तीन बार अमेरिका की यात्रा कर चुके हैं, ताकि मोदी-ट्रंप मुलाकात के परिणाम सार्थक बन सकें। उन्होंने कहा है कि प्रधानमंत्री उन तीन नेताओं में से एक होंगे, जिनके साथ ट्रंप सत्ता में अपने पहले महीने में मुलाकात करेंगे – इस्राइल के नेतन्याहू, जापान के इशिबा और भारत के मोदी। दुर्भाग्यवश, मोदी के वाशिंगटन डीसी पहुंचने से बमुश्किल एक सप्ताह पहले, खबरें बहुत उत्साहित करने वाली नहीं रही हैं।
सैकिंड हैंड जींस और सस्ते चीनी जूते पहने और पैरों में जंजीरें होने की वजह से अमेरिकी सैन्य विमान की तरफ घिसटकर बढ़ते युवा भारतीयों की तस्वीरों ने न केवल पंजाब में बल्कि पूरे देश में, हैरानी और विस्मय की तरंगें फैला दीं। बेशक, यह ठीक वही है जो ट्रंप करना चाहते हैं। वे दुनिया को यह संदेश देना चाहते हैं कि उन्हें अमेरिका में चोर दरवाज़े से भारी संख्या में पहुंचने वाले अकुशल लोगों में कोई दिलचस्पी नहीं है –हां, एच-1बी वीजा के जरिये प्रतिभाशाली, कुशल और निपुण लोगों की जमात कुबूल है।
उनके पास अपना चेहरा बचाने का समय भी नहीं बचा। अगर भारतीय प्रधानमंत्री एक हफ़्ते में आपसे मिलने आ रहे हैं, तो आपको अब यह उम्मीद नहीं पालनी चाहिए कि आपकी यात्रा की पूर्व संध्या पर अच्छी ख़बर आएगी। ट्रंप ने अपने कार्यकाल के कुछ हफ़्तों में ही विश्व व्यवस्था के नियमों की इबारत को फिर से लिख दिया है। पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन इसे ‘अमेरिका की ओर से असभ्य व्यवहार’ करार देते हैं। वैसे भी सभ्य तरीके और शिष्टाचार ‘नए अमेरिका’ की विदेश नीति का पहले ही शिकार बन चुके हैं। जिस तरह से ट्रंप मध्य पूर्व – गाजा, फिलिस्तीन, जॉर्डन – में बदलाव करने में लगे हुए हैं, वह अभूतपूर्व है। भारत ने चुप्पी साध रखी है क्योंकि पिछले कुछ समय से जिन अति-यथार्थवादी नीतियों का प्रचार किया जा रहा है, उनका मतलब यह है कि आप तभी शामिल होंगे जब आप सीधे तौर पर प्रभावित होंगे। और गाजा, फलस्तीन और जॉर्डन से आप सीधे प्रभावित नहीं हैं।
जहां तक गत सप्ताह की शुरुआत में, महिलाओं सहित 104 लोगों को बेड़ियों में जकड़कर विमान के जरिये घर वापस भेजे निर्वासितों की बात है, भारत सरकार का संदेश यह है कि जो लोग कानून तोड़ते हैं, वे उसी सजा के काबिल हैं, जो मिली। अमेरिकी सीमा गश्ती दल ने उन्हें ‘एलियन’ बताया है, और वे हैं भी। और फिर, जब जयशंकर ने निर्वासित भारतीयों पर संसद में ब्यान दिया, और रिकॉर्ड पर माना कि ‘रुख नौकरशाही तौर तरीकों से हिसाब से सही है’,तो कोई यह सोचे बगैर नहीं रह सकता कि यदि उनकी पूर्ववर्ती दिवंगत सुषमा स्वराज होतीं तो भारत के लिए बनी वर्तमान विकट परिस्थिति का सामना कैसे करतीं – जब अपने गरीब और अकुशल लोगों को उनके एक बहुत ही मूर्खतापूर्ण काम करने के लिए उचित रूप से दंडित होते हुए पातीं।
सुषमा आंटी ने विदेश मंत्रालय के सख्त दिल नौकरशाहों की नौकरशाही चेतना को इतना तो झिंझोड़ दिया था कि उन्हें दुनिया भर में भारतीय कामगारों के प्रति दयालुता का भाव रखने के लिए मजबूर होना पड़ा। उन्होंने प्रवासियों की सुरक्षा के लिए सुधारों का आदेश दिया, विदेश जाकर कमाने के इच्छुकों के लिए कानून सख्त किए गए, आव्रजन एजेंटों को सही राह पर चलने के लिए मजबूर किया गया। ऐसा नहीं कि उन्होंने पूरी व्यवस्था को साफ कर दिया था, लेकिन उन्होंने निश्चित रूप से कोशिश की। उन्हें पता था कि हमारे लोग अक्सर विदेशी कानून को तोड़ते हैं, लेकिन फिर भी उन्होंने सहृदयता दिखाई। जब वे जानबूझकर नियमों को तोड़ते हुए पकड़े गए, तब भी उनकी मुसीबतें कम करने की कोशिश की।
इसके बजाय, मौजूदा मोदी सरकार इन लोगों पर नियम पुस्तिका का वास्ता थोप रही है। इतना ही नहीं, विदेश मंत्रालय यह बता रहा है कि ये पंजाबी लोग जो अपना अमेरिकी सपने पूरा करने के ले 45 लाख रुपये खर्च कर सकते हैं, वे वास्तव में गरीब नहीं हैं। बेशक, विदेश मंत्रालय सही है। इन 104 पुरुषों और महिलाओं ने जानबूझकर ‘अमरीका’ के लिए एकतरफा टिकट खरीदा, अच्छी तरह से जानते हुए कि ‘डुनकी रूट’ ही अमेरिका में घुसने का तरीका था। फिर भी वे गए। समस्या यह है कि अगर उन्हें दुबारा मौका मिले तो वे फिर जाएंगे, क्योंकि उन्हें अमेरिका भेजने के लिए परिवार ने जो कर्ज उठाया है, उसकोे चुकाने की जरूरत है।
आप वापस मोदी-ट्रम्प और भारत-अमेरिका संबंधों के महत्व पर आते हैं। इस तथ्य के अलावा कि मोदी ट्रंप के साथ जल्दी से जल्दी राब्ता बनाने के लिए उत्सुक हैं, तथ्य यह है कि दोनों देश एक-दूसरे में तेजी से निवेश कर रहे हैं। । खुफिया जानकारी साझा करने से लेकर पिछले 25 वर्षों में हस्ताक्षरित सैन्य आधारभूत समझौतों के माध्यम से रक्षा एवं प्रौद्योगिकी की साझेदारी करने तक–जीएसओएमआईए, एलईएमओए, सीओएमसीएएसए, बीईसीए, नामक संधियां–यूं भारत अमेरिका के साथ इतनी निकटता से जुड़ा हुआ है कि इसे ‘अनौपचारिक सहयोगी’ के रूप में परिभाषित करना बहुत गलत नहीं होगा। कुछ लोग कहेंगे, क्यों नहीं। भारतीय मूल के 50 लाख से अधिक अमेरिकी नागरिक हैं, जो एक बेहद प्रभावशाली समूह है। हम उन सबकी सफलता पर नाज़ करते हैं। हम सुंदर पिचाई, सत्य नडेला, इंद्रा नूई और अजय बंगा को लेकर इतने गदगद् होते हैं, मानो वे हमारे अपने परिवार का हिस्सा हों।
समस्या तब पैदा होती है जब दोआबा के पंजाबी, कैथल के हरियाणवी और गांधीनगर के गुजरातियों की वो छवियां इस हसीन परिदृश्य को गंदला कर देती हैं- हथकड़ी और बेड़ी पहने। इससे बदतर यह कि उनके अपने परिवार के अलावा इन भारतीयों को कोई और अपनाना नहीं चाहता। ये वो लोग हैं, जो घर के… न घाट के।